75. Valmiki Ramayana - Baal Kaand - Sarg 75

ओम् श्री गणेशाये नमः ।

ओम् श्रीसीतारामचन्द्राभ्याम् नमः ।

श्रीमद्वाल्मीकीय रामायण – बालकाण्ड ।।

पचहत्तरवाँ सर्ग ।।

सारांश ।

राजा दशरथ की बात अनसुनी करके परशुराम का श्रीराम को वैष्णव धनुष पर बाण चढ़ाने के लिये ललकारना ।।।

आरम्भ ।।

श्लोक १ से १० ।।

१.
“दशरथनन्दन श्रीराम! वीर! सुना गया है कि तुम्हारा पराक्रम अद्भुत है। तुम्हारे द्वारा शिव धनुष तोड़े जाने का सारा समाचार भी मेरे कानों में पड़ चुका है ।।

२.
“उस धनुष का तोड़ना अद्भुत और अचिन्त्य है; उसके टूटने की बात सुनकर मैं एक दूसरा उत्तम धनुष लेकर आया हूँ ॥॥

३.
“यह है वह जमदग्निकुमार परशुराम का भयंकर और विशाल धनुष । तुम इसे खींचकर इसके ऊपर बाण चढ़ाओ और अपना बल दिखाओ ॥॥

४.
“इस धनुष को चढ़ाने में भी तुम्हारा बल कैसा है? यह देख कर मैं तुम्हें ऐसा द्वन्द्वयुद्ध प्रदान करूँगा, जो तुम्हारे पराक्रम के लिये स्पृहणीय होगा ।।

५.
परशुरामजी का वह वचन सुनकर उस समय राजा दशरथ के मुख पर विषाद छा गया । वे दीन भाव से हाथ जोड़ कर बोले ।।

६ से ७.
“ब्रह्मन्! आप स्वाध्याय और व्रत से शोभा पाने वाले भृगुवंशी ब्राह्मणों के कुलमें उत्पन्न हुए हैं और स्वयम् भी महान तपस्वी और ब्रह्मज्ञानी हैं; क्षत्रियों पर अपना रोष प्रकट करके अब शान्त हो चुके हो; इस लिये मेरे बालक पुत्रों को आप अभयदान देने की कृपा करें; क्योंकि आपने इन्द्र के समीप प्रतिज्ञा करके शस्त्र का परित्याग कर दिया है ।।

८.
“इस तरह, आप धर्म में तत्पर हो कश्यपजी को पृथ्वी का दान करके वन में आकर महेन्द्रपर्वत पर आश्रम बना कर रहते हैं ।।

९.
“महामुने! (इस प्रकार शस्त्र त्याग की प्रतिज्ञा करके भी) आप मेरा सर्वनाश करने के लिये कैसे आ गये? (यदि कहें- मेरा रोष तो केवल राम पर है तो) एकमात्र राम के मारे जाने पर ही हम सब लोग अपने जीवन का परित्याग कर देंगे ।॥

१०.
राजा दशरथ तो इस प्रकार कहते ही रह गये; परंतु, प्रतापी परशुराम ने उनके उन वचनों की अवहेलना करके राम से ही बातचीत जारी रखी ॥॥

श्लोक ११ से २० ।।

११.
वे बोले - रघुनन्दन ! ये दो धनुष सब से श्रेष्ठ और दिव्य थे। सारा संसार इन्हें सम्मान की दृष्टि से देखता था। साक्षात् विश्वकर्मा ने इन्हें बनाया था। ये बड़े प्रबल और दृढ़ थे ॥॥

१२.
“नरश्रेष्ठ! इन में से एक को देवताओं ने त्रिपुरासुर से युद्ध करने के लिये भगवान् शङ्कर को दे दिया था । ककुत्स्थनन्दन ! जिस से त्रिपुर का नाश हुआ था, वह वही धनुष था; जिसे तुम ने तोड़ा है ।।

१३.
“और दूसरा दुर्धर्ष धनुष यह है, जो मेरे हाथ में है। इसे श्रेष्ठ देवताओं ने भगवान् विष्णु को दिया था । श्रीराम! शत्रु नगरी पर विजय पाने वाला वही यह वैष्णव धनुष है ।।

