01. Valmiki Ramayana - Sundar Kaand - Sarg 01
ओम् श्री गणेशाय नमः ।।
ओम् श्रीसीतारामचन्द्राभ्याम् नमः ।।
श्रीमद्वाल्मीकीय रामायण – सुन्दरकाण्ड ।।
पहला सर्ग - २१३ श्लोक ।।
सारांश ।।
हनुमान्जी के द्वारा समुद्र का लङ्घन, मैनाक के द्वारा उनका स्वागत, सुरसा पर उनकी विजय तथा सिंहिका का वध करके उनका समुद्र के उस पार पहुँच कर लंका की शोभा देखना ।।
आरम्भ ।।
श्लोक १ से १० ।।
१.
तदनंतर, शत्रुओं का संहार करने वाले हनुमान्जी ने रावण द्वारा हरी गयी सीताजी के निवास स्थान का पता लगाने के लिये उस आकाश मार्ग से जाने का विचार किया, जिसपर चारण (देवजाति विशेष) विचरा करते हैं ।।
२.
कपिवर हनुमान्जी ऐसा कर्म करना चाहते थे, जो दूसरों के लिये दुष्कर था तथा उस कार्य में उन्हें किसी और की सहायता भी नहीं प्राप्त थी। उन्हों ने मस्तक और ग्रीवा ऊँची की। उस समय वे हृष्ट-पुष्ट सांड़ के समान प्रतीत हो रहे थे ।।
३.
फिर धीर स्वभाव वाले वे महाबली पवनकुमार वैदूर्यमणि (नीलम) और समुद्र के जल की भाँति हरी-हरी घास पर सुख पूर्वक विचर्ने लगे ।।
४.
उस समय बुद्धिमान् हनुमान्जी पक्षियों को त्रास देते, वृक्षों को वक्ष स्थल के आघात से धराशायी करते तथा बहुत से मृगों (वन जन्तुओं) को कुचल्ते हुए पराक्रम में बढ़े-चढ़े सिंह के समान शोभा पा रहे थे ।।
५.
उस पर्वत का जो तल प्रदेश था, वह पहाड़ों में स्वभाव से ही उत्पन्न होने वाली नीली, लाल, मजीठ और कमल के से रंग वाली श्वेत तथा श्याम वर्ण वाली निर्मल धातुओं से अच्छी तरह से अलंकृत था ।।
६.
उसपर देवोपम यक्ष, किन्नर, गन्धर्व और नाग, जो इच्छानुसार रूप धारण करने वाले थे, निरन्तर परिवार सहित निवास करते थे ।।
७.
बड़े बड़े गजराजों से भरे हुए उस पर्वत के समतल प्रदेश में खड़े हुए कपिवर हनुमान्जी वहाँ जलाशय में स्थित हुए विशालकाय हाथी के समान जान पड़ते थे ।।
८.
उन्हों ने सूर्य, इन्द्र, पवन, ब्रह्मा और भूतों (देव योनि विशेषों) को भी हाथ जोड़कर उस पार जाने का विचार किया ।।
९.
फिर पूर्वाभिमुख हो कर अपने पिता पवनदेव को प्रणाम किया। तत्पश्चात् कार्य कुशल हनुमान्जी दक्षिण दिशा में जाने के लिये बढ़ने लगे (अपने शरीर को बढ़ाने लगे) ।।
१०.
बड़े बड़े वानरों ने देखा, जैसे पूर्णिमा के दिन समुद्र में ज्वार आने लगता है, उसी प्रकार समुद्र – लङ्घन के लिये दृढ़ निश्चय करने वाले हनुमान्जी श्रीराम के कार्य सिद्धि के लिये बढ़ने लगे ।।
श्लोक ११ से २० ।।
११.
समुद्र को लांघने की इच्छा से उन्होंने अपने शरीर को बेहद बढ़ा लिया और अपनी दोनों भुजाओं तथा चरणों से उस पर्वत को दबाया ।।
१२.
कपिवर हनुमान्जी के द्वारा दबाये जाने पर तुरंत ही वह पर्वत कांप उठा और दो घड़ी तक डगमगाता रहा। उस के ऊपर जो वृक्ष उगे थे, उनकी डालियों के अग्रभाग फूलों से लदे हुए थे; किंतु उस पर्वत के हिलने से उन के वे सारे फूल झड़ गये ।।
१३.
