76. Valmiki Ramayana - Baal Kaand - Sarg 76
ओम् श्री गणेशाये नमः ।।
ओम् श्रीसीतारामचन्द्राभ्याम् नमः ।।
श्रीमद्वाल्मीकीय रामायण – बालकाण्ड ।।
छिहत्तरवाँ सर्ग ।।
सारांश ।
श्रीराम का वैष्णव- धनुष को चढ़ा कर अमोघ बाण के द्वारा परशुराम के तप द्वारा प्राप्त पुण्य लोकों का नाश करना तथा परशुराम का महेन्द्रपर्वत को लौट जाना ।।
आरम्भ ।।
श्लोक १ से १० ।।
१.
दशरथ नन्दन श्रीरामचन्द्रजी अपने पिता के गौरव का ध्यान रखकर संकोच वश वहाँ कुछ बोल नहीं रहे थे, परंतु जमदग्नि कुमार परशुरामजी की उपर्युक्त बात सुन कर उस समय वे मौन ना रह सके। उन्हों ने परशुरामजी से कहा ।।
२.
“भृगुनन्दन! ब्रह्मन् ! आप ने पिता के ऋण से ऊऋण होने की— पिता के मारने वाले का वध कर के वैर का बदला चुकाने की भावना ले कर जो क्षत्रिय-संहार रूपी कर्म किया है, उसे मैंने सुना है। और हमलोग आप के उस कर्म का अनुमोदन भी करते हैं (क्योंकि वीर पुरुष वैर का प्रतिशोध लेते ही हैं ।।
३.
“भार्गव! मैं क्षत्रिय धर्म से युक्त हूँ (इसीलिये आप ब्राह्मण देवता के समक्ष विनीत रहकर कुछ बोल नहीं रहा हूँ) तो भी आप मुझे पराक्रमहीन और असमर्थ सा मान कर मेरा तिरस्कार कर रहे हैं। अच्छा, अब मेरा तेज और पराक्रम देखिये “ ।।
४.
ऐसा कहकर शीघ्र पराक्रम करने वाले श्रीरामचन्द्रजी ने कुपित होकर परशुरामजी के हाथ से वह उत्तम धनुष और बाण ले लिया (साथ ही उन से अपनी वैष्णवी शक्ति को भी वापस ले लिया) ।।
५.
उस धनुष को चढ़ा कर श्रीराम ने उस की प्रत्यञ्चा पर बाण रखा, फिर कुपित होकर उन्होंने जमदग्नि कुमार परशुरामजी से इस प्रकार कहा ।।
६.
“(भृगुनन्दन) राम! आप ब्राह्मण होने के नाते मेरे पूज्य हैं तथा विश्वामित्रजी के साथ भी आपका सम्बन्ध है – इन सब कारणों से मैं इस प्राण-संहारक बाण को आप के शरीर पर नहीं छोड़ सकता ।।
७ से ८.
“राम! मेरा विचार है कि आप को जो सर्वत्र शीघ्रता पूर्वक आने-जाने की शक्ति प्राप्त हुई है उसे अथवा आप ने अपने तपोबल से जिन अनुपम पुण्यलोकों को प्राप्त किया है उन्हीं को नष्ट कर डालूँ; क्योंकि अपने पराक्रम से विपक्षी के बल के घमंड को चूर कर देने वाला यह दिव्य वैष्णव बाण, जो शत्रुओं की नगरी पर विजय दिलाने वाला है, कभी निष्फल नहीं जाता है” ।।
९.
उस समय उस उत्तम धनुष और बाण को धारण करके खड़े हुए श्रीरामचन्द्रजी को देखने के लिये सम्पूर्ण देवता और ऋषि ब्रह्माजी को आगे करके वहाँ एकत्रित हो गये ।।
१०.
गन्धर्व, अप्सराएँ, सिद्ध, चारण, किन्नर, यक्ष, राक्षस और नाग भी उस अत्यन्त अद्भुत दृश्य को देखने के लिये वहाँ आ पहुँचे ।।
श्लोक ११ से २० ।।
११.
