18. Valmiki Ramayana - Kishkindha Kaand - Sarg 18
ओम् श्री गणेशाय नमः ।।
ओम् श्री सीतारामचन्द्राभ्याम् नमः ।।
श्रीमद्वाल्मीकीय रामायण – किष्किन्धाकाण्ड ।।
अठारहवाँ सर्ग – ६६ श्लोक ।।
सारांश ।।
श्रीराम का वाली की बात का उत्तर देते हुए उसे दिये गये दण्ड का औचित्य बताना , वाली का निरुत्तर होकर भगवान से अपने अपराध के लिये क्षमा मांग्ते हुए अङ्गद की रक्षा के लिये प्रार्थना करना और श्रीराम का उसे आश्वासन देना ।।
आरम्भ ।।
श्लोक १ से १० ।।
१ से ३.
वहाँ मारे जाकर अचेत हुए वाली ने जब इस प्रकार विनयाभास, धर्माभास, अर्थाभास और हिताभास से युक्त कठोर बातें कहीं, आक्षेप किया, तब उन बातों को कह कर मौन हुए वानरश्रेष्ठ वाली से श्रीरामचन्द्रजी ने धर्म, अर्थ और श्रेष्ठ गुणों से युक्त परम उत्तम बात कही। उस समय वाली प्रभाहीन सूर्य, जलहीन बादल और बुझी हुई आग के समान श्रीहीन प्रतीत हो रहा था। ।।
४.
श्रीराम बोले— “वानर! धर्म, अर्थ, काम और लौकिक सदाचार को तो तुम स्वयम् ही नहीं जानते हो। फिर बालोचित अविवेक के कारण आज यहाँ मेरी निन्दा क्यों कर रहे हो?” ।।
५.
“सौम्य! तुम आचार्यों द्वारा सम्मानित बुद्धिमान् वृद्ध पुरुषों से पूछे बिना ही — उनसे धर्म के स्वरूप को ठीक - ठीक समझे बिना ही वानरोचित चपलता वश मुझे यहाँ उपदेश देना चाहते हो? अथवा मुझ पर आक्षेप करने की इच्छा रखते हो? ” ।।
६.
“पर्वत, वन और काननों से युक्त यह सारी पृथ्वी इक्ष्वाकुवंशी राजाओं की है; अतः, वे यहाँ के पशु - पक्षी और मनुष्यों पर दया करने और उन्हें दण्ड देने के भी अधिकारी हैं।” ।।
७.
“धर्मात्मा राजा भरत इस पृथ्वी का पालन करते हैं। वे सत्यवादी, सरल तथा धर्म, अर्थ और काम के तत्त्व को जानने वाले हैं; अतः, दुष्टों के निग्रह तथा साधु पुरुषों के प्रति अनुग्रह करने में तत्पर रहते हैं।” ।।
८.
“जिसमें नीति, विनय, सत्य और पराक्रम आदि सभी राजोचित गुण यथावत् – रूप से स्थित देखे जायँ, वही देश - काल – तत्त्व को जाननेवाला राजा होता है (भरत में ये सभी गुण विद्यमान हैं)” ।।
९.
“भरत की ओर से हमें तथा दूसरे राजाओं को यह आदेश प्राप्त है कि जगत में धर्म के पालन और प्रसार के लिये यत्न किया जाय। इसलिये हमलोग धर्म का प्रचार करने की इच्छा से सारी पृथ्वी पर विचरते रहते हैं।” ।।
१०.
“राजाओं में श्रेष्ठ भरत धर्म पर अनुराग रखनेवाले हैं। वे समूची पृथ्वी का पालन कर रहे हैं। उनके रहते हुए इस पृथ्वी पर कौन प्राणी धर्म के विरुद्ध आचरण कर सकता है?” ।।
श्लोक ११ से २० ।।
११.
“हम सब लोग अपने श्रेष्ठ धर्म में दृढ़तापूर्वक स्थित रहकर भरत की आज्ञा को सामने रखते हुए धर्म मार्ग से भ्रष्ट पुरुषों को विधिपूर्वक दण्ड देते हैं।” ।।
१२.
“तुमने अपने जीवन में काम को ही प्रधानता दे रखी थी। राजोचित मार्ग पर तुम कभी स्थिर नहीं रहे। तुमने सदा ही धर्म को बाधा पहुँचायी और बुरे कर्मों के कारण सत्पुरुषों द्वारा सदा तुम्हारी निन्दा की गयी।” ।।
१३.
