19. Valmiki Ramayana - Yudhh Kaand - Sarg 19
ओम् श्री गणेशाय नमः ।।
ओम् श्रीसीतारामचन्द्राभ्यां नमः ।।
श्रीमद्वाल्मीकीय रामायण – युद्ध काण्ड ।।
उन्नीसवाँ सर्ग – ४१ श्लोक ।।
सारांश ।।
विभीषण का आकाश से उतर कर भगवान् श्रीराम के चरणों की शरण लेना, उनके पूछने पर रावण की शक्ति का परिचय देना और श्रीराम का रावण वध की प्रतिज्ञा करके विभीषण को लङ्का के राज्य पर अभिषिक्त कर उनकी सम्मति से समुद्र तट पर धरना देने के लिये बैठना ।।
आरम्भ ।।
श्लोक १ से १० ।।
१.
इस प्रकार श्री रघुनाथजी के अभय देने पर विनयशील महाबुद्धिमान् विभीषण ने नीचे उतरने के लिये पृथ्वी की ओर देखा ।।
२.
वे अपने भक्त सेवकों के साथ हर्ष से भर कर आकाश से पृथ्वी पर उतर आये। उतर कर चारों राक्षसों के साथ धर्मात्मा विभीषण श्रीरामचन्द्रजी के चरणों में गिर पडे ।।
३.
उस समय विभीषण ने श्रीराम से धर्मानुकूल, युक्तियुक्त, समयोचित और हर्षवर्द्धक बात कही– ।।
४.
“भगवन्! मैं रावण का छोटा भाई हूँ। रावण ने मेरा अपमान किया है। आप समस्त प्राणियों को शरण देनेवाले हैं, इसलिये मैंने आप की शरण ली है” ।।
५.
“अपने सभी मित्र, धन और लङ्कापुरी को मैं छोड़ आया हूँ। अब मेरा राज्य, जीवन और सुख सब आप के ही अधीन है” ।।
६.
विभीषण के ये वचन सुन कर श्रीराम ने मधुर वाणी द्वारा उन्हें सान्त्वना दी और नेत्रों से मानो उन्हें पी जायँगे, इस प्रकार प्रेमपूर्वक उनकी ओर देखते हुए कहा – ।।
७ से ८.
“विभीषण! तुम मुझे ठीक - ठीक राक्षसों का बलाबल बताओ।”, अनायास ही महान् कर्म करने वाले श्रीराम के ऐसा कहने पर राक्षस विभीषण ने रावण के सम्पूर्ण बल का परिचय देना आरम्भ किया – ।।
९.
“राजकुमार! ब्रह्माजी के वरदान के प्रभाव से दशमुख रावण ( केवल मनुष्य को छोड़ कर ) गन्धर्व , नाग और पक्षी आदि सभी प्राणियों के लिये अवध्य है” ।।
१०.
“रावण से छोटा और मुझ से बड़ा जो मेरा भाइ कुम्भकर्ण है, वह महातेजस्वी और पराक्रमी है। युद्ध में वह इन्द्र के समान बलशाली है” ।।
श्लोक ११ से २० ।।
११.
“श्रीराम! रावण के सेनापति का नाम प्रहस्त है। शायद आपने भी उसका नाम सुना होगा। उसने कैलास पर घटित हुए युद्ध में कुबेर के सेनापति मणिभद्र को भी पराजित कर दिया था” ।।
१२.
“रावण का पुत्र जो इन्द्रजित् है, वह गोह के चमड़े के बने हुए दस्ताने पहन कर अवध्य कवच धारण कर के हाथ में धनुष ले जब युद्ध में खड़ा होता है, उस समय अदृश्य हो जाता है” ।।
१३.
“रघुनन्दन! श्रीमान् इन्द्रजित ने अग्निदेव को तृप्त कर के ऐसी शक्ति प्राप्त कर ली है कि वह विशाल व्यूह से युक्त संग्राम में अदृश्य हो कर शत्रुओं पर प्रहार करता है” ।।
१४.
“महोदर, महापार्श्व और अकम्पन – ये तीनों राक्षस रावण के सेनापति हैं और युद्ध में लोकपालों के समान पराक्रम प्रकट करते हैं” ।।
१५ से १६.
“लङ्का में रक्त और मांस का भोजन करने वाले और इच्छानुसार रूप धारण करने में समर्थ जो दस कोटि सहस्र (एक खरब) राक्षस निवास करते हैं, उन्हें साथ ले कर राजा रावण ने लोकपालों से युद्ध किया था। उस समय देवताओं सहित वे सब लोकपाल दुरात्मा रावण से पराजित हो भाग खड़े हुए थे” ।।
१७.
विभीषण की यह बात सुन कर रघुकुलतिलक श्रीराम ने मन ही मन उस सब पर बारंबार विचार किया और इस प्रकार कहा- ।।
१८.
“विभीषण! तुम ने रावण के युद्धविषयक जिनजिन पराक्रमों का वर्णन किया है , उन्हें मैं अच्छी तरह जानता हूँ” ।।
१९.
“परंतु सुनो! मैं सच कहता हूँ कि प्रहस्त और पुत्रों के सहित रावण का वध कर के मैं तुम्हें लङ्का का राजा बनाऊँ गा” ।।
२०.
“रावण रसातल या पाताल में प्रवेश कर जाय अथवा पितामह ब्रह्माजी के पास चला जाय, तो भी वह अब मेरे हाथ से जीवित नहीं छूट सकेगा” ।।
श्लोक २१ से ३० ।।
२१.