वृक्षों से झड़ी हुई उस सुगन्धित पुष्पराशि के द्वारा सब ओर से आच्छादित हुआ वह पर्वत ऐसा जान पड़ता था, मानो वह फूलों का ही बना हुआ हो ।।
१४.
महापराक्रमी हनुमान्जी के द्वारा दबाया जाता हुआ महेन्द्रपर्वत जल के स्रोत बहाने लगा, मानो कोइ मदमत्त गजराज अपने कुम्भ स्थल से मद की धारा बहा रहा हो ।।
१५.
बलवान् पवनकुमार के भार से दबा हुआ महेन्द्रगिरि सुनहरे, रुपहले और काले रंग के जल स्रोत प्रवाहित करने लगा ।।
१६.
इतना ही नहीं, जैसे मध्यम ज्वाला से युक्त अग्नि लगातार धुआँ छोड़ रही हो, उसी प्रकार वह पर्वत मैनसिल सहित बड़ी-बड़ी शिलाएँ गिराने लगा ।।
१७.
हनुमान्जी के कारण उस पर्वत- पीडन से पीड़ित हो कर वहां के समस्त जीव गुफाओं में घुसे हुए बुरी तरह से चिल्लाने लगे ।।
१८.
इस प्रकार पर्वत को दबाने के कारण उत्पन्न हुआ वह जीव-जन्तुओं का महान् कोलाहल पृथ्वी, उपवन और सम्पूर्ण दिशाओं में भर गया ।।
१९.
जिन में स्वस्तिक चिह्न स्पष्ट दिखायी दे रहे थे, उन स्थूल फणों से विष की भयानक आग उगल्ते हुए बड़े-बड़े सर्प उस पर्वत की शिलाओं को अपने दांतों से डंसने लगे ।।
२०.
क्रोध से भरे हुए उन विषैले सांपों के काटने पर वे बड़ी बड़ी शिलाएँ इस प्रकार जल उठीं, मानो उन में आग लग गयी हो। उस समय उन सब के सहस्रों टुकड़े हो गये ।।
श्लोक २१ से ३० ।।
२१.
उस पर्वत पर जो बहुत-सी औषधियाँ उगी हुई थीं, वे विष को नष्ट करने वाली होने पर भी उन नागों के विष को शान्त ना कर सकीं ।।
२२.
उस समय वहां रहने वाले तपस्वी और विद्याधरों ने समझा कि इस पर्वत को भूत लोग तोड़ रहे हैं, इस से भयभीत हो कर वे अपनी स्त्रियों के साथ वहां से ऊपर उठ्कर अन्तरिक्ष में चले गये ।।
२३ से २५.
मधु पान के स्थान में रखे हुए सुवर्णमय आसव पात्र, बहुमूल्य बर्तन, सोने के कलश, भाँति भाँति के भक्ष्य पदार्थ, चटनी, नाना प्रकार के फलों के गूदे, बैलों की खाल की बनी हुइ ढालें और सुवर्ण जटित मूठ्वाली तलवारें छोड़ कर कण्ठ में माला धारण किये, लाल रंग के फूल और अनुलेपन (चन्दन) लगाये, प्रफुल्ल कमल के सदृश सुन्दर एवम् लाल नेत्र वाले वे मतवाले विद्याधर गण भयभीत से हो कर आकाश में चले गये ।।
२६.
उन की स्त्रियाँ गले में हार, पैरों में नूपुर, भुजाओं में बाजूबंद और कलाइयों में कङ्गन धारण किये हुए आकाश में अपने पतियों के साथ मन्द मन्द मुसकराती हुइ चकित-सी खड़ी हो गयीं ।।
२७.
विद्याधर और महर्षि अपनी महाविद्या, आकाश में निराधार खड़े होने की शक्ति का परिचय देते हुए अन्तरिक्ष में एक साथ खड़े हो गये और उस पर्वत की ओर देखने लगे ।।
२८.
