01. Valmiki Ramayana - Baal Kaand - Sarg 01
ओम् श्री गणेशाय नमः ।।
ओम् श्रीसीतारामचन्द्राभ्याम् नमः ।।
I, Dr T K Bansal, invite you to the Hindi translation of the Shree Ramayana written by Shree Valmiki. This Text is made fully accessible for Blind and Visually Impaired Persons. You can access it using NVDA or any other Screen Reading Software capable of reading Devanagari script. Let us join together to enjoy this beautiful epic created about two thousand and five hundred years ago.
मै, डोक्टर तरसेम बांसल, श्रीवाल्मीकिनिर्मित आर्षरामायण आदिकाव्य के बालकाण्ड के हिन्दी अनुवाद के इस पाठ में आप का स्वागत करता हूँ। आइये, हम सव मिल कर इस परम सुख दायक पाठ का आनन्द उठायें ।।
श्रीमद्वाल्मीकीय रामायण - बालकाण्ड ।।
पहला सर्ग ।।
सारांश ।।
नारद जी का, वाल्मीकि मुनि को, संक्षेप से श्री राम चरित्र सुनाना ।।
आरम्भ ।।
श्लोक १ से १० ।।
१.
तपस्वी वाल्मीकि जी ने, तपस्या और स्वाध्याय में लगे हुए विद्वानों में श्रेष्ठ मुनिवर नारद जी से पूछा— ।।
२.
“मुने! इस समय इस संसार में गुणवान्, वीर्यवान्, धर्मज्ञ, उपकार मानने वाला, सत्यवक्ता और दृढ़ प्रतिज्ञ कौन है? ।।
३.
“सदाचार से युक्त, समस्त प्राणियों का हित साधक, विद्वान्, सामर्थ्यशाली और एकमात्र प्रियदर्शन (सुन्दर) पुरुष कौन है? ।।
४.
“मन पर अधिकार रखने वाला, क्रोध को जीतने वाला, कान्तिमान् और किसी की भी निन्दा नहीं करने वाला कौन है? तथा संग्राम में कुपित होने पर जिस से देवता भी डरते हैं? ।।
५.
“महर्षे! मैं यह सुनना चाहता हूँ, इस के लिये मुझे बड़ी उत्सुकता है और आप ऐसे पुरुष को जानने में समर्थ हैं” ।।
६.
महर्षि वाल्मीकि के इस वचन को सुन कर, तीनों लोकों का ज्ञान रखने वाले नारद जी ने उन्हें सम्बोधित करके कहा, अच्छा सुनिये और फिर प्रसन्नता पूर्वक बोले - ।।
७.
“मुने! आप ने जिन बहुत-से दुर्लभ गुणों का वर्णन किया है, उन से युक्त पुरुष को मैं विचार कर के कहता हूँ, आप सुनें ।।
८.
“इक्ष्वाकु वंश में उत्पन्न हुए एक ऐसे पुरुष हैं, जो लोगों में राम के नाम से विख्यात हैं, वे ही मन को वश में रखने वाले, महा बलवान्, कान्तिमान्, धैर्यवान् और जितेन्द्रिय हैं ।।
९.
“वे बुद्धिमान्, नीतिज्ञ, वक्ता, शोभायमान तथा शत्रु संहारक हैं। उन के कंधे सूडोल और भुजाएँ बड़ी-बड़ी हैं। ग्रीवा शङ्ख के समान और ठोढ़ी पुष्ट है ।।
१०.
“उन की छाती चौड़ी, तथा धनुष बड़ा है, गले के नीचे की हड्डी अर्थात हँसली मांस से छिपी हुई है। वे शत्रुओं का दमन करने वाले हैं। भुजाएँ घुटने तक लम्बी हैं, मस्तक सुन्दर है, ललाट भव्य और चाल मनोहर है ।।
श्लोक ११ से २० ।।
११.
“उन का शरीर अधिक ऊँचा या नाटा न होकर मध्यम और सुडौल है, देह का रंग चिकना है। वे बड़े प्रतापी हैं। उन का वक्षःस्थल भरा हुआ है, आँखें बड़ी बड़ी हैं। वे शोभायमान और शुभ लक्षणों से सम्पन्न हैं ।।
१२ से १३.
