17. Valmiki Ramayana - Kishkindha Kaand - Sarg 17
ओम् श्री गणेशाय नमः ।।
ओम् श्री सीतारामचन्द्राभ्याम् नमः ।।
श्रीमद्वाल्मीकीय रामायण – किष्किन्धाकाण्ड ।।
सत्रहवाँ सर्ग – ५४ श्लोक ।।
सारांश ।।
वाली का श्रीरामचन्द्रजी को फटकारना ।।
आरम्भ ।।
श्लोक १ से ११ ।।
१.
युद्ध में कठोरता दिखाने वाला वाली श्रीराम के बाण से घायल हो कटे हुए वृक्ष की भाँति सहसा पृथ्वी पर गिर पड़ा। ।।
२.
उस का सारा शरीर पृथ्वी पर पड़ा हुआ था। तपाये हुए सुवर्न के आभूषण अब भी उस की शोभा बढ़ा रहे थे। वह देवराज इन्द्र के बन्धन रहित ध्वज की भाँति पृथ्वी पर गिर पड़ा था। ।।
३.
वानरों और भालुओं के यूथपति वाली के धराशायी हो जाने पर यह पृथ्वी चन्द्र रहित आकाश की भाँति शोभा हीन हो गयी। ।।
४.
पृथ्वी पर पड़े होने पर भी महामना वाली के शरीर को शोभा, प्राण, तेज और पराक्रम नहीं छोड़ सके थे। ।।
५.
इन्द्र की दी हुई रत्न जटित श्रेष्ठ सुवर्ण माला उस वानरराज के प्राण, तेज और शोभा को धारण किये हुए थी। ।।
६.
उस सुवर्ण माला से विभूषित हुआ वानरयूथपति वीर वाली संध्या की लाली से रंगे हुए प्रान्त भाग वाले मेघखण्ड के समान शोभा पा रहा था। ।।
७.
पृथ्वी पर गिरे होने पर भी वाली की वह सुवर्ण माला, उसका शरीर तथा मर्म स्थल को विदीर्ण करने वाला वह बाण — ये तीनों पृथक् - पृथक् तीन भागों में विभक्त की हुई अङ्गलक्ष्मी के समान शोभा पा रहे थे। ।।
८.
वीरवर श्रीराम के धनुष से चलाये गये उस अस्त्र ने वाली के लिये स्वर्ग का मार्ग प्रकाशित कर दिया और उसे परम पद को पहुँचा दिया। ।।
९ से ११.
इस प्रकार युद्ध स्थल में गिरा हुआ इन्द्रपुत्र वाली ज्वाला रहित अग्नि के समान, पुण्यों का क्षय होने पर पुण्यलोक से इस पृथ्वी पर गिरे हुए राजा ययाति के समान तथा महाप्रलय के समय काल द्वारा पृथ्वी पर गिराये गये सूर्य के समान जान पड़ता था। उसके गले में सोने की माला शोभा दे रही थी। वह महेन्द्र के समान दुर्जय और भगवान् विष्णु के समान दुस्सह था। उसकी छाती चौड़ी, भुजाएँ बड़ी - बड़ी, मुख दीप्तिमान् और नेत्र कपिल वर्ण के थे। ।।
श्लोक १२ से २० ।।
१२ से १३.
लक्ष्मण को साथ लिये श्रीराम ने वाली को इस अवस्था में देखा और वे उस के समीप गये। इस प्रकार ज्वाला रहित अग्नि की भाँति वहाँ गिरा हुआ वह वीर धीरे-धीरे देख रहा था। महापराक्रमी दोनों भाइ श्रीराम और लक्ष्मण उस वीर का विशेष सम्मान करते हुए उस के पास गये। ।।
१४.
उन श्रीराम तथा महाबली लक्ष्मण को देख कर वाली धर्म और विनय से युक्त कठोर वाणी में बोला- ।।
१५.
अब उस में तेज और प्राण स्वल्प मात्रा में ही रह गये थे। वह बाण से घायल हो कर पृथ्वी पर पड़ा था और उस की चेष्टा धीरे-धीरे लुप्त होती जा रही थी। उस ने युद्ध में गर्व युक्त पराक्रम प्रकट करने वाले गर्वीले श्रीराम से कठोर वाणी में इस प्रकार कहना आरम्भ किया- ।।
१६.
