02. Valmiki Ramayana - Baal Kaand - Sarg 02

ओम् श्री गणेशाय नमः ।।

ओम् श्रीसीतारामचन्द्राभ्याम् नमः ।।

श्रीमद्वाल्मीकीय रामायण – बालकाण्ड ।।

दूसरा सर्ग ।।

सारांश ।

रामायण काव्य का उपक्रम – तमसा के तट पर क्रौञ्च वध से संतप्त हुए महर्षि वाल्मीकि के शोक का श्लोक रूप में प्रकट होना तथा ब्रह्माजी का उन्हें रामचरित्रमय काव्य के निर्माण का आदेश देना।।

आरम्भ ।।

श्लोक १ से १० ।।

१.
देव र्षि नारद जी के उपर्युक्त वचन सुन कर वाणी विशारद धर्मात्मा ऋषि वाल्मीकि जी ने अपने शिष्यों सहित उन महा मुनि का पूजन किया ।।

२.
वाल्मीकि जी से यथावत् सम्मानित हो देव र्षि नारद जी ने जाने के लिये उन से आज्ञा माँगी और उन से अनुमति मिल जाने पर वे आकाश मार्ग से चले गये ।।

३.
उन के देवलोक पधारने के दो ही घड़ी बाद वाल्मीकि जी तमसा नदी के तट पर गये, जो गङ्गा जी से अधिक दूर नहीं था ।।

४.
तमसा के तट पर पहुँच कर वहाँ के घाट को कीचड़ से रहित देख मुनि ने अपने पास खड़े हुए शिष्य से कहा- ।।

५.
“भरद्वाज! देखो, यहाँ का घाट बड़ा सुन्दर है। इस में कीचड़ का नाम नहीं है। यहाँ का जल वैसा ही स्वच्छ है, जैसा सत्पुरुष का मन होता है ।।

६.
“तात! यहीं कलश रख दो और मुझे मेरा वल्कल दो। मैं तमसा के इसी उत्तम तीर्थ में स्नान करूँ गा ।।

७.
महात्मा वाल्मीकि के ऐसा कहने पर नियम परायण शिष्य भरद्वाज ने अपने गुरु मुनिवर वाल्मीकि को वल्कल वस्त्र दिया ।।

८.
शिष्य के हाथ से वल्कल ले कर वे जितेन्द्रिय मुनि वहाँ के विशाल वन की शोभा देखते हुए सब ओर विचर्ने लगे ।।

९.
उन के पास ही क्रौञ्च पक्षियों का एक जोड़ा, जो कभी एक-दूसरे से अलग नहीं होता था, विचर रहा था। वे दोनों पक्षी बड़ी मधुर बोली बोल रहे थे। भगवान् वाल्मीकि ने पक्षियों के उस जोड़े को वहाँ देखा ।।

१०.
उसी समय पापपूर्ण विचार रखने-वाले एक निषाद ने, जो समस्त जन्तुओं का अकारण वैरी था, वहाँ आ कर पक्षियों के उस जोड़े में से एक - नर पक्षी को मुनि के देखते-देखते बाण से मार डाला ।।

श्लोक ११ से २० ।।

११.
वह पक्षी खून से लथपथ हो कर पृथ्वी पर गिर पड़ा और पंख फड़फड़ाता हुआ तड़पने लगा। अपने पति की हत्या हुई देख उस की भार्या क्रौञ्ची करुणा जनक स्वर में चीत्कार कर उठी ।।

१२.
उत्तम पंखों से युक्त वह पक्षी सदा अपनी भार्या के साथ-साथ विच्रता था। उस के मस्तक का रंग ताँबे के समान लाल था और वह काम से मतवाला हो गया था। ऐसे पति से वियुक्त हो कर क्रौञ्ची बड़े दुख से रो रही थी ।।

१३.
निषाद ने जिसे मार गिराया था, उस नर पक्षी की वह दुर्दशा देख उन धर्मात्मा ऋषि को बड़ी दया आयी ।।

१४.
स्वभावतः करुणा का अनुभव करने वाले ब्रह्म र्षि ने “यह अधर्म हुआ है” ऐसा निश्चय कर के रोती हुइ क्रौञ्ची की ओर देखते हुए निषाद से इस प्रकार कहा- ।।

१५.
“निषाद! तुझे नित्य निरन्तर – कभी भी शान्ति न मिले; क्योंकि तूने इस क्रौञ्च के जोड़े में से एक की, जो काम से मोहित हो रहा था, बिना किसी अपराध के ही हत्या कर डाली” ।।

