03. Valmiki Ramayana - Sundar Kaand - Sarg 03
ओम् श्री गणेशाय नमः ।।
ओम् श्रीसीतारामचन्द्राभ्याम् नमः ।।
श्रीमद्वाल्मीकीय रामायण – सुन्दरकाण्ड ।।
तीसरा सर्ग । ५१ श्लोक
सारांश
लंकापुरी का अवलोकन करके हनुमान्जी का विस्मित होना, उस में प्रवेश करते समय निशाचरी लंका का उन्हें रोकना और उनकी मार से विह्वल होकर उन्हें पुरी में प्रवेश करने की अनुमति देना ।।
आरम्भ ।।
श्लोक १ से १० ।।
१ से २.
ऊँचे शिखर वाले त्रिकूट पर्वत पर जो महान् मेघों की घटा के समान जान पड़ता था, बुद्धिमान् महाशक्तिशाली कपिश्रेष्ठ पवनकुमार हनुमान ने सत्त्व – गुणों का आश्रय ले रात के समय रावण पालित लंकापुरी में प्रवेश किया। वह नगरी सुरम्य वन और जलाशयों से सुशोभित थी ।।
३.
शरत्काल के बादलों की भाँति श्वेत कान्तिवाले सुन्दर भवन उस की शोभा बढ़ा रहे थे। वहाँ समुद्र की गर्जना के समान गम्भीर शब्द होता रहता था। सागर की लहरों को छू कर बहने वाली वायु इस पुरी की सेवा कर रही थी ।।
४.
वह अलकापुरी के समान शक्तिशालिनी सेनाओं से सुरक्षित थी। उस पुरी के सुन्दर फाटकों पर मतवाले हाथी शोभा पा रहे थे। उस पुरी के अन्तर्द्वार और बहिर्द्वार दोनों ही श्वेत कान्ति से सुशोभित थे ।।
५.
उस नगरी की रक्षा के लिये बड़े बड़े सपका संचरण (आना-जाना) होता रहता था। इस लिये वह नागों के द्वारा सुरक्षित सुन्दर भोगवतीपुरी के समान जान पड़ रही थी । अमरावतीपुरी के समान वहाँ आवश्यकता के अनुसार बिजलियोंसहित मेघ छाये रहते थे। ग्रहों और नक्षत्रों के सदृश विद्युत् दीपों के प्रकाश से वह पुरी प्रकाशित थी तथा प्रचण्ड वायु की ध्वनि वहाँ सदा होती रहती थी ।।
६.
सोने के बने हुए विशाल परकोटे से घिरी हुई लंकापुरी क्षुद्र घंटिकाओं की झनकार से युक्त पताकाओं द्वारा अलंकृत हो रही थी ।।
७.
उस पुरी के समीप पहुँच कर हर्ष और उत्साह से भरे हुए हनुमान्जी सहसा उछल कर उस के परकोटे पर चढ़ गये। वहाँ सब ओर से लंकापुरी का अवलोकन कर के हनुमान्जी का चित्त आश्चर्य चकित हो उठा ।।
८ से १०.
सुवर्ण के बने हुए द्वारों से उस नगरी की अपूर्व शोभा हो रही थी। उन सभी द्वारों पर नीलम के चबूतरे बने हुए थे। वे सब द्वार हीरों, स्फटिकों और मोतियों से जड़े गये थे। मणिमयीफशैं उनकी शोभा बढ़ा रही थीं। उन के दोनों ओर तपाये हुए सुवर्ण के बने हुए हाथी शोभा पा रहे थे। उन द्वारों का ऊपरी भाग चांदी से निर्मित होने के कारण स्वच्छ और श्वेत था। उनकी सीढ़ियाँ नीलम की बनी हुइ थीं। उन द्वारों के भीतरी भाग स्फटिक मणि के बने हुए और धूल से रहित थे। वे सभी द्वार रमणीय सभा भवनों से युक्त और सुन्दर थे तथा इतने ऊँचे थे कि आकाश में उठे हुए से जान पड़ते थे ।।
श्लोक ११ से २० ।।
११.
वहां क्रौञ्च और मयूरों के कलरव गूंजते रहते थे, उन द्वारों पर राजहंस नामक पक्षी भी निवास करते थे। वहां भांति भांति के वाद्यों और आभूषणों की मधुर ध्वनि होती रहती थी, जिस से लंकापुरी सब ओर से प्रतिध्वनित हो रही थी ।।
१२.
कुबेर की अलकापुरी के समान शोभा पाने वाली लंका नगरी त्रिकूट के शिखर पर प्रतिष्ठित होने के कारण आकाश में उठी हुई सी प्रतीत हो रही थी। उसे देख कर कपिवर हनुमान को बड़ा हर्ष हुआ ।।
१३.
राक्षसराज की वह सुन्दर पुरी लंका सब से उत्तम और समृद्धि शालिनी थी। उसे देख कर पराक्रमी हनुमान् इस प्रकार सोचने लगे ।।
१४.
