02. Valmiki Ramayana - Aranya Kaand - Sarg 02
ओम् श्री गणेशाय नमः ।।
ओम् श्रीसीतारामचन्द्राभ्याम् नमः ।।
श्रीमद्वाल्मीकीय रामायण – अरण्यकाण्ड ।।
दूसरा सर्ग ।।
सारांश ।
वन के भीतर श्रीराम, लक्ष्मण और सीता पर विराध का आक्रमण ।।
आरम्भ ।।
श्लोक १ से १० ।।
१.
रात्रि में उन महर्षियों का आतिथ्य ग्रहण करके सबेरे सूर्योदय होने पर समस्त मुनियों से विदा लेकर श्रीरामचन्द्रजी पुनः वन में ही आगे बढ़ने लगे ।।
२ से ३.
जाते जाते लक्ष्मण सहित श्रीराम ने वन के मध्य भाग में एक ऐसे स्थान को देखा, जो नाना प्रकार के मृगों से व्याप्त था । वहाँ बहुत से रीछ और बाघ रहा करते थे । वहाँ के वृक्ष, लताएं और झाड़ियाँ नष्ट-भ्रष्ट हो गयी थीं । उस वन प्रान्त में किसी जलाशय का दर्शन होना कठिन था । वहाँ के पक्षी वहीं चहक रहे थे। झींगुरों की झंकार गूँज रही थी ।।
४.
भयंकर जंगली पशुओं से भरे हुए उस दुर्गम वन में सीता के साथ श्रीरामचन्द्रजी ने एक नरभक्षी राक्षस को देखा, जो पर्वतशिखर के समान ऊँचा था और उच्चस्वर से गर्जना कर रहा था ।।
५.
उस की आँखें गहरी, मुँह बहुत बड़ा, आकार विकट और पेट विकराल था । वह देखने में बड़ा भयंकर, घृणित, बेडौल, बहुत बड़ा और विकृत वेश से युक्त था ।।
६.
उस ने खून से भीगा और चरबी से गीला व्याघ्रचर्म पहन रखा था । समस्त प्राणियों को त्रास पहुँचाने वाला वह राक्षस यमराज के समान मुँह बाये खड़ा था ।।
७.
वह एक लोहे के शूल में तीन सिंह, चार बाघ, दो भेड़िये, दस चितकबरे हरिण और दाँतों सहित एक बहुत बड़ा हाथी का मस्तक, जिसमें चर्बी लिपटी हुई थी, गाँथ कर जोर जोर से दहाड़ रहा था ।।
८ से ९.
श्रीराम, लक्ष्मण और मिथिलेशकुमारी सीता को देखते ही वह क्रोध में भर कर भैरव नाद कर के पृथ्वी को कम्पित करता हुआ उन सब की ओर उसी प्रकार दौड़ा, जैसे प्राणान्तकारी काल प्रजा की ओर अग्रसर होता है ।।
१०.
वह विदेहनन्दिनी सीता को गोद में ले कुछ दूर जा कर खड़ा हो गया । फिर उन दोनों भाइयों से बोला, “तुम दोनों जटा और चीर धारण करके भी स्त्री के साथ रहते हो और हाथ में धनुष बाण और तलवार लिये दण्डक वन में घुस आये हो; अतः जान पड़ता है, तुम्हारा जीवन क्षीण हो चला है ।।
श्लोक ११ से २० ।।
११.
“तुम दोनों तो तपस्वी जान पड़ते हो, फिर तुम्हारा इस युवती स्त्री के साथ रहना कैसे सम्भव हुआ? अधर्मपरायण, पापी तथा मुनि समुदाय को कलङ्कित करने वाले तुम दोनों कौन हो ?” ।।
१२.
“मैं विराध नामक राक्षस हूँ और प्रतिदिन ऋषियों के मांस का भक्षण करता हुआ हाथ में अस्त्र-शस्त्र लिये इस दुर्गम वन में विचर्ता रहता हूँ” ।।
१३.