१४.
" ककुत्स्थनन्दन! यह भी शिवजी के धनुष के समान ही प्रबल है । उन दिनों समस्त देवताओं ने भगवान् शिव और विष्णु के बलाबल की परीक्षा के लिये पितामह ब्रह्माजी से पूछा था कि इन दोनों देवताओं में से कौन अधिक बलशाली है” ॥।

१५.
“देवताओं के इस अभिप्राय को जान कर सत्यवादियों में श्रेष्ठ पितामह ब्रह्माजी ने उन दोनों देवताओं (शिव और विष्णु) में विरोध उत्पन्न कर दिया ।।

१६.
“विरोध पैदा होने पर एक-दूसरे को जीतने की इच्छा वाले शिव और विष्णु में बड़ा भारी युद्ध हुआ, जो रोंग्टे खड़े कर देनेवाला था ॥॥

१७.
“उस समय भगवान् विष्णु ने हुङ्कारमात्र से शिवजी के भयंकर बलशाली धनुष को शिथिल तथा त्रिनेत्रधारी महादेवजी को भी स्तम्भित कर दिया ।।

१८.
“तब ऋषि समूहों तथा चारणों सहित देवताओं ने आकर उन दोनों श्रेष्ठ देवताओं से शान्ति के लिये याचना की; फिर वे दोनों वहाँ शान्त हो गये ।॥

१९.
“भगवान् विष्णु के पराक्रम से शिवजी के उस धनुष को शिथिल हुआ देख ऋषियों सहित देवताओं ने भगवान् विष्णु को श्रेष्ठ माना ।।

२०.
" तदनन्तर, कुपित हुए महायशस्वी रुद्र ने बाण सहित अपना धनुष विदेह देश के राजर्षि देवरात के हाथ में दे दिया ॥॥

श्लोक २१ से २८ ।।

२१.
“श्रीराम! शत्रु नगरी पर विजय पाने वाले इस वैष्णव धनुष को भगवान् विष्णु ने भृगुवंशी ऋचीक मुनि को उत्तम धरोहर के रूप में दिया था ।॥

२२.
“फिर महातेजस्वी ऋचीक ने प्रतीकार (प्रतिशोध की भावना से रहित अपने पुत्र एवम् मेरे पिता महात्मा जमदग्नि के अधिकार में यह दिव्य धनुष दे दिया ।॥

२३.
“तपोबल से सम्पन्न मेरे पिता जमदग्नि अस्त्रों-शस्त्रों का परित्याग करके जब ध्यानस्थ होकर बैठे थे, उस समय प्राकृत बुद्धि का आश्रय लेनेवाले कृतवीर्यकुमार अर्जुन ने उन को मार डाला ॥।।

२४.
“पिता के इस अत्यन्त भयंकर वध का, जो उनके योग्य नहीं था, समाचार सुनकर मैंने रोष पूर्वक बारंबार उत्पन्न हुए क्षत्रियों का अनेको बार संहार किया ॥॥

२५.
“श्रीराम! फिर सारी पृथ्वी पर अधिकार करके मैंने एक यज्ञ किया और उस यज्ञ के समाप्त होने पर पुण्यकर्मा महात्मा कश्यप को दक्षिणा रूप से यह सारी पृथ्वी दे डाली ॥॥

२६.
“पृथ्वी का दान करके मैं महेन्द्रपर्वत पर रहने लगा और वहाँ तपस्या करके तपोबल से सम्पन्न हुआ । वहाँ से शिवजी के धनुष के तोड़े जाने का समाचार सुन कर मैं शीघ्रता पूर्वक यहाँ आया हूँ ।।

२७ से २८.
“श्रीराम! इस प्रकार यह महान् वैष्णव धनुष मेरे पिता पितामहों के अधिकार में रहता चला आया है; अब तुम क्षत्रिय धर्म को सामने रखकर यह उत्तम धनुष हाथ में लो और इस श्रेष्ठ धनुष पर एक ऐसा बाण चढ़ाओ, जो शत्रु नगरी पर विजय पाने में समर्थ हो; यदि तुम ऐसा कर सके तो मैं तुम्हें द्वन्द्व युद्ध का अवसर दूँगा ।।

इस प्रकार श्रीवाल्मीकिनिर्मित आर्षरामायण आदिकाव्य के बालकाण्ड में पचहत्तरवाँ सर्ग पूरा हुआ ॥ ७५ ॥