11. Valmiki Ramayana - Aranya Kaand - Sarg 11

ओम् श्री गणेशाय नमः ।।

ओम् श्रीसीतारामचन्द्राभ्याम् नमः ।।

श्रीमद्वाल्मीकीय रामायण – अरण्यकाण्ड ।।

ग्यारहवाँ सर्ग ।।

सारांश ।

पञ्चाप्सर तीर्थ एवम् माण्डकर्णि मुनि की कथा, विभिन्न आश्रमों में घूम कर श्रीराम आदि का सुतीक्ष्ण के आश्रम में आना, वहाँ कुछ काल तक रह कर उन की आज्ञा से अगस्त्य के भाई तथा अगस्त्य के आश्रम पर जाना तथा अगस्त्य के प्रभाव का वर्णन ।।

आरम्भ ।।

श्लोक १ से १० ।।

१.
तदनन्तर आगे-आगे श्रीराम चले, बीच में परम सुन्दरी सीता चल रही थीं, और उन के पीछे हाथ में धनुष लिये लक्ष्मण चलने लगे ।।

२.
सीता के साथ वे दोनों भाई भाँति-भाँति के पर्वतीय शिखरों, वनों तथा नाना प्रकार की रमणीय नदियों को देखते हुए अग्रसर होने लगे ।।

३.
उन्होंने देखा, कहीं नदियों के तटों पर सारस और चक्रवाक विचर रहे हैं और कहीं खिले हुए कमलों और जल चर पक्षियों से युक्त सरोवर शोभा पाते हैं ।।

४.
कहीं चितकबरे मृग यूथ बाँधे चले जा रहे थे, तो कहीं बड़े-बड़े सींग वाले मद मत्त भैंसे तथा बढ़े हुए दाँत वाले जंगली सूअर और वृक्षों के वैरी दन्तार हाथी दिखायी देते थे ।।

५.
दूर तक यात्रा तै करने के बाद जब सूर्य अस्ताचल को जाने लगे, तब उन तीनों ने एक साथ देखा - सामने एक बड़ा ही सुन्दर तालाब है, जिस की लम्बाइ - चौड़ाई एक-एक योजन की जान पड़ती है ।।

६.
वह सरोवर लाल और श्वेत कमलों से भरा हुआ था । उसमें क्रीड़ा करते हुए झुंड के झुंड हाथी उस की शोभा बढ़ाते थे। तथा सारस, राजहंस और कलहंस आदि पक्षियों एवम् जल में उत्पन्न होने वाले मत्स्य आदि जन्तुओं से वह व्याप्त दिखायी देता था ।।

७.
स्वच्छ जल से भरे हुए उस रमणीय सरोवर में गाने-बजाने का शब्द सुनायी देता था, किंतु कोइ दिखायी नहीं दे रहा था ।।

८.
तब श्रीराम और महारथी लक्ष्मण ने कौतूहल वश अपने साथ आये हुए धर्मभृत् नामक मुनि से पूछना आरम्भ किया ।।

९.
“महामुने! यह अत्यन्त अद्भुत संगीत की ध्वनि सुन कर हम सब लोगों को बड़ा कौतूहल हो रहा है । यह क्या है, इसे अच्छी तरह बताइये” ।।

१०.
श्रीरामचन्द्रजी के इस प्रकार पूछने पर धर्मात्मा धर्मभृत् नामक मुनि ने तुरंत ही उस सरोवर के प्रभाव का वर्णन आरम्भ किया- ।।

श्लोक ११ से २० ।।

११.
“श्रीराम ! यह पञ्चाप्सर नामक सरोवर है, जो सर्वदा अगाध जल से भरा रहता है । माण्डकर्णि नामक मुनि ने अपने तप के द्वारा इस का निर्माण किया था” ।।

१२.
“महामुनि माण्डकर्णि ने एक जलाशय में रह कर केवल वायु का आहार करते हुए दस सहस्र वर्षों तक तीव्र तपस्या की थी” ।।

१३.
“उस समय अग्नि आदि सब देवता उन के तप से अत्यन्त व्यथित हो उठे और आपस में मिल कर वे सब के सब इस प्रकार कहने लगे” ।।