“रावण के सैनिक हाथों में अस्त्र शस्त्र लिये इस पुरी की रक्षा करते हैं, अत्ह दूसरा कोई बलपूर्वक इसे अपने नियंत्रण में नहीं कर सकता” ।।
१५ से १६.
“केवल कुमुद, अंगद, महाकपि सुषेण, मैन्द, द्विविद, सूर्यपुत्र सुग्रीव, वानर कुशपर्वा और वानर सेना के प्रमुख वीर ऋक्षराज जाम्बवान्की तथा मेरी भी पहुँच इस पुरी के भीतर हो सकती है” ।।
१७.
फिर महाबाहु श्रीराम और लक्ष्मण के पराक्रम का विचार कर के कपिवर हनुमानजी को बड़ी प्रसन्नता हुइ ।।
१८ से १९.
महाकपि हनुमानजी ने देखा, राक्षसराज रावण की नगरी लंका वस्त्राभूषणों से विभूषित सुन्दर युवती के समान जान पड़ती है। रत्नमय परकोटे ही इस के वस्त्र हैं, गोष्ठ (गोशाला) तथा दूसरे दूसरे भवन आभूषण हैं। परकोटों पर लगे हुए यन्त्रों के जो गृह हैं, ये ही मानो इस लंका रूपी युवती के स्तन हैं। यह सब प्रकार की समृद्धियों से सम्पन्न है। प्रकाशपूर्ण द्वीपों और महान् ग्रहों ने यहाँ का अन्धकार नष्ट कर दिया है ।।
२०.
तदनन्तर वानरश्रेष्ठ महांकपि पवनकुमार हनुमान्जी उस पुरी में प्रवेश करने लगे। इतने में ही उस नगरी की अधिष्ठात्री देवी लंका ने अपने स्वाभाविक रूप में प्रकट होकर उन्हें देखा ।।
श्लोक २१ से ३० ।।
२१.
वानरश्रेष्ठ हनुमानजी को देखते ही रावण पालित लंका स्वयम् ही उठ खड़ी हुई। उसका मुँह देखने में बड़ा विकट था ।।
२२.
वह उन वीर पवन कुमार के सामने खड़ी हो गयी और बड़े जोर से गर्जना करती हुई उनसे इस प्रकार बोली ।।
२३.
“वनचारी वानर! तू कौन है और किस कार्य से यहाँ आया है? तुम्हारे प्राण जब तक बने हुए हैं, तबतक ही यहाँ आने का जो यथार्थ रहस्य है, उसे ठीक ठीक बता दो” ॥।।
२४.
“वानर! रावण की सेना सब ओर से इस पुरी की रक्षा करती है, अत्ह निश्चय ही तू इस लंका में प्रवेश नहीं कर सकता” ।।
२५ से २६.
तब वीरवर हनुमान् अपने सामने खड़ी हुई लंका से बोले – “क्रूर स्वभाव वाली नारी! तू मुझ से जो कुछ पूछ रही है, उसे मैं ठीक ठीक बता दूंगा; किंतु पहले यह तो बता, कि तू है कौन? तेरी आँखें बड़ी भयंकर हैं। तू इस नगर के द्वार पर खड़ी है। क्या कारण है कि तू इस प्रकार क्रोध करके मुझे डांट रही है” ।।
२७.
नुमान्जी की यह बात सुन कर इच्छानुसार रूप धारण करने वाली लंका कुपित हो उन पवनकुमार से कठोर वाणी में बोली - ।।
२८.
“मैं महामना राक्षसराज रावण की आज्ञा की प्रतीक्षा करनेवाली उन की सेविका हूँ। मुझ पर आक्रमण करना किसी के लिये भी अत्यन्त कठिन है। मैं इस नगरी की रक्षा करती हूँ” ।।
२९.
“मेरी अवहेलना करके इस पुरी में प्रवेश करना किसी के लिये भी सम्भव नहीं है। आज मेरे हाथ से मारा जा कर तू प्राणहीन हो इस पृथ्वी पर शयन करेगा” ।।
३०.
“वानर! मैं स्वयम् ही लंका नगरी हूँ, अतः सब ओर से इसकी रक्षा करती हूँ। यही कारण है कि मैंने तेरे प्रति कठोर वाणी का प्रयोग किया है” ।।
श्लोक ३१ से ४० ।।
३१.
लंका की यह बात सुन कर पवनकुमार कपिश्रेष्ठ हनुमान् उसे जीतने के लिये यन्तशील हो दूसरे पर्वत के समान वहां खड़े हो गये ।।
३२.
लंका को विकराल राक्षसी के रूप में देख कर बुद्धिमान् वानरशिरोमणि शक्तिशाली कपिश्रेष्ठ हनुमान्ने उस से इस प्रकार कहा ।।
३३.
“मैं अट्टालिकाओं, परकोटों और नगरद्वारों सहित इस लंका नगरी को देखूँ गा। इसी प्रयोजन से यहां आया हूँ। इसे देखने के लिये मेरे मन में बड़ा कौतूहल है” ।।
३४.
