20. Valmiki Ramayana - Yudhh Kaand - Sarg 20
ओम् श्री गणेशाय नमः ।।
ओम् श्रीसीतारामचन्द्राभ्यां नमः ।।
श्रीमद्वाल्मीकीय रामायण – युद्ध काण्ड ।।
बीसवाँ सर्ग – ३४ श्लोक ।।
सारांश ।।
शार्दूल के कहने से रावण का शुक को दूत बना कर सुग्रीव के पास संदेश भेजना, वहाँ वानरों द्वारा उस की दुर्दशा, श्रीराम की कृपा से उस का संकट से छूटना और सुग्रीव का रावण के लिये उत्तर देना ।।
आरम्भ ।।
श्लोक १ से १० ।।
१ से २.
इसी बीच में दुरात्मा राक्षसराज रावण के गुप्तचर पराक्रमी राक्षस शार्दूल ने वहाँ आ कर सागर – तट पर छावनी डाले पड़ी हुई सुग्रीव द्वारा सुरक्षित वानरी सेना को देखा। सब ओर शान्तभाव से स्थित हुई उस विशाल सेना को देख कर वह राक्षस लौट गया और जल्दी से लङ्कापुरी में जा कर राजा रावण से यों बोला- ।।
३.
“महाराज! लङ्का की ओर वानरों और भालुओं का एक प्रवाह - सा बढ़ा चला आ रहा है। वह दूसरे समुद्र के समान अगाध और असीम है” ।।
४.
“राजा दशरथ के ये पुत्र दोनों भाई श्रीराम और लक्ष्मण बड़े ही रूपवान् और श्रेष्ठ वीर हैं। वे सीता का उद्धार करने के लिये आ रहे हैं” ।।
५ से ६.
“महातेजस्वी महाराज! ये दोनों रघुवंशी बन्धु भी इस समय समुद्र – तट पर ही आ कर ठहरे हुए हैं। वानरों की वह सेना सब ओर से दस योजन तक के खाली स्थान को घेर कर वहाँ ठहरी हुई है। यह बिलकुल ठीक बात है। आप शीघ्र ही इस विषय में विशेष जानकारी प्राप्त करें” ।।
७.
“राक्षससम्राट्! आप के दूत शीघ्र सारी बातों का पता लगा लेने के योग्य हैं, अतः उन्हें भेजें। तत्पश्चात्, जैसा उचित समझें , वैसा करें – चाहे उन्हें सीता को लौटा दें, चाहे सुग्रीव से मीठी - मीठी बातें कर के उन्हें अपने पक्ष में मिला लें अथवा सुग्रीव और श्रीराम में फूट डलवा दें” ।।
८.
शार्दूल की बात सुन कर राक्षसराज रावण सहसा व्यग्र हो उठा और अपने कर्तव्य का निश्चय कर के अर्थवेत्ताओं में श्रेष्ठ शुक नामक राक्षस से यह उत्तम वचन बोला- ।।
९.
“दूत! तुम मेरे कहने से शीघ्र ही वानरराज सुग्रीव के पास जाओ और मधुर एवम् उत्तम वाणी द्वारा निर्भीकता पूर्वक उन से मेरा यह संदेश कहो –“ ।।
१०.
“वानरराज! आप वानरों के महाराज के कुल में उत्पन्न हुए हैं। आदरणीय ऋक्षरजा के पुत्र हैं और स्वयम् भी बड़े बलवान् हैं। मैं आप को अपने भाइ के समान समझता हूँ। यदि मुझ से आप का कोई लाभ नहीं हुआ है तो मेरे द्वारा आप की कोइ हानि भी तो नहीं हुइ है” ।।
श्लोक ११ से २० ।।
११.
“सुग्रीव! यदि मैं बुद्धिमान् राजपुत्र राम की स्त्री को हर लाया हूँ तो इस में आप की क्या हानि है? अतः आप किष्किन्धा को लौट जाइये” ।।
१२.
“हमारी इस लंका में वानरलोग किसी तरह भी नहीं पहुँच सकते। यहाँ देवताओं और गन्धर्वों का भी प्रवेश होना असम्भव है; फिर मनुष्यों और वानरों की तो बात ही क्या है?” ।।
१३.
राक्षसराज रावण के इस प्रकार संदेश देने पर उस समय निशाचर शुक तोता नामक पक्षी का रूप धारण कर के तुरंत आकाश में उड़ चला ।।
१४.
समुद्र के ऊपर-ही-ऊपर बहुत दूर का रास्ता तय कर के वह सुग्रीव के पास जा पहुँचा और आकाश में ही ठहर कर उस ने दुरात्मा रावण की आज्ञा के अनुसार वे सारी बातें सुग्रीव से कहीं ।।
१५.
जिस समय वह संदेश सुना रहा था, उसी समय वानर उछल कर तुरंत उस के पास जा पहुँचे। वे चाहते थे कि हम शीघ्र ही इस की पाँखें नोच लें और इसे घूसों से ही मार डालें ।।
१६.
इस निश्चय के साथ सारे वानरों ने उस निशाचर को बल पूर्वक पकड़ लिया और उसे कैद कर के तुरंत आकाश से भूतल पर उतारा ।।
१७ से १८.
इस प्रकार वानरों के पीड़ा देने पर शुक पुकार उठा- “रघुनन्दन! राजालोग दूतों का वध नहीं करते हैं, अतः आप इन वानरों को भलीभाँति रोकिये। जो स्वामी के अभिप्राय को छोड़ कर अपना मत प्रकट करने लगता है, वह दूत बिना कही हुई बात कहने का अपराधी है; अतः वही वध के योग्य होता है” ।।
१९.