१४.
“जान पड़ता है, ये मुनि हमलोगों में से किसी के स्थान को लेना चाहते हैं, ऐसा सोच कर वे सब देवता वहाँ मन-ही-मन उद्विग्न हो उठे” ।।

१५.
“तब उन की तपस्या में विघ्न डालने के लिये सम्पूर्ण देवताओं ने पाँच प्रधान अप्सराओं को नियुक्त किया, जिन की अङ्गकान्ति विद्युत के समान चञ्चल थी” ।।

१६.
“ तदनन्तर जिन्हों ने लौकिक एवम् पारलौकिक धर्माधर्म का ज्ञान प्राप्त कर लिया था, उन मुनि को उन पाँच अप्सराओं ने देवताओं का कार्य सिद्ध करने के लिये काम के अधीन कर दिया” ।।

१७.
“मुनि की पत्नी बनी हुइ वे ही पाँच अप्सराएँ यहाँ रहती हैं । उन के रहने के लिये इस तालाब के भीतर घर बना हुआ है, जो जल के अंदर छिपा हुआ है” ।।

१८.
“उसी घर में सुख पूर्वक रहती हुई पाँचों अप्सराएँ तपस्या के प्रभाव से युवावस्था को प्राप्त हुए मुनि को अपनी सेवाओं से संतुष्ट करती हैं” ।।

१९.
“क्रीड़ा – विहार में लगी हुई उन अप्सराओं के ही वाद्यों की यह ध्वनि सुनायी देती है, जो भूषणों की झनकार के साथ मिली हुई है । साथ ही उन के गीत का भी मनोहर शब्द सुन पड़ता है” ।।

२०.
अपने भाई के साथ महायशस्वी श्री रघुनाथजी ने उन भावितात्मा महर्षि के इस कथन को “यह तो बड़े आश्चर्य की बात है” यों कह कर स्वीकार किया ।।

श्लोक २१ से ३१ ।।

२१.
इस प्रकार कहते हुए श्रीरामचन्द्रजी को एक आश्रम मण्डल दिखायी दिया, जहाँ सब ओर कुश और वल्कल वस्त्र फैले हुए थे । वह आश्रम ब्राह्मी लक्ष्मी (ब्रह्मतेज) से प्रकाशित होता था ।।

२२.
विदेहनन्दिनी सीता तथा लक्ष्मण के साथ उस तेजस्वी आश्रम मण्डल में प्रवेश कर के ककुत्स्थ कुलभूषण श्रीराम ने उस समय सुख पूर्वक निवास किया । वहाँ के महर्षियों ने उन का बड़ा आदर-सत्कार किया ।।

२३.
तदनन्तर महान् अस्त्रों के ज्ञाता श्रीरामचन्द्रजी बारी-बारी से उन सभी तपस्वी मुनियों के आश्रमों पर गये, जिन के यहाँ वे पहले रह चुके थे । उन के पास भी (उनकी भक्ति देख ) दुबारा जा कर रहे ।।

२४ से २५.
कहीं दस महीने, कहीं साल भर, कहीं चार महीने, कहीं पाँच या छः महीने, कहीं इससे भी अधिक समय (अर्थात् सात महीने) कहीं उससे भी अधिक (आठ महीने), कहीं आधे मास अधिक अर्थात् साढ़े आठ महीने, कहीं तीन महीने और कहीं आठ और तीन अर्थात् ग्यारह महीने तक श्रीरामचन्द्रजी ने सुख पूर्वक निवास किया ।।

२६.
इस प्रकार मुनियों के आश्रमों पर रहते और अनुकूलता पा कर आनन्द का अनुभव करते हुए उन के दस वर्ष बीत गये ।।

२७.
इस प्रकार सब ओर घूम-फिर कर धर्म के ज्ञाता भगवान् श्रीराम सीता के साथ फिर सुतीक्ष्ण के आश्रम पर ही लौट आये ।।

२८.
शत्रुओं का दमन करने वाले श्रीराम उस आश्रम में आ कर वहाँ रहने वाले मुनियों द्वारा भलीभाँति सम्मानित हो वहाँ भी कुछ काल तक रहे ।।

२९.
उस आश्रम में रहते हुए श्रीराम ने एक दिन महामुनि सुतीक्ष्ण के पास बैठ कर विनीत भाव से कहा – ।।