“रघुनन्दन! आप राजा दशरथ के सुविख्यात पुत्र हैं। आपका दर्शन सब को प्रिय है। मैं आप से युद्ध करने नहीं आया था। मैं तो दूसरे के साथ युद्ध में उलझा हुआ था। उस दशा में आप ने मेरा वध कर के यहाँ कौन-सा गुण प्राप्त किया है-किस महान् यश का उपार्जन किया है? क्योंकि मैं युद्ध के लिये दूसरे पर रोष प्रकट कर रहा था, किंतु आप के कारण बीच में ही मृत्यु को प्राप्त हुआ।” ।।
१७ से १८.
“इस भू तल पर सब प्राणी आप के यश का वर्णन करते हुए कहते हैं- श्रीरामचन्द्रजी कुलीन, सत्त्वगुणसम्पन्न, तेजस्वी, उत्तम व्रत का आचरण करनेवाले, करुणा का अनुभव करनेवाले, प्रजा के हितैषी, दयालु, महान् उत्साही, समयोचित कार्य एवम् सदाचार के ज्ञाता और दृढ़ प्रतिज्ञ हैं।” ।।
१९.
“राजन्! इन्द्रिय निग्रह, मन का संयम, क्षमा, धर्म, धैर्य, सत्य, पराक्रम तथा अपराधियों को दण्ड देना- ये सब राजा के गुण हैं।” ।।
२०.
“मैं आप में इन सभी सद्गुणों का विश्वास कर के आप के उत्तम कुल को याद कर के तारा के मना करने पर भी सुग्रीव के साथ लड़ने आ गया।” ।।
श्लोक २१ से ३० ।।
२१.
“जब तक मैंने आप को नहीं देखा था, तब तक मेरे मन में यही विचार उठता था कि दूसरे के साथ रोष पूर्वक जुझते हुए मुझ को आप असावधान अवस्था में अपने बाण से बेधना उचित नहीं समझें गे।” ।।
२२.
“परंतु आज मुझे मालूम हुआ कि आप की बुद्धि मारी गयी है। आप धर्मध्वजी हैं। दिखावे के लिये धर्म का चोला पहने हुए हैं। वास्तव में अधर्मी हैं। आप का आचार-व्यवहार पाप पूर्ण है। आप घास-फूस से ढके हुए कूप के समान धोखा देने वाले हैं।” ।।
२३.
“आप ने साधु पुरुषों का-सा वेश धारण कर रखा है; परंतु हैं पापी। राख से ढकी हुइ आग के समान आप का असली रूप साधु-वेष में छिप गया है। मैं नहीं जानता था कि आप ने लोगों को छलने के लिये ही धर्म की आड़ ली है।” ।।
२४.
“जब मैं आप के राज्य या नगर में कोइ उपद्रव नहीं कर रहा था तथा आप का भी तिरस्कार नहीं करता था, तब आप ने मुझ निरपराध को क्यों मारा?” ।।
२५.
“मैं सदा फल-मूल का भोजन करने वाला और वन में ही विचरने वाला वानर हूँ। मैं यहाँ आप से युद्ध नहीं करता था, दूसरे के साथ मेरी लड़ाई हो रही थी। फिर बिना अपराध के आप ने मुझे क्यों मारा?” ।।
२६.
“राजन्! आप एक सम्माननीय नरेश के पुत्र हैं। विश्वास के योग्य हैं और देखने में भी प्रिय हैं। आप में धर्म का साधनभूत चिह्न (जटा) वल्कल धारण आदि भी प्रत्यक्ष दिखायी देता है।” ।।
२७.
“क्षत्रिय कुल में उत्पन्न शास्त्र का ज्ञाता, संशयरहित तथा धार्मिक वेश-भूषा से आच्छन्न हो कर भी कौन मनुष्य ऐसा क्रूरता पूर्ण कर्म कर सकता है?” ।।
२८.
“महाराज! रघु के कुल में आप का प्रादुर्भाव हुआ है। आप धर्मात्मा के रूप में प्रसिद्ध हैं तो भी इतने अभव्य (क्रूर) निकले! यदि यही आप का असली रूप है तो फिर किस लिये ऊपर से भव्य (विनीत एवम् दयालु) साधु पुरुष का-सा रूप धारण कर के चारों ओर दौड़ते-फिरते हैं?” ।।
२९.
“राजन्! साम, दान, क्षमा, धर्म, सत्य, धृति, पराक्रम और अपराधियों को दण्ड देना-ये भूपालों के गुण हैं।” ।।
३०.