“मैं अपने तीनों भाइयों की सौगन्ध खा कर कहता हूँ कि युद्ध में पुत्र, भृत्यजन और बन्धु- बान्धवों सहित रावण का वध किये बिना मैं अयोध्यापुरी में प्रवेश नहीं करूँगा” ।।
२२.
अनायास ही महान् कर्म करनेवाले श्रीरामचन्द्रजी के ये वचन सुन कर धर्मात्मा विभीषण ने मस्तक झुका कर उन्हें प्रणाम किया और फिर इस प्रकार कहना आरम्भ किया— ।।
२३.
“प्रभो! राक्षसों के संहार में और लङ्कापुरी पर आक्रमण कर के उसे जीतने में मैं आप की यथाशक्ति सहायता करूँगा तथा प्राणों की बाजी लगा कर युद्ध के लिये रावण की सेना में भी प्रवेश करूँगा” ।।
२४ से २५.
विभीषण के ऐसा कहने पर भगवान् श्रीराम ने उन्हें हृदय से लगा लिया और प्रसन्न हो कर लक्ष्मण से कहा— “ दूसरों को मान देनेवाले सुमित्रानन्दन ! तुम समुद्र से जल ले आओ और उस के द्वारा इन परम बुद्धिमान् राक्षसराज विभीषण का लङ्का के राज्य पर शीघ्र ही अभिषेक कर दो। मेरे प्रसन्न होने पर इन्हें यह लाभ तो मिलना ही चाहिये” ।।
२६.
उन के ऐसा कहने पर सुमित्राकुमार लक्ष्मण ने मुख्य - मुख्य वानरों के बीच महाराज श्रीराम के आदेश से विभीषण का राक्षसों के राजा के पद पर अभिषेक कर दिया ।।
२७.
भगवान् श्रीराम का यह तात्कालिक प्रसाद ( अनुग्रह ) देख कर सब वानर हर्षध्वनि करने और महात्मा श्रीराम को साधुवाद देने लगे ।।
२८.
तत्पश्चात् हनुमान् और सुग्रीव ने विभीषण से पूछा – “राक्षसराज ! हम सब लोग इस अक्षोभ्य समुद्र को महाबली वानरों की सेनाओं के साथ किस प्रकार पार कर सकेंगे?”
२९.
“जिस उपाय से हम सब लोग सेना सहित नदों और नदियों के स्वामी वरुणालय समुद्र के पार जा सकें, वह बताओ” ।।
३०.
उन के इस प्रकार पूछने पर धर्मात्मा विभीषण ने यों उत्तर दिया- “रघुवंशी राजा श्रीराम को समुद्र की शरण लेनी चाहिये” ।।
श्लोक ३१ से ४१ ।।
३१.
“इस अपार महासागर को राजा सगर ने खुदवाया था। श्रीरामचन्द्रजी सगर के वंशज हैं। इसलिये समुद्र को इन का काम अवश्य करना चाहिये” ।।
३२.
विद्वान् राक्षस विभीषण के ऐसा कहने पर सुग्रीव उस स्थान पर आये, जहाँ लक्ष्मण सहित श्रीराम विद्यमान थे ।।
३३.
वहाँ विशाल ग्रीवावाले सुग्रीव ने समुद्र पर धरना देने के विषय में जो विभीषण का शुभ वचन था, उसे कहना आरम्भ किया ।।
३४.
भगवान् श्रीराम स्वभाव से ही धर्मशील थे, अतः उन्हें भी विभीषण की यह बात अच्छी लगी। वे महातेजस्वी रघुनाथजी लक्ष्मण सहित कार्यदक्ष वानरराज सुग्रीव का सत्कार करते हुए उन से मुसकरा कर बोले— ।।
३५ से ३६.
“लक्ष्मण! विभीषण की यह सम्मति मुझे भी अच्छी लगती है; परंतु सुग्रीव राजनीति के बड़े पण्डित हैं और तुम भी समयोचित सलाह देने में सदा ही कुशल हो। इसलिये तुम दोनों प्रस्तुत कार्य पर अच्छी तरह विचार कर के जो ठीक जान पड़े, वह बताओ “ ।।
३७.
भगवान् श्रीराम के ऐसा कहने पर वे दोनों वीर सुग्रीव और लक्ष्मण उन से आदरपूर्वक बोले - ।।
३८.
“पुरुषसिंह रघुनन्दन! इस समय विभीषण ने जो सुखदायक बात कही है , वह हम दोनों को क्यों नहीं अच्छी लगेगी?” ।।
३९.
“इस भयंकर समुद्र में पुल बांधे बिना इन्द्र सहित देवता और असुर भी इधर से लङ्कापुरी में नहीं पहुँच सकते” ।।
४०.
“इसलिये आप शूरवीर विभीषण के यथार्थ वचन के अनुसार ही कार्य करें। अब अधिक विलम्ब करना ठीक नहीं है। इस समुद्र से यह अनुरोध किया जाय कि वह हमारी सहायता करे, जिस से हम सेना के साथ रावण पालित लङ्कापुरी में पहुँच सकें “।।
४१.
उन दोनों के ऐसा कहने पर श्रीरामचन्द्रजी उस समय समुद्र के तट पर कुशा बिछा कर उस के ऊपर उसी तरह बैठे, जैसे वेदीपर अग्निदेव प्रतिष्ठित होते हैं ।।
इस प्रकार श्रीवाल्मीकि द्वारा निर्मित आर्षरामायण आदिकाव्य के युद्धकाण्ड में उन्नीसवाँ सर्ग पूरा हुआ ।।
Sarg 19 - Yuddh Kaand - Valmiki Ramayana Translated in Hindi and made Screen Readable for Blind and Visually Impaired Individuals by Dr T K Bansal, The Blind Scientist.