३० से ३१.
“भगवन्! मैंने प्रतिदिन बातचीत करने वाले लोगों के मुँह से सुना है कि इस वन में कहीं मुनिश्रेष्ठ अगस्त्यजी निवास करते हैं; किंतु इस वन की विशालता के कारण मैं उस स्थान को नहीं जानता हूँ” ।।

श्लोक ३२ से ४१ ।।

३२ से ३३.
“उन बुद्धिमान् महर्षि का सुन्दर आश्रम कहाँ है? मैं लक्ष्मण और सीता के साथ भगवान् अगस्त्य को प्रसन्न करने के लिये उन मुनीश्वर को प्रणाम करने के उद्देश्य से उन के आश्रम पर जाऊँ– यह महान् मनोरथ मेरे हृदय में चक्कर लगा रहा है” ।।

३४.
“मैं चाहता हूँ कि स्वयम् भी मुनिवर अगस्त्य की सेवा करूँ” धर्मात्मा श्रीराम का यह वचन सुन कर सुतीक्ष्ण मुनि बड़े प्रसन्न हुए और उन दशरथनन्दन से इस प्रकार बोले- ।।

३५ से ३६.
“ रघुनन्दन ! मैं भी लक्ष्मण सहित आप से यही कहना चाहता था कि आप सीता के साथ महर्षि अगस्त्य के पास जायँ । सौभाग्य की बात है कि इस समय आप स्वयम् ही मुझ से वहाँ जाने के विषय में पूछ रहे हैं” ।।

३७.
“श्रीराम! महामुनि अगस्त्य जहाँ रहते हैं, उस आश्रम का पता मैं अभी आप को बताये देता हूँ । तात! इस आश्रम से चार योजन दक्षिण चले जाइये। वहाँ आप को अगस्त्य के भाइ का बहुत बड़ा एवम् सुन्दर आश्रम मिले गा” ।।

३८ से ३९.
“वहाँ के वन की भूमि प्रायः समतल है तथा पिप्पली का वन उस आश्रम की शोभा बढ़ाता है । वहाँ फूलों और फलों की बहुतायत है । नाना प्रकार के पक्षियों के कलरवों से गूँजते हुए उस रमणीय आश्रम के पास भाँति-भाँति के कमल मण्डित सरोवर हैं, जो स्वच्छ जल से भरे हुए हैं । हंस और कारण्डव आदि पक्षी उन में सब ओर फैले हुए हैं तथा चक्रवाक उन की शोभा बढ़ाते हैं” ।।

४० से ४१.
“श्रीराम! आप एक रात उस आश्रम में ठहर कर प्रातःकाल उस वन खण्ड के किनारे दक्षिण दिशा की ओर जायँ । इस प्रकार एक योजन आगे जाने पर अनेकानेक वृक्षों से सुशोभित वन के रमणीय भाग में अगस्त्य मुनि का आश्रम मिले गा” ।।

श्लोक ४२ से ५० ।।

४२.
“वहाँ विदेहनन्दिनी सीता और लक्ष्मण आप के साथ सानन्द विचरण करेंगे: क्योंकि बहुसंख्यक वृक्षों से सुशोभित वह वन प्रान्त बड़ा ही रमणीय है” ।।

४३.
“महामते! यदि आप ने महामुनि अगस्त्य के दर्शन का निश्चित विचार कर लिया है तो आज ही वहाँ की यात्रा करने का भी निश्चय करें” ।।

४४.
मुनि का यह वचन सुन कर भाइ सहित श्रीरामचन्द्रजी ने उन्हें प्रणाम किया और सीता तथा लक्ष्मण के साथ अगस्त्यजी के आश्रम की ओर चल दिये ।।

४५.
मार्ग में मिले हुए विचित्र-विचित्र वनों, मेघ माला के समान पर्वत मालाओं, सरोवरों और सरिताओं को देखते हुए वे आगे बढ़ते गये ।।

४६.
इस प्रकार सुतीक्ष्ण के बताये हुए मार्ग से सुख पूर्वक चलते-चलते श्रीरामचन्द्रजी ने अत्यन्त हर्ष में भर कर लक्ष्मण से यह बात कही - ।।

४७.