“धर्म के ज्ञाता, सत्य प्रतिज्ञ तथा प्रजा के हित साधन में लगे रहने वाले हैं। वे यशस्वी, ज्ञानी, पवित्र, जितेन्द्रिय और मन को एकाग्र रखने-वाले हैं। ।।
१४.
“प्रजा पति के समान पालक, श्री सम्पन्न, वैरि विध्वंसक और जीवों तथा धर्म के रक्षक हैं । “स्वधर्म और स्वजनों के पालक, वेद-वेदांगों के तत्त्ववेत्ता तथा धनुर्वेद में प्रवीण हैं ।।
१५.
“वे अखिल शास्त्रों के तत्त्वज्ञ, स्मरण शक्ति से युक्त और प्रतिभा सम्पन्न हैं। अच्छे विचार और उदार हृदय वाले वे श्री रामचन्द्र जी बातचीत करने में चतुर तथा समस्त लोकों के प्रिय हैं ।।
१६.
" जैसे नदियां समुद्र में जा मिलती हैं, उसी प्रकार साधु पुरुष सदा रामजी से मिलते रहते हैं। वे आर्य एवम् सब में समान भाव रखने वाले हैं, उन का दर्शन सदा ही प्रिय मालूम होता है ।।
१७.
“सम्पूर्ण गुणों से युक्त वे श्री रामचन्द्र जी अपनी माता कौसल्या का आनन्द बढ़ाने वाले हैं, गम्भीरता में समुद्र और धैर्य में हिमालय के समान हैं ।।
१८.
“वे विष्णुभगवान के समान बलवान् हैं। उन का दर्शन चन्द्रमा के समान मनोहर प्रतीत होता है। वे क्रोध में काल अग्नि के समान और क्षमा में पृथिवी के सदृश हैं, त्याग में कुबेर और सत्य में द्वितीय धर्म राज के समान हैं ।।
१९ से २०.
“इस प्रकार उत्तम गुणों से युक्त और सत्य पराक्रम वाले सद्गुणशाली अपने प्रियतम ज्येष्ठ पुत्र को, जो प्रजा के हित में संलग्न रहने वाले थे, प्रजावर्ग का हित करने की इच्छा से राजा दशरथ ने प्रेमवश युवराज पद पर अभिषिक्त करना चाहा ।।
श्लोक २१ से ३१ ।।
२१ से २२.
“तदनन्तर राम के राज्याभिषेक की तैयारियाँ देख कर रानी कैकेयी ने, जिसे पहले ही वर दिये जा चुके थे, राजा से यह वर माँगा कि राम का निर्वासन अर्थात वनवास, और भरत का राज्याभिषेक हो ।।
२३.
“राजा दशरथ ने सत्य वचन के कारण धर्म-बन्धन में बंध कर प्यारे पुत्र राम को वनवास दे दिया ।।
२४.
“कैकेयी का प्रिय करने के लिये पिता की आज्ञा के अनुसार उन की प्रतिज्ञा का पालन करते हुए वीर रामचन्द्र वन को चले ।।
२५.
"तब सुमित्रा के आनन्द बढ़ाने वाले विनयशील लक्ष्मणजी ने भी, जो अपने बड़े भाई राम को बहुत ही प्रिय थे, अपने सुबन्धुत्व का परिचय देते हुए स्नेहवश वन को जानेवाले बन्धु वर राम का अनुसरण किया ।।
२६ से २८.
“और जनक के कुल में उत्पन्न सीता भी, जो अवतीर्ण हुई देव माया की भाँति सुन्दर, समस्त शुभ लक्षणों से विभूषित, स्त्रियों में उत्तम, राम के प्राणों के समान प्रियतमा पत्नी तथा दासी थी, पति का हित चाहने वाली थी, रामचन्द्र जी के पीछे चली; जैसे चन्द्रमा के पीछे रोहिणी चलती है । उस समय पिता दशरथ ने अपना सारथि भेजकर और पुरवासी मनुष्यों ने स्वयम् साथ जा कर दूर तक उन का अनुसरण किया ।।
२९.
