60. Valmiki Ramayana - Baal Kaand - Sarg 60
ओम् श्री गणेशाय नमः ।।
ओम् श्रीसीतारामचन्द्राभ्याम् नमः ।।
श्रीमद्वाल्मीकीय रामायण – बालकाण्ड ।।
साठवाँ सर्ग – ३४ श्लोक ।।
सारांश ।।
विश्वामित्र का ऋषियों से त्रिशंकु का यज्ञ कराने के लिये अनुरोध, ऋषियों द्वारा यज्ञ का आरम्भ, वर्गमन, इन्द्र द्वारा स्वर्ग से उनके गिराये जाने पर क्षुब्ध हुए विश्वामित्र का नूतन देवसर्ग के लिये उद्योग, फिर देवताओं के अनुरोध से उनका इस कार्य से विरत होना। ।।
आरम्भ ।।
श्लोक १ से ११ ।।
१.
[शतानन्दजी कहते हैं—] “श्रीराम! महोदय सहित वसिष्ठ के पुत्रों को अपने तपोबल से नष्ट आज महातेजस्वी विश्वामित्र ने ऋषियों के बीचमें इस प्रकार कहा – ।।
२.
“मुनिवरो! ये इक्ष्वाकु वंश में उत्पन्न राजा त्रिशंकु हैं। ये विख्यात नरेश बड़े ही धर्मात्मा और दानी रहे हैं तथा इस समय मेरी शरण में आये हैं।” ।।
३.
“इनकी इच्छा है कि मैं अपने इसी शरीर से देवलोक पर अधिकार प्राप्त करूँ। अतः आपलोग मेरे साथ रहकर ऐसे यज्ञ का अनुष्ठान करें, जिससे इन्हें इस शरीर से ही देवलोक की प्राप्ति हो सके।” ।।
४ से ५.
विश्वामित्रजी की यह बात सुनकर धर्म को जानने वाले सभी महर्षियों ने सहसा एकत्र होकर आपस में धर्मयुक्त परामर्श किया - “ब्राह्मणो! कुशिक के पुत्र विश्वामित्र मुनि बड़े क्रोधी हैं। ये जो बात कह रहे हैं, उसका ठीक तरह से पालन करना चाहिये। इसमें संशय नहीं है।” ।।
६ से ७.
“ये भगवान् विश्वामित्र अग्नि के समान तेजस्वी हैं। यदि इनकी बात नहीं मानी गयी तो ये रोष पूर्वक शाप दे देंगे। इसलिये ऐसे यज्ञ का आरम्भ करना चाहिये, जिससे विश्वामित्र के तेज से ये इक्ष्वाकु नन्दन त्रिशंकु सशरीर स्वर्गलोक में जा सकें।” ।।
८.
इस तरह विचार करके उन्होंने सर्वसम्मति से यह निश्चय किया कि यज्ञ आरम्भ किया जाय। ऐसा निश्चय करके महर्षियों ने उस समय अपना-अपना कार्य आरम्भ किया। ।।
९.
महातेजस्वी विश्वामित्र स्वयम् ही उस यज्ञ में याजक (अध्वर्यु) हुए। फिर क्रमशः अनेक मन्त्रवेत्ता ब्राह्मण ऋत्विज् हुए; जिन्होंने कल्प शास्त्र के अनुसार विधि एवम् मन्त्रोच्चारण पूर्वक सारे कार्य सम्पन्न किये। ।।
१० से ११.
तदनन्तर बहुत समय तक यत्नपूर्वक मन्त्र पाठ करके महातपस्वी विश्वामित्र ने अपना-अपना भाग ग्रहण करने के लिये सम्पूर्ण देवताओं का आवाहन किया; परंतु उस समय वहाँ भाग लेने के लिये वे सब देवता नहीं आये। ।।
श्लोक १२ से २१ ।।
१२.
इससे महामुनि विश्वामित्र को बड़ा क्रोध आया और उन्होंने स्रुवा उठाकर रोष के साथ राजा त्रिशंकु से इस प्रकार कहा- ।।
१३.
“नरेश्वर! अब तुम मेरे द्वारा उपार्जित तपस्या का बल देखो। मैं अभी तुम्हें अपनी शक्ति से सशरीर स्वर्गलोक में पहुँचाता हूँ।” ।।
१४.
“राजन्! आज तुम अपने इस शरीर के साथ ही दुर्लभ स्वर्गलोक को जाओ। नरेश्वर ! यदि मैंने तपस्या का कुछ भी फल प्राप्त किया है तो उसके प्रभाव से तुम सशरीर स्वर्गलोक को जाओ।” ।।
१५.
श्रीराम ! विश्वामित्र मुनि के इतना कहते ही राजा त्रिशंकु सब मुनियों के देखते-देखते उस समय अपने शरीर के साथ ही स्वर्गलोक को चले गये। ।।
१६.
त्रिशंकु को स्वर्गलोक में पहुँचा हुआ देख समस्त देवताओं के साथ पाकशासन इन्द्र ने उनसे इस प्रकार कहा- ।।
१७.