“सुमित्रानन्दन! निश्चय ही यह पुण्यकर्मों का अनुष्ठान करने वाले महात्मा अगस्त्यमुनि के भाइ का आश्रम दिखायी दे रहा है” ।।

४८.
“क्योंकि सुतीक्ष्णजी ने जैसा बतलाया था, उस के अनुसार इस वन के मार्ग में फूलों और फलों के भार से झुके हुए सहस्रों परिचित वृक्ष शोभा पा रहे हैं” ।।

४९.
“इस वन में पकी हुई पीपलियों की यह गन्ध वायु से प्रेरित हो कर सहसा इधर आयी है, जिस से कटु रस का उदय हो रहा है” ।।

५०.
“जहाँ-तहाँ लकड़ियों के ढेर लगे दिखायी देते हैं और वैदूर्यमणि के समान रंग वाले कुश कटे हुए दृष्टिगोचर होते हैं” ।।

श्लोक ५१ से ६० ।।

५१.
“यह देखो, जंगल के बीच में आश्रम की अग्नि का धुआँ उठता दिखायी दे रहा है, जिस का अग्रभाग काले मेघों के ऊपरी भाग सा प्रतीत होता है” ।।

५२.
“यहाँ के एकान्त एवम् पवित्र तीर्थों में स्नान कर के आये हुए ब्राह्मण स्वयम् चुन कर लाये हुए फूलों से देवताओं के लिये पुष्पोपहार अर्पित करते हैं” ।।

५३.
“सौम्य! मैंने सुतीक्ष्णजी का कथन जैसा सुना था, उस के अनुसार यह निश्चय ही अगस्त्यजी के भाइ का आश्रम होगा” ।।

५४.
“इन्हीं के भाइ पुण्यकर्मा अगस्त्यजी ने समस्त लोकों के हित की कामना से मृत्यु स्वरूप वातापि और इल्वल का वेगपूर्वक दमन कर के इस दक्षिण दिशा को शरण लेने के योग्य बना दिया” ।।

५५.
“एक समय की बात है, यहाँ क्रूर स्वभाव वाले वातापि और इल्वल – नामक ये दोनों भाई एक साथ रहते थे । ये दोनों महान् असुर ब्राह्मणों की हत्या करने वाले थे”।

५६ से ५७.

“निर्दयी इल्वल ब्राह्मण का रूप धारण कर के संस्कृत बोलता हुआ जाता और श्राद्ध के लिये ब्राह्मण को निमन्त्रण दे आता था । फिर मेष (जीवशाक) का रूप धारण करने वाले अपने भाइ वातापि का संस्कार कर के श्राद्धकल्पोक्त विधि से ब्राह्मणों को खिला देता था” ।।

५८.
“वे ब्राह्मण जब भोजन कर लेते, तब इल्वल उच्च स्वर से बोलता- “वातापे! निकलो” ॥

५९.
“भाइ की बात सुन कर वातापि भेड़े के समान में में' करता हुआ उन ब्राह्मणों के पेट फाड़- फाड़ कर निकल आता था” ।।

६०.
“इस प्रकार इच्छानुसार रूप धारण करने वाले उन मांसभक्षी असुरों ने प्रतिदिन मिल कर सहस्रों ब्राह्मणों का विनाश कर डाला” ।।

श्लोक ६१ से ७० ।।

६१.
“उस समय देवताओं की प्रार्थना से महर्षि अगस्त्य ने श्राद्ध में शाकरूप धारी उस महान् असुर को जान-बूझ कर भक्षण किया” ।।

६२.
“तदनन्तर श्राद्धकर्म सम्पन्न हो गया। ऐसा कह कर ब्राह्मणों के हाथ में अवनेजन का जल दे इल्वल ने भाई को सम्बोधित कर के कहा, “निकलो” ।।

६३.
“इस प्रकार भाइ को पुकारते हुए उस ब्राह्मण घाती असुर से बुद्धिमान् मुनिश्रेष्ठ अगस्त्य ने हँसकर कहा “।।

६४.
“जिस जीवशाकरूपधारी तेरे भाई राक्षस को मैंने खा कर पचा लिया, वह तो यमलोक में जा पहुँचा है । अब उस में निकलने की शक्ति कहाँ है” ।।

६५.
“भाई की मृत्यु को सूचित करने वाले मुनि के इस वचन को सुन कर उस निशाचर ने क्रोध पूर्वक उन्हें मार डालने का उद्योग आरम्भ किया” ।।