उन्हों ने उस समय निर्मल आकाश में खड़े हुए भावितात्मा (पवित्र अन्तःकरण वाले) महर्षियों, चारणों और सिद्धों की ये बातें सुनीं ।।
२९.
“आहा! ये पर्वत के समान विशालकाय महान् वेगशाली पवनपुत्र हनुमान्जी वरुणालय समुद्र को पार करना चाहते हैं।” ।।
३०.
“श्रीरामचन्द्रजी और वानरों के कार्य की सिद्धि के लिये दुष्कर्म करने की इच्छा रखने वाले पवनकुमार समुद्र के दूसरे तट पर पहुँचना चाहते हैं, जहां जाना अत्यन्त कठिन है।” ।।
श्लोक ३१ से ४० ।।
३१.
इस प्रकार विद्याधरों ने उन तपस्वी महात्माओं की कही हुई ये बातें सुनकर पर्वत के ऊपर अतुलित बलशाली वानर शिरोमणि हनुमान्जी को देखा ।।
३२.
उस समय हनुमान्जी अग्नि के समान जान पड़ते थे। उन्होंने अपने शरीर को हिलाया और रोएं झाड़े तथा महान् मेघः के समान बड़े जोर-जोर से गर्जना की ।।
३३.
हनुमान्जी अब ऊपर को उछल्ना ही चाहते थे। उन्होंने क्रमशः गोलाकार मुड़ी तथा रोमावलियों से भरी हुई अपनी पूंछ को उसी प्रकार आकाश में फेंका, जैसे पक्षिराज गरुड़ सर्प को फेंकते हैं ।।
३४.
अत्यन्त वेगशाली हनुमान्जी के पीछे आकाश में फैली हुई उनकी कुछ कुछ मुड़ी हुई पूंछ गड़ के द्वारा ले जाये जाते हुए महान् सर्प के समान दिखायी देती थी ।।
३५.
उन्होंने अपनी विशाल परिघ के समान भुजाओं को पर्वत पर जमाया। फिर ऊपर के सब अंगों को इस तरह सिकोड़ लिया कि वे कटि की सीमा में ही आ गये; साथ ही उन्होंने दोनों पैरों को भी समेट लिया ।।
३६.
तत्पश्चात्, तेजस्वी और पराक्रमी हनुमान्जी ने अपनी दोनों भुजाओं और गर्दन को भी सिकोड़ लिया। इस समय उन में तेज, बल और पराक्रम सभी का आवेश हुआ ।।
३७.
उन्हों ने अपने लम्बे मार्ग पर दृष्टि दौड़ाने के लिये नेत्रों को ऊपर उठाया और आकाश की ओर देखते हुए प्राणों को हृदय में रोका ।।
३८.
इस प्रकार ऊपर को छलांग मारने की तैयारी करते हुए कपिश्रेष्ठ महाबली हनुमान्ने अपने पैरों को अच्छी तरह जमाया और कानों को सिकोड़ कर उन वानर शिरोमणि ने अन्य वानरों से इस प्रकार कहा – ।।
३९.
“जैसे श्री रामचन्द्रजी का छोड़ा हुआ बाण वायु वेग से चलता है, उसी प्रकार मैं रावण द्वारा पालित लंका पुरी में जाऊंगा।” ।।
४०.
“यदि लंका में जनकनन्दिनी सीताजी को नहीं देखूंगा तो इसी वेग से मैं स्वर्गलोक में चला जाऊंगा।” ।।
श्लोक ४१ से ५० ।।
४१.
“इस प्रकार परिश्रम करने पर यदि मुझे स्वर्ग में भी सीताजी का दर्शन नहीं होगा तो राक्षस राज रावण को बांध कर लाऊंगा।” ।।
४२.
“सर्वथा कृतकृत्य होकर मैं सीताजी के साथ लौटूंगा अथवा रावण सहित लंका पुरी को ही उखाड़ कर लाऊंगा।” ।।
४३ से ४४.
ऐसा कह कर वेगशाली वानरप्रवर श्रीहनुमान्जी ने विघ्न-बाधाओं का कोई विचार ना करके बड़े वेग से ऊपर की ओर छलांग लगाई । उस समय उन वानर शिरोमणि ने अपने को साक्षात् गरुड़ के समान ही समझा ।।
४५.