“मूर्ख त्रिशंकु! तू फिर यहाँ से लौट जा, तेरे लिये स्वर्ग में स्थान नहीं है। तू गुरु के शाप से नष्ट हो चुका है, अतः नीचे मुँह किये पुनः पृथ्वी पर गिर जा।” ।।
१८.
इन्द्र के इतना कहते ही राजा त्रिशंकु तपोधन विश्वामित्र को पुकार कर “ त्राहि-त्राहि” की रट लगाते हुए पुनः स्वर्ग से नीचे गिरे। ।।
१९.
चीखते-चिल्लाते हुए त्रिशंकु की वह करुण पुकार सुनकर कौशिक मुनि को बड़ा क्रोध हुआ। वे त्रिशंकु से बोले – “राजन् ! वहीं ठहर जा, वहीं ठहर जा” (उनके ऐसा कहने पर त्रिशंकु बीच में ही लटके रह गये) ।।
२० से २१.
तत्पश्चात् तेजस्वी विश्वामित्र ऋषि मण्डली के बीच दूसरे प्रजापति के समान दक्षिण मार्ग के लिये नये सप्त र्षियों की सृष्टि की तथा क्रोध से भरकर उन्होंने नवीन नक्षत्रों का भी निर्माण कर डाला ।।
श्लोक २२ से ३४ ।।
२२ से २३.
वे महायशस्वी मुनि क्रोध से कलुषित हो दक्षिण दिशा में ऋषि मण्डली के बीच नूतन नक्षत्र मालाओं की सृष्टि करके यह विचार करने लगे कि मैं दूसरे इन्द्र की सृष्टि करूँगा अथवा मेरे द्वारा रचित स्वर्गलोक बिना इन्द्र के ही रहेगा।” ऐसा निश्चय करके उन्होंने क्रोधपूर्वक नूतन देवताओं की सृष्टि प्रारम्भ की। ।।
२४.
इससे समस्त देवता, असुर और ऋषि- समुदाय बहुत घबराये और सभी वहाँ आकर महात्मा विश्वामित्र से विनयपूर्वक बोले - ।।
२५.
“महाभाग! ये राजा त्रिशंकु गुरु के शाप से अपना पुण्य नष्ट करके चाण्डाल हो गये हैं; अतः तपोधन! ये सशरीर स्वर्ग में जाने के कदापि अधिकारी नहीं हैं।” ।
२६.
उन देवताओं की यह बात सुनकर मुनिवर कौशिक ने सम्पूर्ण देवताओं से परमोत्कृष्ट वचन कहा – ।।
२७.
“देवगण! आपका कल्याण हो। मैंने राजा त्रिशंकु को सदेह स्वर्ग भेजने की प्रतिज्ञा कर ली है; अतः उसे मैं झूठी नहीं कर सकता।” ।।
२८ से २९.
“इन महाराज त्रिशंकु को सदा स्वर्गलोक का सुख प्राप्त होता रहे। मैंने जिन नक्षत्रों का निर्माण किया है, वे सब सदा मौजूद रहें। जब तक संसार रहे, तबतक ये सभी वस्तुएँ, जिनकी मेरे द्वारा सृष्टि हुई है, सदा बनी रहें। देवताओ! आप सब लोग इन बातों का अनुमोदन करें।” ।
३० से ३२.
उनके ऐसा कहने पर सब देवता मुनिवर विश्वामित्र से बोले - “महर्षे! ऐसा ही हो। ये सभी वस्तुएँ बनी रहें और आपका कल्याण हो। मुनिश्रेष्ठ! आपके रचे हुए अनेक नक्षत्र आकाश वैश्वानर पथ से बाहर प्रकाशित होंगे और उन्हीं ज्योतिर्मय नक्षत्रों के बीचमें सिर नीचा किये त्रिशंकु भी प्रकाशमान रहेंगे। वहाँ इनकी स्थिति देवताओं के समान होगी और ये सभी नक्षत्र इन कृतार्थ एवम् यशस्वी नृपश्रेष्ठ का स्वर्गीय पुरुष की भाँति अनुसरण करते रहेंगे” ॥
३३.
इसके बाद सम्पूर्ण देवताओं ने ऋषियों के बीच में ही महातेजस्वी धर्मात्मा विश्वामित्र मुनि की स्तुति की। इससे प्रसन्न होकर उन्होंने “बहुत अच्छा” कहकर देवताओं का अनुरोध स्वीकार कर लिया। ।।
३४.
नरश्रेष्ठ श्रीराम ! तदनन्तर यज्ञ समाप्त होने पर सब देवता और तपोधन महर्षि जैसे आये थे, उसी प्रकार अपने-अपने स्थान को लौट गये। ।।
इस प्रकार श्रीवाल्मीकि द्वारा निर्मित आर्षरामायण आदिकाव्य के बालकाण्ड में साठवाँ सर्ग पूरा हुआ। ।।
Sarg 60- Baal Kaand - Valmiki Ramayana Translated in Hindi and made Screen Readable for Blind and Visually Impaired Individuals by Dr T K Bansal, The Blind Scientist.
