16. Valmiki Ramayana - Kishkindha Kaand - Sarg 16

ओम् श्री गणेशाय नमः ।।

ओम् श्री सीतारामचन्द्राभ्याम् नमः ।।

श्रीमद्वाल्मीकीय रामायण – किष्किन्धाकाण्ड ।।

सोलहवाँ सर्ग – ३९ श्लोक ।।

सारांश ।।

वाली का तारा को डांट कर लौटाना और सुग्रीव से जूझना तथा श्रीराम के बाण से घायल होकर पृथ्वी पर गिरना। ।।

आरम्भ ।।

श्लोक १ से १० ।।

१.
चन्द्रमा के समान मुख वाली तारा को ऐसी बातें करती देख, तारापति वाली ने उसे फटकारा और इस प्रकार कहा- ।।

२.
“वरानने! इस गर्जते हुए भाइ की, जो विशेषतः मेरा शत्रु है, यह उत्तेजनापूर्ण चेष्टा मैं किस कारण से सहन करूँगा?” ।।

३.
“भीरु! जो कभी परास्त नहीं हुए और जिन्हों ने युद्ध के अवसरों पर कभी पीठ नहीं दिखायी, उन शूरवीरों के लिये शत्रु की ललकार सह लेना मृत्यु से भी बढ़ कर दुखदायी होता है।” ।।

४.
“यह हीन ग्रीवा वाला सुग्रीव संग्रामभूमि में मेरे साथ युद्ध की इच्छा रखता है। मैं इस के रोषावेश और गर्जनतजर्न को सहन करने में असमर्थ हूँ।” ।।

५.
“श्रीरामचन्द्रजी की बात सोच कर भी तुम्हें मेरे लिये विषाद नहीं करना चाहिये, क्योंकि वे धर्म के ज्ञाता तथा कर्तव्याकर्तव्य को समझने वाले हैं। अतः पाप कैसे करेंगे?” ।।

६ से ७.
“तुम इन स्त्रियों के साथ लौट जाओ। क्यों मेरे पीछे बार-बार आ रही हो? तुम ने मेरे प्रति अपना स्नेह दिखाया। भक्ति का भी परिचय दे दिया। अब जाओ, घबराहट छोड़ो। मैं आगे बढ़ कर सुग्रीव का सामना करूँगा। उसके घमण्ड को चूर-चूर कर डालूँगा। किंतु प्राण नहीं लूँगा।” ।।

८.
“युद्ध के मैदान में खड़े हुए सुग्रीव की जो भी इच्छा है, उसे मैं पूर्ण करूँगा। वृक्षों और मुक्कों की मार से पीड़ित हो कर वह स्वयम् ही भाग जायगा।” ।।

९.
“तारे! दुरात्मा सुग्रीव मेरे युद्धविषयक दर्प और आयास (उद्योग) को नहीं सह सकेगा। तुमने मेरी बौद्धिक सहायता अच्छी तरह कर दी और मेरे प्रति अपना सौहार्द भी दिखा दिया।” ।।

१०.
“अब मैं प्राणों की सौगन्ध दिला कर कहता हूँ कि अब तुम इन स्त्रियों के साथ लौट जाओ। अब अधिक कहने की आवश्यकता नहीं है, मैं युद्ध में अपने उस भाई को जीत कर लौट आऊँगा।” ।।

श्लोक ११ से २० ।।

११.
यह सुन कर अत्यन्त उदार स्वभाव वाली तारा ने वाली का आलिङ्गन कर के मन्द स्वर में रोते हुए उस की परिक्रमा की॥ ।।

१२.
वह पति की विजय चाहती थी और उसे मन्त्रों का भी ज्ञान था। इस लिये उस ने वाली की मङ्गल-कामना से स्वस्तिवाचन किया और शोक से मोहित हो वह अन्य स्त्रियों के साथ अन्तःपुर को चली गयी॥ ।।

१३.
स्त्रियों सहित तारा के अपने महल में चले जाने पर वाली क्रोध से भरे हुए महान् सर्प की भाँति लम्बी साँस खींचता हुआ नगर से बाहर निकला॥ ।।