“इस लंका के जो वन, उपवन, कानन और मुख्य मुख्य भवन हैं, उन्हें देखने के लिये ही यहाँ मेरा आगमन हुआ है” ।।
३५.
हनुमान्जी का यह कथन सुनकर इच्छानुसार रूप धारण करनेवाली लंका पुनः कठोर वाणी में बोली- ॥
३६.
“खोटी बुद्धिवाले नीच वानर! राक्षसेश्वर रावण के द्वारा मेरी रक्षा हो रही है। तू मुझे परास्त किये बिना आज इस पुरी को नहीं देख सकता” ।।
३७.
तब उन वानरशिरोमणि ने उस निशाचरी से कहा- “भद्रे ! इस पुरी को देखकर मैं फिर जैसे आया हूँ, उसी तरह लौट जाऊँ गा” ।।
३८.
यह सुन कर लंका ने बड़ी भयंकर गर्जना करके वानरश्रेष्ठ हनुमानजी को बड़े जोर से एक थप्पड़ मारा ।।
३९.
लंका द्वारा इस प्रकार जोर से पीटे जाने पर उन परम पराक्रमी पवनकुमार कपिश्रेष्ठ हनुमान्ने बड़े जोर से सिंहनाद किया ।।
४०.
फिर उन्हों ने अपने बायें हाथ की अंगुलियों को मोड़ कर मुट्ठी बांध ली और अत्यन्त कुपित हो उस लंका को एक मुक्का जमा दिया ।।
श्लोक ४१ से ५१ ।।
४१.
उसे स्त्री समझ कर हनुमान्जी ने स्वयम् ही अधिक क्रोध नहीं किया। किंतु उस लघु प्रहार से निशाचरी के सारे अंग व्याकुल हो गये। वह सहसा पृथ्वी पर गिर पड़ी। उस समय उस का मुख बड़ा विकराल दिखायी दे रहा था ।।
४२.
अपने ही द्वारा गिरायी गयी उस लंका की ओर देख कर और उसे स्त्री समझ कर तेजस्वी वीर हनुमानजी को उस पर दया आ गयी। उन्हों ने उस पर बड़ी कृपा की। ।।
४३.
उधर अत्यन्त उद्विग्नरु हुई लंका उन वानरवीर हनुमानजी से अभिमानशून्य गद्गद वाणी में इस प्रकार बोली- ।।
४४.
“महाबाहो! प्रसन्न होइये। कपिश्रेष्ठ! मेरी रक्षा कीजिये। सौम्य! महाबली सत्त्वगुणशाली वीर पुरुष शास्त्रकी मर्यादा पर स्थिर रहते हैं (शास्त्र में स्त्री को अवध्य बताया गया है, इसलिये आप मेरे प्राण न लीजिये)” ।।
४५.
“महाबली वीर वानर! मैं स्वयम् लंकापुरी ही हूँ, आप ने अपने पराक्रम से मुझे परास्त कर दिया है” ।।
४६.
“वानरेश्वर! मैं आप से एक सच्ची बात कहती हूँ। आप इसे सुनिये। साक्षात् स्वयम्भू ब्रह्माजी ने मुझे जैसा वरदान दिया था, वह बता रही हूँ” ।।
४७.
“उन्होंने कहा था— “जब कोई वानर तुझे अपने पराक्रम से वशमें कर ले, तब तुझे यह समझ लेना चाहिये कि अब राक्षसों पर बड़ा भारी भय आ पहुँचा है” ।।
४८.
“सौम्य! आपका दर्शन पाकर आज मेरे सामने वही घड़ी आ गयी है। ब्रह्माजी ने जिस सत्य का निश्चय कर दिया है, उस में कोई उलट फेर नहीं हो सकता” ।।
४९.
“अब सीता के कारण दुरात्मा राजा रावण तथा समस्त राक्षसों के विनाश का समय आ पहुँचा है” ।।
५०.
“कपिश्रेष्ठ! अत्ह आप इस रावण पालित पुरी में प्रवेश कीजिये और यहाँ जो जो कार्य करना चाहते हो, उन सबको पूर्ण कर लीजिये” ।।
५१.
“वानरेश्वर! राक्षसराज रावण के द्वारा पालित यह सुन्दर पुरी अभिशाप से नष्टप्राय हो चुकी है। अतः इस में प्रवेश कर के आप स्वेच्छानुसार सुखपूर्वक सर्वत्र सती साध्वी जनकनन्दिनी सीता की खोज कीजिये” ।।
इस प्रकार श्रीवाल्मीकि द्वारा निर्मित आर्षरामायण आदिकाव्य के सुन्दरकाण्ड में तीसरा सर्ग पूरा हुआ ।।
Sarg 03 - Sundar Kaand - Valmiki Ramayana Translated in Hindi and made Screen Readable for Blind and Visually Impaired Individuals by Dr T K Bansal, A Blind Scientist.