६६.
“उसने ज्यों ही द्विजराज अगस्त्य पर धावा किया, त्यों ही उद्दीप्त तेज वाले उन मुनि ने अपनी अग्नितुल्य दृष्टि से उस राक्षस को दग्ध कर डाला। इस प्रकार उस की मृत्यु हो गयी” ।।

६७.
“ब्राह्मणों पर कृपा कर के जिन्हों ने यह दुष्कर कर्म किया था, उन्हीं महर्षि अगस्त्यके का यह आश्रम है, जो सरोवर और वन से सुशोभित हो रहा है” ।।

६८.
श्रीरामचन्द्रजी लक्ष्मण के साथ इस प्रकार बातचीत कर रहे थे। इतने में ही सूर्यदेव अस्त हो गये और संध्या का समय हो गया ।।

६९.
तब भाई के साथ विधिपूर्वक सायं संध्योपासना कर के श्रीराम ने आश्रम में प्रवेश किया और उन महर्षि के चरणों में मस्तक झुकाया ।।

७०.
मुनि ने उन का यथावत् आदर-सत्कार किया । सीता और लक्ष्मण सहित श्रीराम वहाँ फल- मूल खा कर एक रात उस आश्रम में रहे ।।

श्लोक ७१ से ८० ।।

७१.
वह रात बीतने पर जब सूर्योदय हुआ, तब श्रीरामचन्द्रजी ने अगस्त्य के भाइ से विदा माँगते हुए कहा— ।।

७२.
“भगवन्! मैं आप के चरणों में प्रणाम करता हूँ । यहाँ रातभर बड़े सुख से रहा हूँ । अब आप के बड़े भाई मुनिवर अगस्त्य का दर्शन करने के लिये जाऊँगा । इस के लिये आप से आज्ञा चाहता हूँ” ।।

७३.
तब महर्षि ने कहा, “बहुत अच्छा, जाइये” इस प्रकार महर्षि से आज्ञा पा कर भगवान् श्रीराम सुतीक्ष्ण के बताये हुए मार्ग से वन की शोभा देखते हुए आगे चले ।।

७४ से ७६.
श्रीराम ने वहाँ मार्ग में नीवार ( जलकदम्ब), कटहल, साखू, अशोक, तिनिश, चिरिबिल्व, महुआ, बेल, तेंदू तथा और भी सैकड़ों जंगली वृक्ष देखे, जो फूलों से भरे थे तथा खिली हुई लताओं से परिवेष्टित हो बड़ी शोभा पा रहे थे । उन में से कई वृक्षों को हाथियों ने अपनी सूड़ों से तोड़ कर मसल डाला था और बहुत से वृक्षों पर बैठे हुए वानर उन की शोभा बढ़ाते थे । सैकड़ों मतवाले पक्षी उन की डालियों पर चहक रहे थे ।।

७७.
उस समय कमलनयन श्रीराम अपने पीछे-पीछे आते हुए शोभावर्धक वीर लक्ष्मण से, जो उन के निकट ही थे, इस प्रकार बोले- ।।

७८.
“यहाँ के वृक्षों के पत्ते जैसे सुने गये थे, वैसे ही चिकने दिखायी देते हैं तथा पशु और पक्षी क्षमाशील एवम् शान्त हैं । इस से जान पड़ता है, उन भावितात्मा (शुद्ध अन्तःकरणवाले) महर्षि अगस्त्य का आश्रम यहाँ से अधिक दूर नहीं है” ।।

७९.
“जो अपने कर्मो से ही संसार में अगस्त्य के नाम से विख्यात हुए हैं, उन्हीं का यह आश्रम दिखायी देता है, जो थके-माँदै पथिकों की थकावट को दूर करने वाला है”।

८०.
“इस आश्रम के वन यज्ञ यागसम्बन्धी अधिक धूमों से व्याप्त हैं । चीर वस्त्रों की पंक्तियाँ इस की शोभा बढ़ाती हैं । यहाँ के मृगों के झुंड सदा शान्त रहते हैं तथा इस आश्रम में नाना प्रकार के पक्षियों के कलरव गूँजते रहते हैं” ।।