१४.
महान् रोष से युक्त और अत्यन्त वेग शाली वाली लम्बी साँस छोड़कर शत्रु को देखने की इच्छा से चारों ओर अपनी दृष्टि दौड़ाने लगा॥ ।।

१५.
इतने ही में श्रीमान् वाली ने सुवर्ण के समान पिङ्गल वर्णवाले सुग्रीव को देखा, जो लंगोट बांध कर युद्ध के लिये डट कर खड़े थे और प्रज्वलित अग्नि के समान प्रकाशित हो रहे थे॥ ।।

१६.
सुग्रीव को खड़ा देख महाबाहु वाली अत्यन्त कुपित हो उठा। उसने अपना लंगोट भी दृढ़ता के साथ बाँध लिया॥ ।।

१७.
लंगोट को मजबूती के साथ कस कर पराक्रमी वाली प्रहार का अवसर देखता हुआ मुक्का तान कर सुग्रीव की ओर चला॥ ।।

१८.
सुग्रीव भी सुवर्ण माला धारी वाली के उद्देश्य से बंधा हुआ मुक्का ताने बड़े आवेश के साथ उस की ओर बढ़े।

१९.
युद्ध कला के पण्डित महावेगशाली सुग्रीव को अपनी ओर आते देख वाली की आँखें क्रोध से लाल हो गयीं और वह इस प्रकार बोला- ।।

२०.
“सुग्रीव! देख ले। यह बड़ा भारी मुक्का खूब कस कर बँधा हुआ है। इस में सारी अङ्गलियाँ सुनियन्त्रित रूप से परस्पर सटी हुई हैं। मेरे द्वारा वेग पूर्वक चलाया हुआ यह मुक्का तेरे प्राण ले कर ही जायगा।” ।।

श्लोक २१ से ३० ।।

२१.
वाली के ऐसा कहने पर सुग्रीव क्रोध पूर्वक उस से बोले- “मेरा यह मुक्का भी तेरे प्राण लेने के लिये तेरे मस्तक पर गिरे।” ।।

२२.
इतने ही में वाली ने वेगपूर्वक आक्रमण कर के सुग्रीव पर मुक्के का प्रहार किया। उस चोट से घायल एवम् कुपित हुए सुग्रीव झरनों से युक्त पर्वत की भाँति मुँह से रक्त वमन करने लगे॥ ।।

२३.
तत्पश्चात् सुग्रीव ने भी निःशङ्क हो कर बल पूर्वक एक सालवृक्ष को उखाड़ लिया और उसे वाली के शरीर पर दे मारा, मानो इन्द्र ने किसी विशाल पर्वत पर वज्र का प्रहार किया हो॥ ।।

२४.
उस वृक्ष की चोट से वाली के शरीर में घाव हो गया। उस आघात से विह्वल हुआ वाली व्यापारियों के समूह के चढ़ने से भारी भार के द्वारा दब कर समुद्र में डगमगाती हुई नौका के समान काँपने लगा॥ ।।

२५.
उन दोनों भाइयों का बल और पराक्रम भयंकर था। दोनों के ही वेग गरुड़ के समान थे। वे दोनों भयंकर रूप धारण कर के बड़े जोर से जूझ रहे थे और पूर्णिमा के आकाश में चन्द्रमा और सूर्य के समान दिखायी देते थे।

२६.
वे शत्रुसूदन वीर अपने विपक्षी को मार डालने की इच्छा से एक-दूसरे की दुर्बलता ढूँढ़ रहे थे; परंतु उस युद्ध में बल-विक्रम सम्पन्न वाली बढ़ने लगा और महापराक्रमी सूर्यपुत्र सुग्रीव की शक्ति क्षीण होने लगी।

२७.
वाली ने सुग्रीव का घमण्ड चूर्ण कर दिया। उनका पराक्रम मन्द पड़ने लगा। तब वाली के प्रति अमर्ष में भरे हुए सुग्रीव ने श्रीरामचन्द्रजी को अपनी अवस्था का लक्ष्य कराया॥ ।।