“नरेश्वर राम! हम फल-मूल खाने वाले वनचारी मृग हैं। यही हमारी प्रकृति है; किंतु आप तो पुरुष (मनुष्य) हैं (अतः हमारे और आप में वैर का कोई कारण नहीं है)” ।।
श्लोक ३१ से ४० ।।
३१.
“पृथ्वी, सोना और चाँदी-इन्हीं वस्तुओं के लिये राजाओं में परस्पर युद्ध होते हैं। ये ही तीन कलह के मूल कारण हैं। परंतु यहाँ वे भी नहीं हैं। इस दिशा में इस वन में या हमारे फलों में आप का क्या लोभ हो सकता है?”
३२.
“नीति और विनय, दण्ड और अनुग्रह-ये राजधर्म हैं, किंतु इन के उपयोग के भिन्न-भिन्न अवसर हैं (इन का अविवेकपूर्वक उपयोग करना उचित नहीं है।) राजाओं को स्वेच्छाचारी नहीं होना चाहिये।” ।।
३३.
“परंतु आप तो काम के अधीन, क्रोधी और मर्यादा में स्थित न रहने वाले — चञ्चल हैं। नय- विनय आदि जो राजाओं के धर्म हैं, उन के अवसर का विचार किये बिना ही किसी का कहीं भी प्रयोग कर देते हैं। जहाँ कहीं भी बाण चलाते - फिरते हैं।” ।।
३४.
“आप का धर्म के विषय में आदर नहीं है और न अर्थ साधन में ही आप की बुद्धि स्थिर है। नरेश्वर! आप स्वेच्छाचारी हैं। इसलिये आप की इन्द्रियाँ आप को कहीं भी खींच ले जाती हैं।” ।।
३५.
“काकुत्स्थ! मैं सर्वथा निरपराध था तो भी यहाँ मुझे बाण से मारने का घृणित कर्म कर के सत्पुरुषों के बीच में आप क्या कहेंगे?” ।।
३६.
“राजा का वध करने वाला, ब्रह्म - हत्यारा, गोघाती, चोर, प्राणियों की हिंसा में तत्पर रहने वाला, नास्तिक और परिवेत्ता (बड़े भाइ के अविवाहित रहते अपना विवाह करने वाला छोटा भाइ) ये सब - के - सब नरकगामी होते हैं” । ।।
३७.
“चुगली खाने वाला, लोभी, मित्र - हत्यारा तथा गुरुपत्नीगामी – ये पापात्माओं के लोक में जाते हैं— इस में संशय नहीं है।” ।।
३८.
“हम वानरों का चमड़ा भी तो सत्पुरुषों के धारण करने योग्य नहीं होता। हमारे रोम और हड्डियाँ भी वर्जित हैं (छूनेयोग्य नहीं हैं । आप जैसे धर्माचारी पुरुषों के लिये मांस तो सदा ही अभक्ष्य है; फिर किस लोभ से आप ने मुझ वानर को अपने बाणों का शिकार बनाया है?)” ।।
३९.
“रघुनन्दन! त्रैवर्णिकों में जिन की किसी कारण से मांसाहार ( जैसे निन्दनीय कर्म ) में प्रवृत्ति हो गयी है , उन के लिये भी पाँच नख वाले जीवों में से पाँच ही भक्षण के योग्य बताये गये हैं। उनके नाम इस प्रकार हैं — गेंडा , साही , गोह , खरहा और पाँचवाँ कछुआ।” ।।
४०.
“श्रीराम! मनीषी पुरुष मेरे ( वानर के ) चमड़े और हड्डी का स्पर्श नहीं करते हैं। वानर के मांस भी सभी के लिये अभक्ष्य होते हैं। इस तरह जिस का सब कुछ निषिद्ध है , ऐसा पाँच नख वाला मैं आज आप के हाथ से मारा गया हूँ।” ।।
श्लोक ४१ से ५० ।।
४१.
“मेरी स्त्री तारा सर्वज्ञ है। उस ने मुझे सत्य और हित की बात बतायी थी। किंतु मोह वश उस का उल्लङ्घन कर के मैं काल के अधीन हो गया।” ।।
४२.
“काकुत्स्थ! जैसे सुशीला युवती पापात्मा पति से सुरक्षित नहीं हो पाती , उसी प्रकार आप- जैसे स्वामी को पा कर यह वसुधा सनाथ नहीं हो सकती।” ।।
४३.
