04. Valmiki Ramayana - Sundar Kaand - Sarg 04
ओम् श्री गणेशाय नमः ।।
ओम् श्रीसीतारामचन्द्राभ्याम् नमः ।।
श्रीमद्वाल्मीकीय रामायण – सुन्दरकाण्ड ।।
चौथा सर्ग ।। ३० श्लोक
सारांश ।।
हनुमान्जी का लंकापुरी एवम् रावण के अन्तःपुर में प्रवेश ।।
आरम्भ ।।
श्लोक १ से १०
१ से २.
इच्छानुसार रूप धारण करनेवाली श्रेष्ठ राक्षसी लंका को अपने पराक्रम से परास्त करके महातेजस्वी महाबली महान् सत्त्वशाली वानरशिरोमणि कपिकुञ्जर हनुमान् बिना दरवाजे के ही रात में चारदीवारी फांद गये और लंका के भीतर घुस गये ।।
३.
कपिराज सुग्रीव का हित करनेवाले हनुमान्जी ने इस तरह लंकापुरी में प्रवेश करके मानो शत्रुओं के सिर पर अपना बायाँ पैर रख दिया हो ।।
४.
सत्त्वगुण से सम्पन्न पवनपुत्र हनुमान् उस रात में परकोटे के भीतर प्रवेश करके बिखेरे गये फूलों से सुशोभित राजमार्ग का आश्रय ले उस रमणीय लंका पुरी की ओर चले ।।
५ से ६.
जैसे आकाश श्वेत बादलों से सुशोभित होता है, उसी प्रकार वह रमणीय पुरी अपने मेघसदृश गृहों से उत्तम शोभा पा रही थी । वे गृह अट्टहासजनित उत्कृष्ट शब्दों तथा वाद्यघोषों से मुखरित थे। उनमें वज्रों तथा अंकुशों के चित्र अङ्कित थे और हीरों के बने हुए झरोखे उनकी शोभा बढ़ा रहे थे ।।
७.
उस समय लंका श्वेत बादलों के समान सुन्दर एवं विचित्र राक्षस गृहों से प्रकाशित हो रही थी। उन गृहों में से कोई तो कमल के आकार में बने हुए थे। कोई स्वस्तिक चिह्न के आकार से युक्त थे और किन्हीं का निर्माण वर्धमान संज्ञकर गृहों के रूप में हुआ था । वे सभी सब ओर से सजाये गये थे ।।
८.
वानर राज सुग्रीव का हित करनेवाले श्रीमान् हनुमान् श्री रघुनाथजी की कार्यसिद्धि के लिये विचित्र पुष्पमय आभरणों से अलंकृत लंका में विचरने लगे । उन्होंने उस पुरी को अच्छी तरह देखा और देखकर प्रसन्नता का अनुभव किया ।।
९ से १०.
उन कपिश्रेष्ठ ने जहां तहां एक घर से दूसरे घर पर जाते हुए विविध आकार प्रकारके भवन देखे तथा हृदय, कण्ठ और मूर्धा, इन तीन स्थानों से निकलने वाले मन्द, मध्यम और उच्च स्वरसे विभूषित मनोहर गीत सुने ।।
श्लोक ११ से २०
११.
उन्होंने स्वर्ग में रहने वाली अप्सराओं के समान सुन्दर तथा कामवेदनासे पीड़ित कामिनियोंकी करधनी और पायजेबों की झनकार सुनी ।।
१२.
इसी तरह जहां तहां महा मनस्वी राक्षसों के घरों में सीढ़ियों पर चढ़ते समय स्त्रियों की काञ्ची और मंजीर की मधुर ध्वनि तथा पुरुषों के ताल ठोकने और गर्जने की भी आवाजें उन्हें सुनायी दीं ।।
१३.
राक्षसों के घरों में बहुतों को तो उन्होंने वहां मन्त्र जपते हुए सुना और कितने ही निशाचरों को स्वाध्याय में तत्पर देखा ।।
१४.
कई राक्षसों को उन्होंने रावण की स्तुति के साथ गर्जना करते और निशाचरों की एक बड़ी भीड़ को राजमार्ग रोक कर खड़ी हुई देखा ।।
१५ से १६.
नगर के मध्य भाग में उन्हें रावण के बहुत से गुप्तचर दिखायी दिये। उनमें कोई योग की दीक्षा लिये हुए, कोई जटा बढ़ाये, कोई मूड़ मुँड़ाये, कोई गोचर्म या मृगचर्म धारण किये और कोई नंग धड़ंग थे। कोई मुट्ठीभर कुशों को ही अस्त्र रूपसे धारण किये हुए थे। किन्हीं का अग्निकुण्ड ही आयुध था। किन्हीं के हाथ में कूट या मुद्गर था। कोई डंडे को ही हथियार रूप में लिये हुए थे ।
१७.