"फिर श्रृंगवेरपुर में गङ्गा तट पर अपने प्रिय निषादराज गुह के पास पहुँच कर धर्मात्मा श्री रामचन्द्र जी ने सारथि को अयोध्या के लिये विदा कर दिया ।।
३० से ३१.
“निषादराज गुह, लक्ष्मण और सीता के साथ राम- ये चारों एक वन से दूसरे वन में गये । मार्ग में बहुत जलों वाली अनेकों नदियों को पार कर के भरद्वाज के आश्रम पर पहुँचे और गुह को वहीं छोड़ भरद्वाज मुनि की आज्ञा से चित्रकूट पर्वत पर गये। वहाँ वे तीनों, देवता और गन्धर्वो के समान वन में नाना प्रकार की लीलाएँ करते हुए एक रमणीय पर्णकुटी बना कर उस में सानन्द रहने लगे ।।
श्लोक ३२ से ४० ।।
३२.
“राम के चित्रकूट चले जाने पर पुत्र शोक से पीडित राजा दशरथ उस समय पुत्र के लिये [ उसका नाम ले-लेकर] विलाप करते हुए स्वर्गगामी हुए ।।
३३ से ३४.
“उन के स्वर्ग गमन के पश्चात् वसिष्ठ आदि प्रमुख ब्राह्मणों द्वारा राज्यसंचालन के लिये नियुक्त किये जाने पर भी महा बलशाली वीर भरत ने राज्य की कामना न कर के पूज्य राम को प्रसन्न करने के लिये वन को ही प्रस्थान किया ।।
३५.
वहाँ पहुँच कर सद्भावना युक्त भरत जी ने अपने बड़े भाई सत्यपराक्रमी महात्मा राम से याचना की और यों कहा- धर्मज्ञ ! आप ही राजा हों” ।।
३६ से ३७.
“परंतु महान् यशस्वी परम उदार प्रसन्नमुख महाबली रामजी ने भी पिता के आदेश का पालन करते हुए राज्य की अभिलाषा न की और उन भरताग्रज ने राज्य के लिये न्यास (चिह्न) रूप में अपनी खड़ाऊँ भरत को दे कर उन्हें बार-बार आग्रह कर के लौटा दिया ।।
३८.
“अपनी अपूर्ण इच्छाको ले कर ही भरत ने रामजी के चरणों का स्पर्श किया और रामजी के आगमन की प्रतीक्षा करते हुए वे नन्दिग्राम में राज्य करने लगे ।।
३९ से ४०.
“भरत के लौट जाने पर सत्यप्रतिज्ञ जितेन्द्रिय श्रीमान् रामजी ने वहाँ पर पुनः नागरिक जनों का आना-जाना देख कर उनसे बचनेके लिये एकाग्रभाव से दण्डकारण्य में प्रवेश किया ।।
श्लोक ४१ से ५१ ।।
४१.
“उस महान् वन में पहुँचने पर, कमल लोचन रामजी ने विराध नामक राक्षस को मार कर, शरभंग, सुतीक्ष्ण, अगस्त्य मुनि तथा अगस्त्य के भ्राता का दर्शन किया ।।
४२.
“फिर, अगस्त्य मुनि के कहने से उन्हों ने, ऐन्द्र धनुष, एक खंग, और दो तूणीर, जिन में बाण कभी नहीं घटते थे, प्रसन्नता पूर्वक ग्रहण किये ।।
४३.
“एक दिन, वन में वन चरों के साथ रहने वाले श्री रामजी के पास, असुरों तथा राक्षसों के वध के लिये निवेदन करने को, वहां के सभी ऋषि आये ।।
४४ से ४५.
“उस समय वन में, श्री रामजी ने, दण्डकारण्य वासी, अग्नि के समान तेजस्वी उन ऋषियों को राक्षसों के मारने का वचन दिया, और संग्राम में उन के वध की प्रतिज्ञा की ।।
४६.
“वहाँ ही रहते हुए, श्री रामजी ने, इच्छानुसार रूप बनाने वाली जनस्थान निवासिनी शूर्पणखा नाम की राक्षसी को, लक्ष्मण के द्वारा, उस की नाक कटा कर, कुरूप करवा दिया ।।
४७.
