03. Valmiki Ramayana - Aranya Kaand - Sarg 03

ओम् श्री गणेशाय नमः ।।

ओम् श्रीसीतारामचन्द्राभ्याम् नमः ।।

श्रीमद्वाल्मीकीय रामायण – अरण्यकाण्ड ।।

तीसरा सर्ग ।।

सारांश ।

विराध और श्रीराम की बातचीत, श्रीराम और लक्ष्मण के द्वारा विराध पर प्रहार तथा विराध का इन दोनों भाइयों को साथ ले कर दूसरे वन में जाना ।।

आरम्भ ।।

श्लोक १ से १० ।।

१.
तदनन्तर विराध ने उस वन को गुंजाते हुए कहा, “अरे! मैं पूछता हूँ, मुझे बताओ। तुम दोनों कौन हो और कहाँ जाओगे?” ।।

२ से ३.
तब महातेजस्वी श्रीराम ने अपना परिचय पूछते हुए प्रज्वलित मुख वाले उस राक्षस से इस प्रकार कहा, “तुझे मालूम होना चाहिये कि महाराज इक्ष्वाकु का कुल ही मेरा कुल है । हम दोनों भाई सदाचार का पालन करने वाले क्षत्रिय हैं और कारण वश इस समय वन में निवास कर रहे हैं । अब हम तेरा परिचय जानना चाहते हैं । तू कौन है, जो दण्डक वन में स्वेच्छा से विचर रहा है?" ।।

४.
यह सुन कर विराध ने सत्यपराक्रमी श्रीराम से कहा, “रघुवंशी नरेश ! मैं प्रसन्नता पूर्वक अपना परिचय देता हूँ । तुम मेरे विषय में सुनो” ।।

५.

“मैं ‘जव’ नामक राक्षस का पुत्र हूँ, मेरी माता का नाम 'शतह्रदा' है । भू मण्डल के समस्त राक्षस मुझे विराध के नाम से पुकारते हैं” ।।

६.
“मैंने तपस्या के द्वारा ब्रह्माजी को प्रसन्न कर के यह वरदान प्राप्त किया है कि किसी भी शस्त्र से मेरा वध न हो । मैं संसार में अच्छेद्य और अभेद्य हो कर रहूँ - कोइ भी मेरे शरीर को छिन्न- भिन्न नहीं कर सके” ।।

७.
“अब तुम दोनों इस युवती स्त्री को यहीं छोड़ कर इसे पाने की इच्छा न रखते हुए जैसे आये हो उसी प्रकार तुरंत यहाँ से भाग जाओ । मैं तुम दोनों के प्राण नहीं लूँगा” ।।

८.
यह सुन कर श्रीरामचन्द्रजी की आँखें क्रोध से लाल हो गयीं । वे पाप पूर्ण विचार और विकट आकार वाले उस पापी राक्षस विराध से इस प्रकार बोले, ।।

९.
“नीच! तुझे धिक्कार है । तेरा अभिप्राय बड़ा ही खोटा है । निश्चय ही तू अपनी मौत ढूँढ़ रहा है और वह तुझे युद्ध में मिले गी । ठहर, अब तू मेरे हाथ से जीवित नहीं छूट सकेगा” ।।

१०.
यह कह कर भगवान् श्रीराम ने अपने धनुष पर प्रत्यञ्चा चढ़ायी और तुरंत ही तीखे बाणों का अनुसंधान कर के उस राक्षस को बींधना आरम्भ किया ।।

श्लोक ११ से २० ।।

११.
उन्होंने प्रत्यञ्चायुक्त धनुष के द्वारा विराध के ऊपर लगातार सात बाण छोड़े, जो गरुड़ और वायु के समान महान् वेग शाली थे और सोने के पंखों से सुशोभित हो रहे थे ।।

१२.
प्रज्वलित अग्नि के समान तेजस्वी और मोर पंख लगे हुए वे बाण विराध के शरीर को छेद कर रक्त रञ्जित हो पृथ्वी पर गिर पड़े ।।