श्लोक ८१ से ९० ।।

८१ से ८२.
“जिन पुण्यकर्मा महर्षि अगस्त्य ने समस्त लोकों की हित कामना से मृत्यु स्वरूप राक्षसों का वेगपूर्वक दमन कर के इस दक्षिण दिशा को शरण लेने के योग्य बना दिया तथा जिन के प्रभाव से राक्षस इस दक्षिण दिशा को केवल दूर से भयभीत हो कर देखते हैं, इस का उपभोग भी नहीं करते, उन्हीं का यह आश्रम है” ।।

८३.
“पुण्यकर्मा महर्षि अगस्त्य ने जब से इस दिशा में पदार्पण किया है, तब से यहाँ के निशाचर वैर रहित और शान्त हो गये हैं” ।।

८४.
“भगवान् अगस्त्य की महिमा से इस आश्रम के आस - पास निर्वैरता आदि गुणों के सम्पादन में समर्थ तथा क्रूर कर्मा राक्षसों के लिये दुर्जय होने के कारण यह सम्पूर्ण दिशा नाम से भी तीनों लोकों में “दक्षिणा” ही कहलायी, इसी नाम से विख्यात हुई तथा इसे “अगस्त्य की दिशा” भी कहते हैं” ।।

८५.
“एक बार पर्वत श्रेष्ठ विन्ध्य सूर्य का मार्ग रोकने के लिये बढ़ा था, किंतु महर्षि अगस्त्य के कहने से वह नम्र हो गया । तबसे आज तक निरन्तर उन के आदेश का पालन करता हुआ वह कभी नहीं बढ़ता” ।।

८६.
“वे दीर्घायु महात्मा हैं । उनका कर्म (समुद्रशोषण आदि कार्य) तीनों लोकों में विख्यात है । उन्हीं अगस्त्य का यह शोभा सम्पन्न आश्रम है, जो विनीत मृगों से सेवित है” ।।

८७.
“ये महात्मा अगस्त्यजी सम्पूर्ण लोकों के द्वारा पूजित तथा सदा सज्जनों के हित में लगे रहने वाले हैं । अपने पास आये हुए हम लोगों को वे अपने आशीर्वाद से कल्याण के भागी बनायेंगे” ।।

८८.
“सेवा करने में समर्थ सौम्य लक्ष्मण! यहाँ रह कर मैं उन महामुनि अगस्त्य की आराधना करूँगा और वनवास के शेष दिन यहीं रह कर बिताऊँ गा” ।।

८९.
“देवता, गन्धर्व, सिद्ध और महर्षि यहाँ नियमित आहार करते हुए सदा अगस्त्य मुनि की उपासना करते हैं” ।।

९०.
“ये ऐसे प्रभावशाली मुनि हैं कि इन के आश्रम में कोई झूठ बोलने वाला, क्रूर, शठ, नृशंस अथवा पापाचारी मनुष्य जीवित नहीं रह सकता” ।।

श्लोक ९१ से ९४ ।।

९१.
“यहाँ धर्म की आराधना करने के लिये देवता, यक्ष, नाग और पक्षी नियमित आहार करते हुए निवास करते हैं” ।।

९२.
“इस आश्रम पर अपने शरीरों को त्याग कर अनेकानेक सिद्ध, महात्मा, महर्षि नूतन शरीरों के साथ सूर्यतुल्य तेजस्वी विमानों द्वारा स्वर्ग लोक को प्राप्त हुए हैं” ।।

९३.
“यहाँ सत्कर्म परायण प्राणियों द्वारा आराधित हुए देवता उन्हें यक्षत्व, अमरत्व तथा नाना प्रकार के राज्य प्रदान करते हैं” ।।

९४.
“सुमित्रानन्दन! अब हम लोग आश्रम पर आ पहुँचे हैं । तुम पहले प्रवेश करो और महर्षियों को सीता के साथ मेरे आगमन की सूचना दो” ।।

इस प्रकार श्रीवाल्मीकि निर्मित आर्षरामायण आदिकाव्य के अरण्यकाण्ड में ग्यारहवाँ सर्ग पूरा हुआ ॥

Valmiki Ramayana Translated in Hindi and made Screen Readable by Dr T K Bansal

*
"अगं पर्वतं स्तम्भयति इति अगस्त्यः – जो अग अर्थात् पर्वतको स्तम्भित कर दे, उसे अगस्त्य कहते हैं।