जिस समय वे कूदे, उस समय उनके वेग से आकृष्ट हो कर पर्वत पर उगे हुए सब वृक्ष उखड़ गये और अपनी सारी डालियों को समेट कर उनके साथ ही सब ओर से वेग पूर्वक उड़ चले ।।
४६.
हनुमान्जी मतवाले कोयष्टि आदि पक्षियों से युक्त, बहुसंख्यक पुष्पशोभित वृक्षों को अपने महान् वेग से ऊपर की ओर खींचते हुए निर्मल आकाश में अग्रसर होने लगे ।।
४७.
उनकी जांघों के महान् वेग से ऊपर को उठे हुए वृक्ष एक समय तक उनके पीछे पीछे इस प्रकार गये, जैसे दूर देश के पथ पर जाने वाले अपने भाइ बन्धुओं को उस के बन्धु बान्धव पहुंचाने जाते हैं ।।
४८.
हनुमान्जी की जांघों के वेग से उखड़े हुए साल तथा दूसरे दूसरे श्रेष्ठ वृक्ष उन के पीछे पीछे उसी प्रकार चले, जैसे राजा के पीछे उसके सैनिक चलते हैं ।।
४९.
जिनकी डालियों के अग्रभाग फूलों से सुशोभित थे, उन बहुतेरे वृक्षों से संयुक्त हुए पर्वताकार हनुमान्जी अद्भुत शोभा से सम्पन्न दिखायी दे रहे थे ।।
५०.
उन वृक्षों में से जो भारी थे, वे थोड़ी ही देर में गिर कर क्षार समुद्र में डूब गये। ठीक उसी तरह, जैसे कितने ही पंखधारी पर्वत देवराज इन्द्र के भय से वरुणालय में निमग्न हो गये थे ।।
श्लोक ५१ से ६० ।।
५१.
मेघ के समान विशालकाय हनुमान्जी अपने साथ खींचकर आये हुए वृक्षों के अंकुर और कोर सहित फूलों से आच्छादित हो जुगनुओं की जगमगाहट से युक्त पर्वत के समान शोभा पा रहे थे ।।
५२.
वे वृक्ष जब हनुमान्जी के वेगसे मुक्त हो जाते (उनके आकर्षण से छूट जाते), तब अपने फूल बरसाते हुए इस प्रकार समुद्र के जल में डूब जाते थे, जैसे सुहृद्वर्ग के लोग परदेश जानेवाले अपने किसी बन्धु को दूर तक पहुंचा कर लौट आते हैं ।।
५३.
हनुमान्जी के शरीर से उठी हुई वायु से प्रेरित हो वृक्षों के भांति भांति के पुष्प अत्यन्त हलके होने के कारण जब समुद्र में गिरते थे, तब डूब्ते नहीं थे। इस लिये उनकी विचित्र शोभा हो रही थी। उन फूलों के कारण वह महासागर तारों से भरे हुए आकाश के समान सुशोभित हो रहा था ।।
५४.
अनेक रंग की सुगन्धित पुष्पराशि से उपलक्षित वानरवीर हनुमानजी आकाशी बिजली से सुशोभित हो कर उठते हुए मेघ के समान जान पड़ते थे ।।
५५.
उनके वेग से झड़े हुए फूलों के कारण समुद्र का जल उगे हुए रमणीय तारों से खचित आकाश के समान दिखायी दे रहा था ।।
५६.
आकाश में फैलायी गयी उनकी दोनों भुजाएँ ऐसी दिखायी देती थीं, मानो किसी पर्वत के शिखर से पांच फन वाले दो सर्प निकले हुए हों ।।
५७.
उस समय महाकपि हनुमान् ऐसे प्रतीत हो रहे थे, मानो तरङ्ग मालाओं सहित महा सागर को पी रहे हों। वे ऐसे दिखायी दे रहे थे, मानो आकाश को भी पी जाना चाहते हों ।।
५८.
वायु के मार्ग का अनुसरण करनेवाले हनुमान्जीके बिजली की सी चमक पैदा करनेवाले दोनों नेत्र ऐसे प्रकाशित हो रहे थे, मानो पर्वतपर दो स्थानों में लगे हुए दावानल दहक रहे हों ।।
५९.