जब श्रीरामचन्द्रजी ने वह श्रेष्ठ धनुष हाथ में ले लिया, उस समय सब लोग आश्चर्य से जडवत् हो गये। (परशुरामजी का वैष्णव तेज निकल कर श्रीरामचन्द्रजी में मिल गया । इस लिये) वीर्य हीन हुए जमदग्नि कुमार राम ने दशरथनन्दन श्रीराम की ओर देखा । ।
१२.
तेज निकल जाने से वीर्यहीन हो जाने के कारण जडवत् बने हुए जमदग्नि कुमार परशुराम ने कमलनयन श्रीराम से धीरे-धीरे कहा- ।।
१३.
“रघुनन्दन! पूर्व काल में जब मैंने कश्यपजी को यह पृथिवी दान की थी, तब उन्होंने मुझसे कहा था कि “तुम्हें मेरे राज्य में नहीं रहना चाहिये ।।
१४.
“ककुत्स्थकुलनन्दन! तभी से अपने गुरु कश्यपजी की इस आज्ञा का पालन करता हुआ मैं कभी रात में पृथिवी पर निवास नहीं करता हूँ; क्योंकि यह बात सर्वविदित है कि मैंने कश्यपजी के सामने रात को पृथिवी पर ना रहने की प्रतिज्ञा कर रखी है ।।
१५.
“इस लिये वीर राघव! आप मेरी इस गमन शक्ति को नष्ट ना करें। मैं मन के समान वेग से अभी महेन्द्र नामक श्रेष्ठ पर्वत पर चला जाऊँगा ।।
१६.
“परंतु श्रीराम! मैंने अपनी तपस्या से जिन अनुपम लोकों पर विजय पायी है, उन्हींको आप इस श्रेष्ठ बाण से नष्ट कर दें अब इस में विलम्ब नहीं होना चाहिये ।।
१७.
“शत्रुओं को संताप देने वाले वीर! आप ने जो इस धनुष को चढ़ा दिया, इस से मुझे निश्चित रूपसे ज्ञात हो गया कि आप मधु दैत्य को मारने वाले अविनाशी देवेश्वर विष्णु ही हैं । आप का कल्याण हो ।।
१८.
"ये सब देवता एकत्रित होकर आपकी ओर देख रहे हैं । आपके कर्म अनुपम हैं; युद्ध में आप का सामना करने वाला दूसरा कोई नहीं है ।।
१९.
“ककुत्स्थ कुलभूषण! आपके सामने जो मेरी असमर्थता प्रकट हुई है, यह मेरे लिये लज्जा जनक नहीं हो सकती; क्योंकि आप त्रिलोकी नाथ श्री हरि ने मुझे पराजित किया है ।।
२०.
“उत्तम व्रत का पालन करने वाले श्रीराम! अब आप अपना अनुपम बाण छोड़िये; इसके छूटने के बाद ही मैं श्रेष्ठ महेन्द्र पर्वत पर जाऊँगा” ।।
श्लोक २१ से २४ ।।
२१.
जमदग्निनन्दन परशुरामजी के ऐसा कहने पर प्रतापी दशरथनन्दन श्रीमान् रामचन्द्रजी ने वह उत्तम बाण छोड़ दिया ।।
२२.
अपनी तपस्या द्वारा उपार्जित किये हुए पुण्यलोकों को श्रीरामचन्द्रजी के चलाये हुए उस बाण से नष्ट हुआ देखकर परशुरामजी शीघ्र ही उत्तम महेन्द्र पर्वत पर चले गये ।।
२३.
उनके जाते ही समस्त दिशाओं तथा उपदिशाओं का अन्धकार दूर हो गया । उस समय ऋषियों सहित देवता उत्तम आयुधधारी श्रीराम की भूरि-भूरि प्रशंसा करने लगे ।।
२४.
तदनन्तर, दशरथनन्दन श्रीराम ने जमदग्निकुमार परशुराम का पूजन किया। उन से पूजित हो प्रभाव शाली परशुराम दशरथकुमार श्रीराम की परिक्रमा करके अपने स्थान को चले गये ।।
इस प्रकार श्रीवाल्मीकिनिर्मित आर्षरामायण आदिकाव्य के बालकाण्ड में छिहत्तरवाँ सर्ग पूरा हुआ । ७६ ।