“बड़ा भाई, पिता तथा जो विद्या देता है, वह गुरु-ये तीनों धर्म मार्ग पर स्थित रहनेवाले पुरुषों के लिये पिता के तुल्य माननीय हैं, ऐसा समझना चाहिये।” ।।
१४.
“इसी प्रकार छोटा भाई, पुत्र और गुणवान् शिष्य-ये तीनो पुत्र के तुल्य समझे जाने योग्य हैं। उनके प्रति ऐसा भाव रखने में धर्म ही कारण है।” ।।
१५.
“वानर! सज्जनों का धर्म सूक्ष्म होता है, वह परम दुर्ज्ञेय है-उसे समझना अत्यन्त कठिन है। समस्त प्राणियों के अन्तःकरण में विराजमान जो परमात्मा हैं, वे ही सबके शुभ और अशुभ को जानते हैं।” ।।
१६.
“तुम स्वयम् भी चपल हो और चञ्चल चित्तवाले अजितात्मा वानरों के साथ रहते हो; अतः, जैसे कोई जन्मान्ध पुरुष जन्मान्धों से ही रास्ता पूछे, उसी प्रकार तुम उन चपल वानरों के साथ परामर्श करते हो, फिर तुम धर्म का विचार क्या कर सकते हो? – उसके स्वरूप को कैसे समझ सकते हो?” ।।
१७.
“मैंने यहाँ जो कुछ भी कहा है, उसका अभिप्राय तुम्हें स्पष्ट करके बताता हूँ। तुम्हें केवल रोषवश मेरी निन्दा नहीं करनी चाहिये।” ।।
१८.
“मैंने तुम्हें क्यों मारा है? उसका कारण सुनो और समझो। तुम सनातन धर्म का त्याग करके अपने छोटे भाई की स्त्री से सहवास करते हो।” ।।
१९.
“इस महामना सुग्रीव के जीते-जी इसकी पत्नी रुमा का, जो तुम्हारी पुत्रवधू के समान है, कामवश उपभोग करते हो। अतः, पापाचारी हो।” ।।
२०.
“वानर! इस तरह तुम धर्म से भ्रष्ट हो स्वेच्छाचारी हो गये हो और अपने भाइ की स्त्री को गले लगाते हो। तुम्हारे इसी अपराध के कारण तुम्हें यह दण्ड दिया गया है।” ।।
श्लोक २१ से ३० ।।
२१.
“वानरराज! जो लोकाचार से भ्रष्ट होकर लोक विरुद्ध आचरण करता है, उसे रोकने या राह पर लाने के लिये मैं दण्ड के सिवा और कोई उपाय नहीं देखता।” ।।
२२.
“मैं उत्तम कुल में उत्पन्न क्षत्रिय हूँ; अतः, मैं तुम्हारे पाप को क्षमा नहीं कर सकता। जो पुरुष अपनी कन्या, बहिन अथवा छोटे भाई की स्त्री के पास काम-बुद्धि से जाता है, उसका वध करना ही उसके लिये उपयुक्त दण्ड माना गया है।” ।।
२३.
“हमारे राजा भरत हैं। हमलोग तो केवल उनके आदेश का पालन करनेवाले हैं। तुम धर्म से गिर गये हो; अतः, तुम्हारी उपेक्षा कैसे की जा सकती थी।” ।।
२४.
“विद्वान् राजा भरत महान् धर्म से भ्रष्ट हुए पुरुष को दण्ड देते और धर्मात्मा पुरुष का धर्मपूर्वक पालन करते हुए कामासक्त स्वेच्छाचारी पुरुषों के निग्रह में तत्पर रहते हैं।” ।।
२५.
“हरीश्वर! हमलोग तो भरत की आज्ञा को ही प्रमाण मानकर धर्म मर्यादा का उल्लङ्कन करनेवाले तुम्हारे-जैसे लोगों को दण्ड देने के लिये सदा उद्यत रहते हैं।” ।।
२६ से २७.
“सुग्रीव के साथ मेरी मित्रता हो चुकी है। उनके प्रति मेरा वही भाव है, जो लक्ष्मण के प्रति है। वे अपनी स्त्री और राज्य की प्राप्ति के लिये मेरी भलाई करने के लिये भी कटिबद्ध हैं। मैंने वानरों के समीप इन्हें स्त्री और राज्य दिलाने के लिये प्रतिज्ञा भी कर ली है। ऐसी दशा में मेरे-जैसा मनुष्य अपनी प्रतिज्ञा की ओर से कैसे दृष्टि हटा सकता है?” ।।
२८.