२८ से २९.
इस के बाद डालियों सहित वृक्षों, पर्वत के शिखरों, वज्र के समान भयंकर नखों, मुक्कों, घुटनों, लातों और हाथों की मार से उन दोनों में इन्द्र और वृत्रासुर की भाँति भयंकर संग्राम होने लगा॥ ।।

३०.
वे दोनों वनचारी वानर लहूलुहान हो कर लड़ रहे थे और दो बादलों की तरह अत्यन्त भयंकर गर्जना करते हुए एक-दूसरे को डाँट रहे थे॥ ।।

श्लोक ३१ से ३९ ।।

३१.
श्री रघुनाथजी ने देखा, वानरराज सुग्रीव कमजोर पड़ रहे हैं और बारंबार इधर-उधर दृष्टि दौड़ा रहे हैं॥ ।।

३२.
वानरराज को पीड़ित देख महातेजस्वी श्रीराम ने वाली के वध की इच्छा से अपने बाण पर दृष्टिपात किया।

३३.
उन्हों ने अपने धनुष पर विषधर सर्प के समान भयंकर बाण रखा और उसे जोर से खींचा, मानो यमराज ने काल चक्र उठा लिया हो॥ ।।

३४.
उस की प्रत्यञ्चा की टंकार ध्वनि से भयभीत हो बड़े-बड़े पक्षी और मृग भाग खड़े हुए। वे प्रलय काल के समय मोहित हुए जीवों के समान किंकर्तव्य विमूढ़ हो गये॥ ।।

३५.
श्री रघुनाथजी ने वज्र की भाँति गड़गड़ाहट और प्रज्वलित अशनि की भाँति प्रकाश पैदा करने वाला वह महान् बाण छोड़ दिया तथा उस के द्वारा वाली के वक्षः स्थल पर चोट पहुँचायी॥

३६.
उस बाण से वेग पूर्वक आहत हो महातेजस्वी पराक्रमी वानरराज वाली तत्काल पृथ्वी पर गिर पड़ा॥ ।।

३७.
आश्विन की पूर्णिमा के दिन इन्द्रध्वजोत्सव के अन्त में ऊपर फेंका गया इन्द्रध्वज जैसे पृथ्वी पर गिर पड़ता है , उसी प्रकार वाली ग्रीष्मऋतु के अन्त में श्रीहीन , अचेत और आँसुओं से गद्गदकण्ठ हो धराशायी हो गया और धीरे - धीरे आर्तनाद करने लगा॥ ।।

३८.
श्रीराम का वह उत्तम बाण युगान्त काल के समान भयंकर तथा सोने – चाँदी से विभूषित था। पूर्वकाल में महादेव जी ने जैसे अपने मुख से ( मुख – मण्डल के अन्तर्गत ललाटवर्ती नेत्र से ) शत्रुभूत कामदेव का नाश करने के लिये धूमयुक्त अग्नि की सृष्टि की थी , उसी प्रकार पुरुषोत्तम श्रीराम ने सुग्रीव के शत्रु वाली का मर्दन करने के लिये उस प्रज्वलित बाण को छोड़ा था॥ ।।

३९.
इन्द्रकुमार वाली के शरीर से पानी के समान रक्त की धारा बहने लगी। वह उस से नहा गया और अचेत हो वायु के उखाड़े हुए पुष्पित अशोकवृक्ष एवम् आकाश से नीचे गिरे हुए इन्द्रध्वज के समान समराङ्गण में पृथ्वी पर गिर पड़ा॥ ।।

इस प्रकार श्रीवाल्मीकि द्वारा निर्मित आर्षरामायण आदिकाव्य के किष्किन्धाकाण्ड में सोलहवाँ सर्ग पूरा हुआ। ।।

Sarg 16 - Kishkindha Kaand - Valmiki Ramayana Translated in Hindi and made Screen Readable for Blind and Visually Impaired Individuals by Dr T K Bansal, The Blind Scientist.