“तब शूर्पणखा के कहने से चढ़ाई करने वाले, सभी राक्षसों को, और खर, दूषण, त्रिशिरा, तथा उन के पृष्ठ पोषक असुरों को, रामजी ने युद्ध में मार डाला ।।
४८.
“उस वन में निवास करते हुए, उन्हों ने, जनस्थान वासी चौदह हजार राक्षसों का वध किया ।।
४९.
“तदनन्तर, अपने कुटुम्ब का वध सुन कर, रावण नाम का राक्षस क्रोध से मूर्च्छित हो उठा, और उस ने मारीच राक्षस से सहायता माँगी ।।
५० से ५१.
“यद्यपि, मारीच ने यह कह कर कि, “रावण ! उस बलवान् राम के साथ तुम्हारा विरोध ठीक नहीं है”, रावण को अनेकों बार मना किया; परंतु, काल की प्रेरणा से रावण ने मारीच के वाक्यों को टाल दिया, और उस के साथ ही राम के आश्रम पर पहुंच गया ।।
श्लोक ५२ से ६० ।।
५२.
“मायावी मारीच के द्वारा, उस ने दोनों राज कुमारों को आश्रम से दूर हटा दिया, और स्वयम् रामजी की पत्नी सीताजी का अपहरण कर लिया । वहाँ से जाते समय, मार्ग में विघ्न डालने के कारण, उस ने जटायु नामक गिद्ध का वध किया ।।
५३.
“तत्पश्चात्, जटायु को आहत देखकर, और उसी के मुख से, सीता का हरण सुन कर, रामचन्द्रजी शोक से पीड़ित हो कर विलाप करने लगे । उस समय, उन की सभी इन्द्रियाँ व्याकुल हो उठी थीं ।।
५४ से ५५.
“फिर उसी शोक में उन्हों ने जटायु गिद्ध का अग्नि संस्कार किया. वन में सीता को ढूँढ़ते हुए, उन्हों ने, कबन्ध नामक राक्षस को देखा, जो शरीर से विकृत तथा भयंकर दिखने वाला था। महाबाहु, रामजी ने, उसे मार कर उस का भी दाह किया. अतः वह भी स्वर्ग को चला गया ।।
५६.
“जाते समय उस ने, राम से धर्मचारिणी शबरी का पता बतलाया, और कहा, “रघुनन्दन ! आप धर्मपरायणा संन्यासिनी शबरी के आश्रम पर जाइये।” ।।
५७.
“शत्रुहन्ता महान् तेजस्वी दशरथकुमार राम, शबरी के यहाँ गये, उस ने इन का भलीभाँति पूजन किया ।।
५८.
“फिर, वे पम्पासर के तट पर हनुमान् नामक वानर से मिले, और उन्हीं के कहने से सुग्रीव से भी मेल किया ।।
५९.
“तदनन्तर, महा बलवान् राम जी ने आदि से ही ले कर, जो कुछ हुआ था वह और विशेषतः, सीता का वृत्तान्त सुग्रीव से कह सुनाया ।।
६०.
“वानर सुग्रीव ने, राम की सारी बातें सुन कर, उन के साथ प्रेम पूर्वक अग्नि को साक्षी बना कर मित्रता की ।।
श्लोक ६१ से ७० ।।
६१.
“उस के बाद, वानरराज सुग्रीव ने स्नेहवश वाली के साथ वैर होने की सारी बातें, राम से दुखी हो कर बतलायीं ।।
६२ से ६३.
“उस समय, राम ने वाली को मारने की प्रतिज्ञा की, तब वानर सुग्रीव ने वहाँ वाली के बल का वर्णन किया, क्योंकि सुग्रीव को राम के बल के विषय में बराबर शंका बनी रहती थी ।।
६४.
“राम की प्रतीति के लिये, उन्हों ने, दुन्दुभि दैत्य का महान् पर्वत के समान विशाल शरीर दिखलाया ।।
६५.