“ये सभी धर्मानुकूल महान् कारण एक साथ उपस्थित हो गये, जिनसे विवश होकर तुम्हें उचित दण्ड देना पड़ा है। तुम भी इसका अनुमोदन करो।” ।।
२९.
“धर्म पर दृष्टि रखनेवाले मनुष्य के लिये मित्र का उपकार करना धर्म ही माना गया है; अतः, तुम्हें जो यह दण्ड दिया गया है, वह धर्म के अनुकूल है। ऐसा ही तुम्हें समझना चाहिये।” ।।
३०.
“यदि राजा होकर तुम धर्म का अनुसरण करते तो तुम्हें भी वही काम करना पड़ता, जो मैंने किया है। मनु ने राजोचित सदाचार का प्रतिपादन करनेवाले दो श्लोक कहे हैं, जो स्मृतियों में सुने जाते हैं और जिन्हें धर्मपालन में कुशल पुरुषों ने सादर स्वीकार किया। उन्हींके अनुसार इस समय यह मेरा बर्ताव हुआ है (वे श्लोक इस प्रकार हैं-)” ।।
श्लोक ३१ से ४० ।।
३१ से ३२.
“मनुष्य पाप करके यदि राजा के दिये हुए दण्ड को भोग लेते हैं तो वे शुद्ध हो कर पुण्यात्मा साधु पुरुषों की भाँति स्वर्गलोक में जाते हैं। (चोर आदि पापी जब राजा के सामने उपस्थित हों उस समय उन्हें) राजा दण्ड दे अथवा दया करके छोड़ दे। चोर आदि पापी पुरुष अपने पाप से मुक्त हो जाता है; किंतु यदि राजा पापी को उचित दण्ड नहीं देता तो उसे स्वयम् उसके पाप का फल भोगना पड़ता है।” ।।
३३.
“तुमने जैसा पाप किया है, वैसा ही पाप प्राचीन काल में एक श्रमण ने किया था। उसे मेरे पूर्वज महाराज मान्धाता ने बड़ा कठोर दण्ड दिया था, जो शास्त्रों के अनुसार अभीष्ट था।” ।।
३४.
“यदि राजा दण्ड देने में प्रमाद कर जायँ तो उन्हें दूसरों के किये हुए पाप भी भोगने पड़ते हैं तथा उसके लिये जब वे प्रायश्चित्त करते हैं तभी उनका दोष शान्त होता है।” ।।
३५.
“अतः, वानरश्रेष्ठ! पश्चाताप करने से कोई लाभ नहीं है। सर्वथा धर्म के अनुसार ही तुम्हारा वध किया गया है; क्योंकि हमलोग अपने वश में नहीं हैं (शास्त्र के ही अधीन हैं)”॥ ।।
३६.
“वानरशिरोमणे! तुम्हारे वध का जो दूसरा कारण है, उसे भी सुनलो। वीर! उस महान् कारण को सुन कर तुम्हें मेरे प्रति क्रोध नहीं करना चाहिये।” ।।
३७ से ३८.
“वानरश्रेष्ठ! इस कार्य के लिये मेरे मन में न तो संताप होता है और न खेद ही। मनुष्य (राजा आदि) बड़े-बड़े जाल बिछाकर फंदे फैलाकर और नाना प्रकार के कूट उपाय (गुप्त गट्टोंके निर्माण आदि) करके छिपे रह कर सामने आ कर बहुत-से मृगों को पकड़ लेते हैं; भले ही वे भयभीत हो कर भागते हों या विश्वस्त हो कर अत्यन्त निकट बैठे हों।” ।।
३९.
“मांसाहारी मनुष्य (क्षत्रिय) सावधान, असावधान अथवा विमुख होकर भागनेवाले पशुओं को भी अत्यन्त घायल कर देते हैं; किंतु उन के लिये इस मृगयामें दोष नहीं होता।” ।।
४०.
“वानर! धर्मज्ञ राजर्षि भी इस जगत्में मृगया के लिये जाते हैं और विविध जन्तुओं का वध करते हैं। इस लिये मैंने तुम्हें युद्ध में अपने बाण का निशाना बनाया है। तुम मुझसे युद्ध करते थे या नहीं करते थे, तुम्हारी वध्यता में कोई अन्तर नहीं आता; क्योंकि तुम शाखामृग हो (और मृगया करने का क्षत्रिय को अधिकार है)”॥ ।।
श्लोक ४१ से ५० ।।
४१.