पिंगलने वाले वानरों में श्रेष्ठ हनुमान्जी की दोनों गोल बड़ी बड़ी और पीले रंग की आंखें चन्द्रमा और सूर्य के समान प्रकाशित हो रही थीं ।।
६०.
लाल लाल नासिका के कारण उनका सारा मुंह लाली लिये हुए था, अतः वह संध्याकाल से संयुक्त सूर्यमण्डल के समान सुशोभित हो रहा था ।।
श्लोक ६१ से ७० ।।
६१.
आकाश में तैरते हुए पवनपुत्र हनुमान्की उठी हुई टेढ़ी पूंछ इन्द्र की ऊँची ध्वजा के समान जान पड़ रही थी ।।
६२.
महाबुद्धिमान् पवनपुत्र हनुमान्जी की दाढ़ें सफेद थीं और पूंछ गोलाकार मुड़ी हुई थी। इस लिये वे परिधि से घिरे हुए सूर्यमण्डल के समान जान पड़ते थे ।।
६३.
उन की कमर के नीचे का भाग बहुत लाल था। इस से वे महाकपि हनुमान् फटे हुए गेरु से युक्त विशाल पर्वत के समान शोभा पा रहे थे ।।
६४.
ऊपर ऊपर से समुद्र को पार करते हुए वानरसिंह हनुमानजी की कांख से होकर निकली हुई वायु बादल के समान गरज्ती थी ।।
६५.
जैसे ऊपर की दिशा से प्रकट हुई पुच्छयुक्त उल्का आकाश में जाती देखी जाती है, उसी प्रकार अपनी पूंछ के कारण कपिश्रेष्ठ हनुमान्जी भी दिखायी दे रहे थे ।।
६६.
चलते हुए सूर्य के समान विशालकाय हनुमान्जी अपनी पूंछ के कारण ऐसी शोभा पा रहे थे, मानो कोई बड़ा गजराज अपनी कमर में बंधी हुई रस्सी से सुशोभित हो रहा हो ।।
६७.
हनुमान्जी का शरीर समुद्र के ऊपर ऊपर चल रहा था और उनकी परछाई जल में डूबी हुई-सी दिखायी देती थी। इस प्रकार शरीर और परछाई दोनों से उपलक्षित हुए वे कपिवर हनुमान् समुद्र के जल में पड़ी हुई उस नौका के समान प्रतीत हो रहे थे, जिसका ऊपरी भाग (पाल) वायु परिपूर्ण हो और निम्नभाग समुद्र के जल से लगा हुआ हो ।।
६८.
वे समुद्र के जिस जिस भाग में जाते थे, वहां वहां उन के अंगों के वेग से उत्ताल तरङ्गे उठने लगती थीं। अत्ह वह भाग उन्मत्त (विक्षुब्ध) सा दिखायी देता था ।।
६९.
महान् वेगशाली महाकपि हनुमान्जी पर्वतों के समान ऊँची महासागर की तरङ्गमालाओं को अपनी छाती से चूर चूर करते हुए आगे बढ़ रहे थे ।।
७०.
कपिश्रेठ हनुमान के शरीर से उठी हुई तथा मेघों की घटा में व्याप्त हुई प्रबल वायु ने भीषण गर्जना करने वाले समुद्र में भारी हलचल मचा दी ।।
श्लोक ७१ से ८० ।।
७१.
वे कपिकेसरी अपने प्रचण्ड वेग से समुद्र में बहुत सी ऊंची ऊंची तरङ्गों को आकर्षित करते हुए इस प्रकार उड़े जा रहे थे, मानो पृथ्वी और आकाश दोनों को विक्षुब्ध कर रहे हैं ।।
७२.
वे महान् वेगशाली वानरवीर उस महासमुद्र में उठी हुई सुमेरु और मन्दराचल के समान उत्ताल तरङ्गों की मानो गणना करते हुए आगे बढ़ रहे थे ।।
७३.
उस समय उन के वेग से ऊंचे उठकर मेघमण्डल के साथ आकाश में स्थित हुआ समुद्र का जल शरद काल के फैले हुए मेघों के समान जान पड़ता था ।।
७४.