शुक के वचन और विलाप को सुन कर भगवान् श्रीराम ने उसे पीटने वाले प्रमुख वानरों को पुकार कर कहा- “इसे मत मारो” ।।
२०.
उस समय तक शुक के पंखों का भार कुछ हलका हो गया था; (क्योंकि वानरों ने उन्हें नोंच डाला था) फिर उन के अभय देने पर शुक आकाश में खड़ा हो गया और पुनः बोला- ।।
श्लोक २१ से ३० ।।
२१.
“महान् बल और पराक्रम से युक्त शक्तिशाली सुग्रीव! समस्त लोकों को रुलाने वाले रावण को मुझे आप की ओर से क्या उत्तर देना चाहिये” ।।
२२.
शुक के इस प्रकार पूछने पर उस समय कपिशिरोमणि महाबली उदारचेता वानरराज सुग्रीव ने उस निशाचर के दूत से यह स्पष्ट एवम् निश्छल बात कही- ।।
२३.
“(दूत! तुम रावण से इस प्रकार कहना-)वध के योग्य दशानन! तुम न तो मेरे मित्र हो, न दया के पात्र हो, न मेरे उपकारी हो और न मेरे प्रिय व्यक्तियों में से ही कोई हो। भगवान् श्रीराम के शत्रु हो, इस कारण अपने सगे-सम्बन्धियों सहित तुम वाली की भाँति ही मेरे लिये वध्य हो” ।।
२४.
“निशाचरराज! मैं पुत्र, बन्धु और कुटुम्बीजनों-सहित तुम्हारा संहार करूँगा और बड़ी भारी सेना के साथ आ कर समस्त लंकापुरी को भस्म कर डालूँगा” ।।
२५.
“मूर्ख रावण! यदि इन्द्र आदि समस्त देवता तुम्हारी रक्षा करें तो भी श्री रघुनाथजी के हाथ से अब तुम जीवित नहीं छूट सकोगे। तुम अन्तर्ध्यान हो जाओ, आकाश में चले जाओ, पाताल में घुस जाओ अथवा महादेवजी के चरणारविन्दों का आश्रय लो; फिर भी अपने भाइयों सहित तुम अवश्य श्रीरामचन्द्रजी के हाथों से मारे जाओगे” ।।
२६.
“तीनों लोकों में मुझे कोई भी पिशाच, राक्षस, गन्धर्व या असुर ऐसा नहीं दिखायी देता, जो तुम्हारी रक्षा कर सके” ।।
२७.
“चिरकाल के बूढ़े गृध्रराज जटायु को तुम ने क्यों मारा? यदि तुम में बड़ा बल था तो श्रीराम और लक्ष्मण के पास से तुम ने विशाललोचना सीता का अपहरण क्यों नहीं किया? तुम सीताजी को ले जा कर अपने सिर पर आयी हुइ विपत्ति को क्यों नहीं समझ रहे हो?” ।।
२८.
“रघुकुलतिलक श्रीराम महाबली, महात्मा और देवताओं के लिये भी दुर्जय हैं, किंतु तुम उन्हें अभी तक समझ नहीं सके। (तुम ने छिप कर सीता का हरण किया है, परंतु) वे (सामने आ कर) तुम्हारे प्राणों का अपहरण करेंगे” ।।
२९ से ३०.
तत्पश्चात् वानरशिरोमणि वालिकुमार अङ्गद ने कहा- “महाराज! मुझे तो यह दूत नहीं, कोई गुप्तचर प्रतीत होता है। इस ने यहाँ खड़े-खड़े आप की सारी सेना का माप-तौल कर लिया है-पूरा-पूरा अंदाजा लगा लिया है। अतः इसे पकड़ लिया जाय, लंका को न जाने पाये। मुझे यही ठीक जान पड़ता है” ।।
श्लोक ३१ से ३४ ।।
३१.
फिर तो राजा सुग्रीव के आदेश से वानरों ने उछल कर उसे पकड़ लिया और बांध दिया। वह बेचारा अनाथ की भांति विलाप करता रहा ।।
३२ से ३३.
उन प्रचण्ड वानरों से पीड़ित हो शुक ने दशरथनन्दन महात्मा श्रीराम को बड़े जोर से पुकारा और कहा- “प्रभो! बल पूर्वक मेरी पाँखें नोची और आँखें फोड़ी जा रही हैं। यदि आज मैंने प्राणों का त्याग किया तो जिस रात में मेरा जन्म हुआ था और जिस रात को मैं मरूँ गा, जन्म और मरण के इस मध्यवर्ती काल में, मैंने जो भी पाप किया है, वह सब आप को ही लगे गा” ।।
३४.
उस समय उस का वह विलाप सुन कर श्रीराम ने उस का वध नहीं होने दिया। उन्हों ने वानरों से कहा- “छोड़ दो। यह दूत हो कर ही आया था” ।।
इस प्रकार श्रीवाल्मीकि द्वारा निर्मित आर्षरामायण आदिकाव्य के युद्धकाण्ड में बीसवाँ सर्ग पूरा हुआ ।।
Sarg 20 - Yuddh Kaand - Valmiki Ramayana Translated in Hindi and made Screen Readable for Blind and Visually Impaired Individuals by Dr T K Bansal, The Blind Scientist.