“वानरश्रेष्ठ! राजालोग दुर्लभ धर्म, जीवन और लौकिक अभ्युदय के देनेवाले होते हैं; इस में संशय नहीं है”॥ ।।
४२.
“अतः, उनकी हिंसा न करे, उनकी निन्दा न करे, उनके प्रति आक्षेप भी न करे और न उनसे अप्रिय वचन ही बोले; क्योंकि वे वास्तव में देवता हैं, जो मनुष्यरूप से इस पृथ्वी पर विचरते रहते हैं” ॥ ।।
४३.
“तुम तो धर्म के स्वरूप को न समझकर केवल रोष के वशीभूत हो गये हो, इसलिये पिता – पितामहों के धर्म पर स्थित रहनेवाले मेरी निन्दा कर रहे हो” ।।
४४.
श्रीराम के ऐसा कहने पर वाली के मनमें बड़ी व्यथा हुई। इसे धर्म के तत्त्व का निश्चय हो गया। उसने श्रीरामचन्द्रजी के दोष का चिन्तन त्याग दिया। ।।
४५.
इसके बाद वानरराज वाली ने श्रीरामचन्द्रजी से हाथ जोड़ कर कहा — “ नरश्रेष्ठ ! आप जो कुछ कहते हैं , बिलकुल ठीक है ; इसमें संशय नहीं है”। ।।
४६ से ४७.
“आप - जैसे श्रेष्ठ पुरुष को मुझ जैसा निम्न श्रेणी का प्राणी उचित उत्तर नहीं दे सकता; अतः, मैंने प्रमादवश पहले जो अनुचित बात कह डाली है, उसमें भी आप को मेरा अपराध नहीं मानना चाहिये। रघुनन्दन! आप परमार्थ तत्त्व के यथार्थ ज्ञाता और प्रजाजनों के हित में तत्पर रहनेवाले हैं। आपकी बुद्धि कार्य – कारण के निश्चय में निभ्रान्त एवम् निर्मल है”। ।।
४८.
“धर्मज्ञ! मैं धर्मभ्रष्ट प्राणियों में अग्रगण्य हूँ और इसी रूप में मेरी सर्वत्र प्रसिद्धि है तो भी आज आप की शरण में आया हूँ। अपनी धर्म तत्त्व की वाणी से आज मेरी भी रक्षा कीजिये” ।।
४९.
इतना कहते - कहते आँसुओं से वाली का गला भर आया और वह कीचड़ में फँसे हुए हाथी की तरह आर्तनाद करके श्रीराम की ओर देखता हुआ धीरे - धीरे बोला ।।
५०.
“भगवन्! मुझे अपने लिये , तारा के लिये तथा बन्धु – बान्धवों के लिये भी उतना शोक नहीं होता है , जितना सुवर्ण का अङ्गद धारण करनेवाले श्रेष्ठ गुणसम्पन्न पुत्र अङ्गद के लिये हो रहा है”। ।।
श्लोक ५१ से ६० ।।
५१.
“मैंने बचपन से ही उसका बड़ा दुलार किया है; अब मुझे न देखकर वह बहुत दुखी होगा और जिसका जल पी लिया गया हो, उस तालाब की तरह सूख जायगा” । ।।
५२.
“श्रीराम! वह अभी बालक है। उसकी बुद्धि परिपक्व नहीं हुई है। मेरा इकलौता बेटा होने के कारण ताराकुमार अङ्गद मुझे बड़ा प्रिय है। आप मेरे उस महाबली पुत्र की रक्षा कीजियेगा”। ।।
५३.
“सुग्रीव और अङ्गद दोनों के प्रति आप सद्भाव रखें। अब आप ही इन लोगों के रक्षक तथा इन्हें कर्तव्य – अकर्तव्य की शिक्षा देनेवाले हैं” । ।।
५४.
“राजन्! नरेश्वर! भरत और लक्ष्मण के प्रति आप का जैसा बर्ताव है, वही सुग्रीव तथा अङ्गद के प्रति भी होना चाहिये। आप उसी भाव से इन दोनों का स्मरण करें”। ।।
५५.