“महाबली महाबाहु, श्रीरामजी ने तनिक मुसकरा कर, उस अस्थिसमूह को देखा, और पैर के अंगूठे से उसे दस योजन दूर फेंक दिया ।।
६६.
"फिर, एक ही महान् बाण से, उन्हों ने, अपना विश्वास दिलाते हुए, सात ताड़ के वृक्षों को और पर्वत तथा रसातल को बींध डाला ।।
६७.
“तदनन्तर, राम के इस कार्य से महा कपि सुग्रीव मन ही मन प्रसन्न हुए, और उन्हें राम पर विश्वास हो गया। फिर वे उन के साथ किष्किन्धा गुहा में गये ।।
६८ से ६९.
“वहाँ पर सुवर्ण के समान पिंगलवर्ण वाले वीर वर सुग्रीव ने गर्जना की, उस महानाद को सुन कर, वानरराज वाली अपनी पत्नी तारा को आश्वासन दे कर तत्काल घर से बाहर निकला, और सुग्रीव से भिड़ गया। वहाँ राम ने वाली को एक ही बाण से मार गिराया ।।
७०.
“सुग्रीव के कथनानुसार, उस संग्राम में वाली को मार कर उस के राज्य पर राम ने सुग्रीव को ही बिठा दिया ।।
श्लोक ७१ से ८० ।।
७१.
“तब, उन वानरराज सुग्रीव ने भी सभी वानरों को बुला कर, जानकी का पता लगाने के लिये, उन्हें चारों दिशाओं में भेजा ।।
७२.
“तत्पश्चात्, सम्पाति नामक गिद्ध के कहने से, बलवान् हनुमान्जी, सौ योजन विस्तार वाले क्षार समुद्र को, कूद कर लांघ गये ।।
७३.
“वहाँ, रावण पालित लङ्का पुरी, में पहुँच कर उन्हों ने, अशोक वाटिका में सीता को चिन्ता मग्न देखा ।।
७४.
“तब, उन विदेहनन्दिनी को अपनी पहचान दे कर, राम का संदेश कह सुनाया, और उन्हें सान्त्वना दे कर, उन्हों ने, वाटिका का द्वार तोड़ डाला ।।
७५.
"फिर, पाँच सेना पतियों, और सात मन्त्रि कुमारों की, हत्या कर, वीर अक्षकुमार का भी कचूमर निकाला, इस के बाद वे जान बूझ कर पकड़े गये ।।
७६.
“ब्रह्माजी के वरदान से, अपने को ब्रह्मपाश से छूटा हुआ जान कर भी, वीर हनुमान्जी ने अपने को बांधनेवाले उन राक्षसों का अपराध स्वेच्छानुसार सह लिया ।।
७७.
“तत्पश्चात्, मिथिलेश कुमारी सीता जी के स्थान के अतिरिक्त, समस्त लङ्का को जला कर, वे महा कपि हनुमान्जी, राम जी को यह प्रिय संदेश सुनाने के लिये, लंका से लौट आये ।।
७८.
“अपरिमित बुद्धिशाली, हनुमान्जी ने, वहाँ जा कर महात्मा राम की प्रदक्षिणा कर के, यों सत्य निवेदन किया, “मैंने, सीता जी का दर्शन किया है” ।।
७९.
“इस के उपरान्त, सुग्रीव के साथ भगवान् राम ने महा सागर के तट पर जा कर सूर्य के समान तेजस्वी बाणों से समुद्र को क्षुब्ध किया ।।
८०.
“तब, नदी पति, समुद्र ने अपने को प्रकट कर दिया, फिर समुद्र के ही कहने से राम जी ने नल से, पुल का निर्माण कराया ।।
श्लोक ८१ से ९० ।।
८१.
“उसी पुल से, लङ्कापुरी में जा कर रावण को मारा, फिर, सीता के मिलने पर, राम को बड़ी लज्जा आई ।।
८२.
“तब, भरी सभा में सीता के प्रति, वे मर्म भेदी वचन कहने लगे। उन की इस बात को, ना सह सकने के कारण साध्वी सीता अग्नि में प्रवेश कर गयीं ।।
८३.