१६.
ऐसा कह कर जब उन्हों ने इस पर विचार किया, तब उन के मन में यह चिन्ता हुई कि “अहो ! इस पक्षी के शोक से पीड़ित हो कर मैंने यह क्या कह डाला” ।।

१७.
यही सोचते हुए महा ज्ञानी और परम बुद्धिमान् मुनिवर वाल्मीकि एक निश्चय पर पहुँच गये और अपने शिष्य से इस प्रकार बोले - ।।

१८.
“तात! शोक से पीड़ित हुए मेरे मुख से जो वाक्य निकल पड़ा है, यह चार चरणोंमें आबद्ध है। इस के प्रत्येक चरण में बराबर-बराबर (यानी आठ-आठ) अक्षर हैं तथा इसे वीणाके लय पर गाया भी जा सकता है; अतः मेरा यह वचन श्लोक रूप (अर्थात् श्लोक नामक छन्द में आबद्ध काव्य रूप या यशः स्वरूप ) होना चाहिये, अन्यथा नहीं ।।

१९.
मुनि की यह उत्तम बात सुन कर उन के शिष्य भरद्वाज को बड़ी प्रसन्नता हुई और उस ने उन का समर्थन करते हुए कहा- “हां, आप का यह वाक्य श्लोक रूप ही होना चाहिये ।” शिष्य के इस कथन से मुनि को विशेष संतोष हुआ ।।

२०.
तत्पश्चात् उन्हों ने उत्तम तीर्थ में विधि पूर्वक स्नान किया और उसी विषय का विचार करते हुए वे आश्रम की ओर लौट पड़े ।।

श्लोक २१ से ३१ ।।

२१.
फिर उन का विनीत एवम् शास्त्रज्ञ शिष्य भरद्वाज भी वह जल से भरा हुआ कलश ले कर गुरु जी के पीछे-पीछे चला ।।

२२.
शिष्य के साथ आश्रम में पहुँच कर धर्मज्ञ ऋषि वाल्मीकि जी आसन पर बैठ गये और दूसरी दूसरी बातें करने लगे; परंतु उन का ध्यान उस श्लोक की ओर ही लगा था ।।

२३.
इतने में अखिल विश्व की सृष्टि करने वाले, सर्वसमर्थ, महातेजस्वी चतुर्मुख ब्रह्मा जी मुनिवर वाल्मीकि से मिलने के लिये स्वयम् उन के आश्रम पर आये ।।

२४.
उन्हें देखते ही महर्षि वाल्मीकि सहसा उठ कर खड़े हो गये। वे मन और इन्द्रियों को वश में रख कर अत्यन्त विस्मित हो हाथ जोड़े चुपचाप कुछ काल तक खड़े ही रह गये, कुछ बोल न सके ।।

२५.
तत्पश्चात् उन्हों ने पाद्य, अर्घ्य, आसन और स्तुति आदि के द्वारा भगवान् ब्रह्माजी का पूजन किया और उन के चरणों में विधिवत् प्रणाम कर के उन से कुशल- समाचार पूछा ।।

२६.
भगवान् ब्रह्माजी ने एक परम उत्तम आसन पर विराजमान हो कर वाल्मीकि मुनि को भी आसन ग्रहण करने की आज्ञा दी ।।

२७ से २८.
ब्रह्माजी की आज्ञा पाकर वे भी आसन पर बैठ गए । उस समय साक्षात् लोकपितामह ब्रह्माजी सामने बैठे हुए थे तो भी वाल्मीकि का मन उस क्रौञ्च पक्षी वाली घटना की ओर ही लगा हुआ था । वे उस के विषय में सोचने लगे- “ओह ! जिस की बुद्धि वैरभाव को ग्रहण करने में ही लगी रहती है, उस पापात्मा व्याध ने बिना किसी अपराध के ही वैसे मनोहर कलरव करने वाले क्रौञ्च पक्षी के प्राण ले लिये ।।

२९.
यही सोचते-सोचते उन्हों ने क्रौञ्ची के आर्तनाद को सुन कर निषाद को लक्ष्य कर के जो श्लोक कहा था, उसी को फिर ब्रह्माजी के सामने दुहराया। उसे दुहराते ही फिर उन के मन में अपने दिये हुए शाप के अनौचित्य का ध्यान आया। तब वे शोक और चिन्ता में डूब गये ।।