“आप शठ (छिपे रह कर दूसरों का अप्रिय करने वाले), अपकारी, क्षुद्र और झूठे ही शान्तचित्त बने रहनेवाले हैं। महात्मा राजा दशरथ ने आप-जैसे पापी को कैसे उत्पन्न किया?” ।।
४४.
“हाय! जिस ने सदाचार का रस्सा तोड़ डाला है, सत्पुरुषों के धर्म एवम् मर्यादा का उल्लङ्वन किया है तथा जिस ने धर्मरूपी अङ्गश की भी अवहेलना कर दी है, उस राम रूपी हाथी के द्वारा आज मैं मारा गया”॥ ।।
४५.
“ऐसा अशुभ, अनुचित और सत्पुरुषों द्वारा निन्दित कर्म कर के आप श्रेष्ठ पुरुषों से मिलने पर उन के सामने क्या कहेंगे?” ।।
४६.
“श्रीराम! हम उदासीन प्राणियों पर आप ने जो यह पराक्रम प्रकट किया है, ऐसा बल- पराक्रम आप अपना अपकार करने वालों पर प्रकट कर रहे हों, ऐसा मुझे नहीं दिखायी देता”॥ ।।
४७.
“राजकुमार! यदि आप युद्ध स्थल में मेरी दृष्टि के सामने आ कर मेरे साथ युद्ध करते तो आज मेरे द्वारा मारे जा कर सूर्यपुत्र यम देवता का दर्शन करते होते”॥ ।।
४८.
“जैसे किसी सोये हुए पुरुष को सांप आ कर डँस ले और वह मर जाय उसी प्रकार रणभूमि में मुझ दुर्जय वीर को आप ने छिपे रह कर मारा है तथा ऐसा कर के आप पाप के भागी हुए हैं” । ।।
४९.
“जिस उद्देश्य को ले कर सुग्रीव का प्रिय करने की कामना से आप ने मेरा वध किया है, उसी उद्देश्य की सिद्धि के लिये यदि आप ने पहले मुझ से ही कहा होता तो मैं मिथिलेशकुमारी जानकी को एक ही दिन में ढूँढ़ कर आप के पास ला देता” ॥ ।।
५०.
“आप की पत्नी का अपहरण करने वाले दुरात्मा राक्षस रावण को मैं युद्ध में मारे बिना ही उस के गले में रस्सी बाँध कर पकड़ लाता और उसे आप के हवाले कर देता” । ।।
श्लोक ५१ से ५४ ।।
५१.
“जैसे मधुकैटभ द्वारा अपहृत हुइ श्वेताश्वतरी श्रुति का भगवान् हयग्रीव ने उद्धार किया था, उसी प्रकार मैं आप के आदेश से मिथिलेशकुमारी सीता को यदि वे समुद्र के जल में या पाताल में रखी गयी होती तो भी वहाँ से ला देता” ॥ ।।
५२.
“मेरे स्वर्गवासी हो जाने पर सुग्रीव जो यह राज्य प्राप्त करेंगे, वह तो उचित ही है। अनुचित इतना ही हुआ है कि आप ने मुझे रणभूमि में अधर्मपूर्वक मारा है” । ।।
५३.
“यह जगत् कभी-न-कभी काल के अधीन होता ही है। इस का ऐसा स्वभाव ही है। अतः भले ही मेरी मृत्यु हो जाय, इस के लिये मुझे खेद नहीं है। परंतु मेरे इस तरह मारे जाने का यदि आप ने कोई उचित उत्तर ढूँढ़ निकाला हो तो उसे अच्छी तरह सोच-विचार कर कहिये” ।।
५४.
ऐसा कह कर महामनस्वी वानर राजकुमार वाली सूर्य के समान तेजस्वी श्रीरामचन्द्रजी की ओर देख कर चुप हो गया। उस का मुँह सूख गया था और बाण के आघात से उस को बड़ी पीड़ा हो रही थी॥ ।।
इस प्रकार श्रीवाल्मीकि द्वारा निर्मित आर्षरामायण आदिकाव्य के किष्किन्धाकाण्ड में सत्रहवाँ सर्ग पूरा हुआ ।।
Sarg 17 - Kishkindha Kaand - Valmiki Ramayana Translated in Hindi and made Screen Readable for Blind and Visually Impaired Individuals by Dr T K Bansal, The Blind Scientist.