“इस के बाद, अग्नि के कहने से, उन्हों ने, सीता को निष्कलङ्क माना। महात्मा रामचन्द्रजी के इस महान् कर्म से देवता, और ऋषियों सहित चराचर त्रिभुवन संतुष्ट हो गये ।।
८४ से ८५.
" फिर, सभी देवताओं से पूजित हो कर, राम बहुत ही प्रसन्न हुए, और राक्षसराज, विभीषण को लङ्का के राज्य पर अभिषिक्त कर के कृतार्थ हो गये। उस समय निश्चिन्त होने के कारण, उन के आनन्द का ठिकाना न रहा ।।
८६.
“यह सब हो जाने पर, राम देवताओं से वर पा कर, और मरे हुए वानरों को जीवन दिला कर, अपने सभी साथियों के साथ पुष्पक विमान पर चढ़ कर अयोध्या के लिये प्रस्थित हुए ।।
८७.
“भरद्वाज मुनि, के आश्रम पर पहुँच कर, सब को आराम देने वाले सत्यपराक्रमी, राम ने भरत के पास हनुमान को भेजा ।।
८८.
“फिर, सुग्रीव के साथ कथा वार्ता कहते हुए, पुष्पक आरूढ़ हो, वे नन्दिग्राम को गये ।।
८९.
“निष्पाप रामचन्द्रजी ने, नन्दिग्राम में अपनी जटा कटा कर, भाइयों के साथ, सीता को पाने के अनन्तर, पुनः अपना राज्य प्राप्त किया ।।
९०.
“अब, राम के राज्य में लोग प्रसन्न, सुखी, संतुष्ट, पुष्ट, धार्मिक, तथा रोग-व्याधि से मुक्त रहें गे, उन्हें दुर्भिक्ष का भय न होगा ।।
श्लोक ९१ से १०० ।।
९१.
“कोई, कहीं भी अपने पुत्र की मृत्यु नहीं देखें गे, स्त्रियां विधवा न होंगी, सदा ही पतिव्रता होंगी ।।
९२.
“आग लगने के किंचित् का भी भय ना होगा, कोई प्राणी जल में नहीं डूबें गे, वात और ज्वर का भय थोड़ा भी नहीं रहेगा ।।
९३.
“क्षुधा, तथा चोरी का डर भी जाता रहे गा, सभी नगर और राष्ट्र धन धान्य सम्पन्न होंगे। सत्य युग की भाँति सभी लोग सदा प्रसन्न रहेंगे ।।
९४ से ९६.
“महायशस्वी राम, बहुत से सुवर्णों की दक्षिणा वाले सौ अश्व मेध यज्ञ करेंगे, उन में विधि पूर्वक विद्वानों को दस हजार करोड़ (एक खरब) गौ, और ब्राह्मणों को अपरिमित धन देंगे, तथा सौ गुने राजवंशों की स्थापना करेंगे। संसार में चारों वर्णों को वे अपने-अपने धर्म में नियुक्त रखेंगे ।।
९७.
“फिर, ग्यारह हजार वर्षों तक, राज्य करने के अनन्तर श्रीरामचन्द्रजी, अपने परम धाम को पधारेंगे ।।
९८.
“वेदों के समान पवित्र, पापनाशक, और पुण्यमय इस रामचरित को जो पढ़े गा, वह सब पापों से मुक्त हो जायगा ।।
९९.
“आयु बढ़ाने वाली इस रामायण कथा को पढ़ने वाला मनुष्य, मृत्यु के अनन्तर पुत्र, पौत्र तथा अन्य परिजन वर्ग के साथ ही स्वर्ग लोक में प्रतिष्ठित होगा ।।
१००.
“इसे ब्राह्मण पढ़े तो विद्वान् हो, क्षत्रिय पढ़ता हो तो पृथ्वी का राज्य प्राप्त करे, वैश्य को व्यापार में लाभ हो, और शूद्र भी प्रतिष्ठा प्राप्त करे” ।।
इस प्रकार, श्रीवाल्मीकिनिर्मित आर्षरामायण, आदिकाव्य के बालकाण्ड में, पहला सर्ग पूरा हुआ।