“यह स्त्री बड़ी सुन्दर है, अतः मेरी भार्या बने गी और तुम दोनों पापियों का मैं युद्ध स्थल में रक्त पान करूँ गा” ।।
१४ से १५.
दुरात्मा विराध की ये दुष्टता और घमंड से भरी बातें सुन कर जनकनन्दिनी सीता घबरा गयीं और जैसे तेज हवाएं चलने पर केले का वृक्ष जोर जोर से हिलने लगता है, उसी प्रकार वे उद्वेग के कारण थरथर काँपने लगीं ।।
१६.
शुभलक्षणा सीता को सहसा विराध के चंगुल में फँसी देख श्रीरामचन्द्रजी सूखते हुए मुँह से लक्ष्मण को सम्बोधित कर के बोले, ।।
१७.
“सौम्य! देखो तो सही, महाराज जनक की पुत्री और मेरी सती साध्वी पत्नी सीता विराध के अविवशता पूर्वक जा पहुँची हैं” ।।
१८ से १९.
“अत्यन्त सुख में पली हुइ यशस्विनी राजकुमारी सीता की यह अवस्था! (हाय ! कितने कष्ट की बात है!) लक्ष्मण! वन में हमारे लिये जिस दुख की प्राप्ति कैकेयी को अभीष्ट थी और जो कुछ उसे प्रिय था, जिस के लिये उसने वर माँगे थे, वह सब आज ही शीघ्रता पूर्वक सिद्ध हो गया । तभी तो वह दूरदर्शिनी कैकेयी अपने पुत्र के लिये केवल राज्य ले कर नहीं संतुष्ट हुई थी” ।।
२०.
“जिसने समस्त प्राणियों के लिये प्रिय होने पर भी मुझे वन में भेज दिया, वह मेरी मझली माता कैकेयी आज इस समय सफल मनोरथ हुई है” ।।
श्लोक २१ से २६ ।।
२१.
“विदेहनन्दिनी सीता का दूसरा कोई भी स्पर्श कर ले, इस से बढ़ कर दुख की बात मेरे लिये दूसरी कोइ नहीं है । सुमित्रानन्दन! पिताजी की मृत्यु तथा अपने राज्य के अपहरण से भी उतना कष्ट मुझे नहीं हुआ था, जितना अब हुआ है” ।।
२२.
श्रीरामचन्द्रजी के ऐसा कहने पर शोक के आँसू बहाते हुए लक्ष्मण कुपित हो मन्त्र से अवरुद्ध हुए सर्प की भाँति फुफकारते हुए बोले, ।।
२३.
“ककुत्स्थकुलभूषण! आप इन्द्र के समान समस्त प्राणियों के स्वामी एवम् संरक्षक हैं । मुझ दास के रहते हुए आप किस लिये अनाथों की भाँति संतप्त हो रहे हैं?” ॥
२४.
“मैं अभी कुपित हो कर अपने बाण से इस राक्षस का वध करता हूँ । आज यह पृथ्वी मेरे द्वारा मारे गये प्राणशून्य विराध का रक्त पीये गी” ।।
२५.
“राज्य की इच्छा रखने वाले भरत पर मेरा जो क्रोध प्रकट हुआ था, उसे आज मैं विराध पर छोडूं गा । जैसे वज्रधारी इन्द्र पर्वत पर अपना वज्र छोड़ते हैं” ।।
२६.
“मेरी भुजाओं के बल के वेग से वेगवान् हो कर छूटा हुआ मेरा महान् बाण आज विराध के विशाल वक्षःस्थल पर गिरे, इस के शरीर से प्राणों को अलग करे, तत्पश्चात् यह विराध चक्कर खाता हुआ पृथ्वी पर पड़ जाय” ।।
इस प्रकार श्रीवाल्मीकि निर्मित आर्षरामायण आदिकाव्य के अरण्यकाण्ड में दूसरा सर्ग पूरा हुआ।
इस सर्ग में मेरा साथ देने के लिए मैं आप का बहुत आभारी हूं । आशा है कि अगले सर्ग में भी आप मेरे साथ जुड़ें गे । Dr T K Bansal.