“बेचारी तारा की बड़ी शोचनीय अवस्था हो गयी है। मेरे ही अपराध से उसे भी अपराधिनी समझ कर सुग्रीव उसका तिरस्कार न करे, इस बात की भी व्यवस्था कीजियेगा” ॥ ।।
५६.
“सुग्रीव आप का कृपापात्र होकर ही इस राज्य का यथार्थ रूप से पालन कर सकता है। आपके अधीन हो कर आप के चित्त का अनुसरण करनेवाला पुरुष स्वर्ग और पृथ्वी का भी राज्य पा सकता और उसका अच्छी तरह पालन कर सकता है” । ।।
५७.
“मैं चाहता था कि आपके हाथ से मेरा वध हो; इसीलिये तारा के मना करने पर भी मैं अपने भाई सुग्रीव के साथ द्वन्द्वयुद्ध करने के लिये चला आया” । ।।
५८ से ६०.
श्रीरामचन्द्रजी से ऐसा कह कर वानरराज वाली चुप हो गया। उस समय उस की ज्ञानशक्ति का विकास हो गया था। श्रीरामचन्द्रजी ने धर्म के यथार्थ स्वरूप को प्रकट करनेवाली साधु पुरुषों द्वारा प्रशंसित वाणी में उस से कहा- “वानरश्रेष्ठ! तुम्हें इसके लिये संताप नहीं करना चाहिये। कपिप्रवर! तुम्हें हमारे और अपने लिये भी चिन्ता करने की आवश्यकता नहीं है; क्योंकि हमलोग तुम्हारी अपेक्षा विशेषज्ञ हैं, इसलिये हमने धर्मानुकूल कार्य करने का ही निश्चय कर रखा है”। ।।
श्लोक ६१ से ६६ ।।
६१.
“जो दण्डनीय पुरुष को दण्ड देता है तथा जो दण्ड का अधिकारी होकर दण्ड भोगता है, उनमें से दण्डनीय व्यक्ति अपने अपराध के फल रूप में शासक का दिया हुआ दण्ड भोग कर तथा दण्ड देनेवाला शासक उस के उस फल भोग में कारण-निमित्त बन कर कृतार्थ हो जाते हैं- अपना-अपना कर्तव्य पूरा कर लेने के कारण कर्मरूप ऋण से मुक्त हो जाते हैं। अतः वे दुखी नहीं होते” ॥ ।।
६२.
“तुम इस दण्ड को पा कर पाप रहित हुए और इस दण्ड का विधान करनेवाले शास्त्र द्वारा कथित दण्ड ग्रहणरूप मार्ग से ही चल कर तुम्हें धर्मानुकूल शुद्ध स्वरूप की प्राप्ति हो गयी” ॥ ।।
६३.
“अब तुम अपने हृदय में स्थित शोक, मोह और भय का त्याग कर दो। वानरश्रेष्ठ! तुम दैव के विधान को नहीं लाँघ सकते”॥ ।।
६४.
“वानरेश्वर! कुमार अङ्गद तुम्हारे जीवित रहने पर जैसा था, उसी प्रकार सुग्रीव के और मेरे पास भी सुख से रहेगा, इस में संशय नहीं है” ।।
६५.
युद्ध में शत्रु का मानमर्दन करने वाले महात्मा श्रीरामचन्द्रजी का धर्म मार्ग के अनुकूल और मानसिक शङ्काओं का समाधान करनेवाला मधुर वचन सुनकर वानरराज वाली ने यह सुन्दर युक्तियुक्त वचन कहा – ।।
६६.
“प्रभो! देवराज इन्द्र के समान भयंकर पराक्रम प्रकट करनेवाले नरेश्वर ! मैं आपके बाण से पीड़ित होने के कारण अचेत हो गया था। इसलिये अनजाने में मैंने जो आप के प्रति कठोर बात कह डाली है , उसे आप क्षमा कीजियेगा। इसके लिये मैं प्रार्थनापूर्वक आप को प्रसन्न करना चाहता हूँ”। ।।
इस प्रकार श्रीवाल्मीकि द्वारा निर्मित आर्षरामायण आदिकाव्य के किष्किन्धाकाण्ड में अठारहवाँ सर्ग पूरा हुआ ।।
Sarg 18 - Kishkindha Kaand - Valmiki Ramayana Translated in Hindi and made Screen Readable for Blind and Visually Impaired Individuals by Dr T K Bansal, The Blind Scientist.