किन्हीं की एक ही आंख थी तो किन्हीं के रुप बहुरंगे थे। कितनों के पेट और स्तन बहुत बड़े थे। कोई बड़े विकराल थे। किन्हीं के मुँह टेढ़े मेढ़े थे। कोई विकट थे तो कोई बौने ।।
१८.
किन्हीं के पास धनुष, खड्ग, शतघ्नी और मूसलरूप आयुध थे। किन्हीं के हाथों में उत्तम परिघ विद्यमान थे और कोई विचित्र कव्चों से प्रकाशित हो रहे थे ।।
१९.
कुछ निशाचर न तो अधिक मोटे थे, न अधिक दुर्बल, न बहुत लंबे थे न अधिक छोटे, न बहुत गोरे थे न अधिक काले तथा न अधिक कुबड़े थे न विशेष बौने ही थे ।।
२०.
कोई बड़े कुरूप थे, कोई अनेक प्रकार के रुप धारण कर सकते थे, किन्हीं का रूप सुन्दर था, कोइ बड़े तेजस्वी थे तथा किन्हीं के पास ध्वजा, पताका और अनेक प्रकार के अस्त्र शस्त्र थे ।।
श्लोक २१ से ३० ।।
२१.
कोइ शक्ति और वृक्षरूप आयुध धारण किये देखे जा रहे थे तथा किन्हीं के पास पट्टिश, वज्र, गुलेल और पाश थे। महाकपि हनुमानजी ने उन सब को देखा ।।
२२.
किन्हीं के गले में फूलों के हार थे और ललाट आदि अंग चन्दन से चर्चित थे। कोई श्रेष्ठ आभूषणों से सजे हुए थे। कितने ही नाना प्रकार के वेश भूषा से संयुक्त थे और बहुतेरे स्वेच्छानुसार विचरनेवाले जान पड़ते थे ।।
२३.
कितने ही राक्षस तीखे शूल तथा वज्र लिये हुए थे। वे सब के सब महान् बल से सम्पन्न थे। इनके सिवा कपिवर हनुमानजी ने एक लाख रक्षक सेना को राक्षसराज रावण की आज्ञा से सावधान होकर नगर के मध्यभाग की रक्षा में संलग्नरु में देखा। वे सारे सैनिक रावण के अन्तःपुर के अग्रभाग में स्थित थे ।।
२४ से २६.
रक्षक सेना के लिये जो विशाल भवन बना था, उस का फाटक बहुमूल्य सुवर्ण द्वारा निर्मित हुआ था। उस आरक्षा भवन को देखकर महाकपि हनुमान्जी ने राक्षसराज रावण के सुप्रसिद्ध राजमहल पर दृष्टिपात किया, जो त्रिकूट पर्वत के एक शिखर पर प्रतिष्ठित था। वह सब ओर से श्वेत कमलों द्वारा अलंकृत खाइयों से घिरा हुआ था। उस के चारों ओर बहुत ऊँचा परकोटा था, जिसने उस राजभवन को घेर रखा था। वह दिव्य भवन स्वर्गलोक के समान मनोहर था और वहां संगीत आदि के दिव्य शब्द गूंज रहे थे ।।
२७ से २८.
घोड़ों की हिनहिनाहट की आवाजें भी वहां सब ओर फैली हुईं थी। आभूषणों की रुनझुन भी कानों में पड़ती रहती थी। नाना प्रकार के रथ, पालकीआदि सवारी, विमान, सुन्दर हाथी, घोड़े, श्वेत बादलों की घटा के समान दिखायी देने वाले चार दाँतों से युक्त सजे सजाये मतवाले हाथी तथा मदमत्त पशु पक्षियों के संचरण से उस राज महल का द्वार बड़ा सुन्दर दिखायी देता था ।।
२९.
सहस्रों महापराक्रमी निशाचर राक्षसराज के उस महल की रक्षा करते थे। उस गुप्तभवन में भी कपिवर हनुमान्जी जा पहुँचे ।।
३०.
तदनन्तर जिसके चारों ओर सुवर्ण एवम् जाम्बूनद का परकोटा था, जिसका ऊपरी भाग बहुमूल्य मोतीयों और मणियों से विभूषित था तथा अत्यन्त उत्तम काले अगुरु एवं चन्दन से जिसकी अर्चना की जाती थी, रावण के उस अन्तःपुर में हनुमान्जी ने प्रवेश किया ।।
इस प्रकार श्रीवाल्मीकि द्वारा निर्मित आर्षरामायण आदिकाव्य के सुन्दरकाण्ड में चौथा सर्ग पूरा हुआ।
Sarg 04 - Sundar Kaand - Valmiki Ramayana Translated in Hindi and made Screen Readable for Blind and Visually Impaired Individuals by Dr T K Bansal, A Blind Scientist.