३० से ३१.
ब्रह्माजी उनकी मनःस्थितिको समझ कर हँसने लगे और मुनिवर वाल्मीकि से इस प्रकार बोले – “ब्रह्मन् ! तुम्हारे मुँह से निकला हुआ यह छन्दोबद्ध वाक्य श्लोक रूप ही होगा। इस विषय में तुम्हें कोई अन्यथा विचार नहीं करना चाहिये। मेरे संकल्प अथवा प्रेरणा से ही तुम्हारे मुँह से ऐसी वाणी निकली है ।।

श्लोक ३२ से ४० ।।

३२.
“मुनिश्रेष्ठ! तुम श्रीराम के सम्पूर्ण चरित्र का वर्णन करो। परम बुद्धिमान् भगवान् श्रीराम संसार में सबसे बड़े धर्मात्मा और धीर पुरुष हैं। तुमने नारद जी के मुँह से जैसा सुना है, उसी के अनुसार उन के चरित्र का चित्रण करो ।।

३३ से ३४.
“बुद्धिमान् श्रीराम का जो गुप्त या प्रकट वृत्तान्त है तथा लक्ष्मण, सीता और राक्षसों के जो सम्पूर्ण गुप्त या प्रकट चरित्र हैं, वे सब अज्ञात होने पर भी तुम्हें ज्ञात हो जायँ गे ।।

३५.
“इस काव्य में अंकित तुम्हारी कोई भी बात झूठी नहीं होगी इस लिये तुम श्रीरामचन्द्रजी की परम पवित्र एवम् मनोरम कथा को श्लोकबद्ध कर के लिखो ।।

३६.
“इस पृथ्वी पर जब तक नदियों और पर्वतों की सत्ता रहे गी, तब तक संसार में रामायण कथा का प्रचार होता रहे गा ।।

३७.
“जब तक तुम्हारी बनायी हुई श्रीराम कथा का लोक में प्रचार रहे गा, तब तक तुम इच्छानुसार ऊपर-नीचे तथा मेरे लोकों में निवास करो गे ।।

३८.
ऐसा कह कर भगवान् ब्रह्माजी वहीं अन्तरधयान हो गये। उन के वहीं अन्तरधयान होने से शिष्यों सहित भगवान् वाल्मीकि मुनि को बड़ा विस्मय हुआ ।।

३९.
तदनन्तर उन के सभी शिष्य अत्यन्त प्रसन्न हो कर बार-बार इस श्लोक का गान करने लगे। तथा परम विस्मित हो परस्पर इस प्रकार कहने लगे - ।।

४०.
“हमारे गुरुदेव महर्षि ने क्रौञ्च पक्षी के दुख से दुखी हो कर जिस समान अक्षरों वाले चार चरणों से युक्त वाक्य का गान किया था, वह था तो उन के हृदय का शोक; किंतु उन की वाणी द्वारा उच्चारित हो कर श्लोक रूप हो गया” ।।

श्लोक ४१ से ४३ ।।

४१.
इधर शुद्ध अन्तःकरण वाले महर्षि वाल्मीकि के मन में यह विचार हुआ कि मैं ऐसे ही श्लोकों में सम्पूर्ण रामायण काव्य की रचना करूँ ।।

४२.
यह सोच कर उदार दृष्टि वाले उन यशस्वी महर्षि ने भगवान् श्रीरामचन्द्रजी के चरित्र को ले कर हजारों श्लोकों से युक्त महा काव्य की रचना की, जो उन के यश को बढ़ाने वाला है। इस में श्रीराम के उदार चरित्रों का प्रतिपादन करने वाले मनोहर पदों का प्रयोग किया गया है ।।

४३.
महर्षि वाल्मीकि के बनाये हुए इस काव्य में तत्पुरुष आदि समासों, दीर्घ- गुण आदि संधियों और प्रकृति-प्रत्ययके सम्बन्धका यथायोग्य निर्वाह हुआ है। इस की रचनायें समता (पतत्-प्रकर्ष आदि दोषों का अभाव) है, पदों में माधुर्य है और अर्थ में प्रसाद-गुण की अधिकता है।

भावुक जनो! इस प्रकार शास्त्रीय पद्धति के अनुकूल बने हुए इस रघुवर चरित्र और रावण वध के प्रसंग को ध्यान दे कर सुनो ।।

इस प्रकार श्रीवाल्मीकिनिर्मित आर्षरामायण आदिकाव्य के बालकाण्ड में दूसरा सर्ग पूरा हुआ।

प्रिय जनो! मुझे आशा है कि वालमिकी रामायण के बाल कांड के दूसरे सर्ग का यह हिन्दी अनुवाद आप को प्रिय लगा होगा । तीसरे सर्ग में आप से फिर भेंट की आशा के साथ, आपका Dr T K Bansal.