१३.
घायल हो जाने पर उस राक्षस ने विदेहकुमारी सीता को अलग रख दिया और स्वयम् हाथ में शूल लिये अत्यन्त कुपित हो कर श्रीराम तथा लक्ष्मण पर तत्काल टूट पड़ा। ।।

१४.
वह बड़े जोर से गर्जना कर के इन्द्रध्वज के समान शूल ले कर उस समय मुँह बाये हुए काल के समान शोभा पा रहा था ।।

१५.
तब काल, अन्तक और यमराज के समान उस भयंकर राक्षस विराध के ऊपर उन दोनों भाइयों ने प्रज्वलित बाणों की वर्षा आरम्भ कर दी ।।

१६.
यह देख वह महाभयंकर राक्षस अट्टहास कर के खड़ा हो गया और जँभाइ के साथ अँगड़ाई लेने लगा । उसके वैसा करते ही शीघ्रगामी बाण उस के शरीर से निकल कर पृथ्वी पर गिर पड़े ।।

१७.
वरदान के सम्बन्ध से उस राक्षस विराध ने प्राणों को रोक लिया और शूल उठा कर उन दोनों रघुवंशी वीरों पर आक्रमण किया ।।

१८.
उस का वह शूल आकाश में वज्र और अग्नि के समान प्रज्वलित हो उठा; परंतु शस्त्रधारियों में श्रेष्ठ श्रीरामचन्द्रजी ने दो बाण मार कर उसे काट डाला ।।

१९.
श्रीरामचन्द्रजी के बाणों से कटा हुआ विराध का वह शूल वज्र से छिन्न- भिन्न हुए रुके शिलाखण्ड की भाँति पृथ्वी पर गिर पड़ा ।।

२०.
फिर तो वे दोनों भाइ शीघ्र ही काले सर्पों के समान दो तलवारें ले कर तुरंत उस पर टूट पड़े और तत्काल बल पूर्वक प्रहार करने लगे ।।

श्लोक २१ से २६ ।।

२१.
उन के आघात से अत्यन्त घायल हुए उस भयंकर राक्षस ने अपनी दोनों भुजाओं से उन अकम्प्य पुरुषसिंह वीरों को पकड़ कर अन्यत्र जाने की इच्छा की ।।

२२ से २३.
उस के अभिप्राय को जान कर श्रीराम ने लक्ष्मण से कहा, “सुमित्रानन्दन ! यह राक्षस अपनी इच्छा अनुसार हम लोगों को इस मार्ग से ढोकर ले चले । यह जैसा चाहता है, उसी तरह हमारा वाहन बन कर हमें ले चले (इस में बाधा डालने की आवश्यकता नहीं है) । जिस मार्ग से यह निशाचर चल रहा है, यही हमलोगों के लिये आगे जाने का मार्ग है” ।।

२४.
अत्यन्त बल से उद्दण्ड बने हुए निशाचर विराध ने अपने बल पराक्रम से उन दोनों भाइयों को बालकों की तरह उठा कर अपने दोनों कंधों पर बिठा लिया ।।

२५.
उन दोनों रघुवंशी वीरों को कंधे पर चढ़ा लेने के बाद राक्षस विराध भयंकर गर्जना करता हुआ वन की ओर चल दिया ।।

२६.
तदनन्तर उस ने एक ऐसे वन में प्रवेश किया, जो महान् मेघों की घटा के समान घना और नीला था । नाना प्रकार के बड़े-बड़े वृक्ष वहाँ भरे हुए थे । भाँति-भाँति के पक्षियों के समुदाय उसे विचित्र शोभा से सम्पन्न बना रहे थे, तथा बहुत-से गीदड़ और हिंसक पशु उस में सब ओर फैले हुए थे ।।

इस प्रकार श्रीवाल्मीकि निर्मित आर्षरामायण आदिकाव्य के अरण्यकाण्ड में तीसरा सर्ग पूरा हुआ ।।

Prepared with full devotion and dedicated by Dr T K Bansal.