जल हटजाने के कारण समुद्र के भीतर रहनेवाले मगर, नाकेंरु, मछलियाँ और कछुए साफ साफ दिखायी देते थे। जैसे वस्त्र खींच लेनेपर देहधारियों के शरीर नंगे दिखने लगते हैं ।।
७५.
समुद्र में विचर्ने वाले सर्प आकाश में जाते हुए कपिश्रेष्ठ हनुमान्जी को देखकर उन्हें गरुड़ के ही समान समझने लगे ।।
७६.
कपिकेसरी हनुमान्जी की दस योजन चौड़ी और तीस योजन लम्बी छाया वेग के कारण अत्यन्त रमणीय जान पड़ती थी ।।
७७.
खारे पानी के समुद्र में पड़ी हुई पवनपुत्र हनुमानजी का अनुसरण करने वाली उनकी वह छाया श्वेत बादलों की पंक्ति के समान शोभा पा रही थी ।।
७८.
वे परम तेजस्वी महाकाय महाकपि हनुमान् आलम्बनहीन आकाश में पंखधारी पर्वत के समान जान पड़ते थे ।।
७९.
वे बलवान् कपिश्रेष्ठ जिस मार्ग से वेगपूर्वक निकल जाते थे, उस मार्ग से संयुक्त समुद्र सहसा कठौते या कड़ाह के समान हो जाता था (उनके वेग से उठी हुई वायु के द्वारा वहां का जल हट जाने से वह स्थान कठौते आदि के समान गहरा सा दिखायी पड़ता था) ।।
८०.
पक्षीयों के समूहों के उड़ने के मार्ग में पक्षिराज गरुड़ की भांति जाते हुए हनुमान् वायु के समान मेघमालाओं को अपनी ओर खींच लेते थे ।।
श्लोक ८१ से ९० ।।
८१.
हनुमान्जी के द्वारा खींचे जाते हुए वे श्वेत, अरुण, नील और मजीठ के से रंगवाले बड़े बड़े मेघ वहां बड़ी शोभा पा रहे थे ।।
८२.
वे बारम्बार बादलों के समूह में घुस जाते और बाहर निकल आते थे। इस तरह छिपते और प्रकाशित होते हुए चन्द्रमा के समान दृष्टिगोचर हो रहे थे ।।
८३.
उस समय तीव्र गति से आगे बढ़ते हुए वानरवीर हनुमान्जी को देख कर देवता, गन्धर्व और चारण उन के ऊपर फूलों की वर्षा करने लगे ।।
८४.
वे श्रीरामचन्द्रजी का कार्य सिद्ध करने के लिये जा रहे थे, अत्ह उस समय वेग से जाते हुए वानरराज हनुमानजी को सूर्यदेव ने ताप नहीं पहुंचाया और वायुदेव ने भी उन की सेवा की ।।
८५.
आकाश मार्ग से यात्रा करते हुए वानरवीर हनुमानजी की ऋषि-मुनि स्तुति करने लगे तथा देवता और गन्धर्व उन की प्रशंसा के गीत गाने लगे ।।
८६.
उन कपिश्रेष्ठ को बिना थकावट के सहसा आगे बढ़ते देख, नाग, यक्ष और नाना प्रकार के राक्षस सभी उन की स्तुति करने लगे ।।
८७.
जिस समय कपिकेसरी हनुमान्जी उछल कर समुद्र पार कर रहे थे, उस समय इक्ष्वाकु कुल का सम्मान करने की इच्छा से समुद्र ने विचार किया- ।।
८८.
“यदि मैं वानर राज हनुमान्जी की सहायता नहीं करूंगा तो बोलने की इच्छा वाले सभी लोगों की दृष्टि में मैं सर्वथा निन्दनीय हो जाऊंगा” ।।
८९.
“मुझे इक्ष्वाकु कुल के महाराज सगर ने बढ़ाया था। इस समय ये हनुमान्जी भी इक्ष्वाकुवंशी वीर श्री रघुनाथजी की सहायता कर रहे हैं, अत्ह इन्हें इस यात्रा में किसी प्रकार का कष्ट नहीं होना चाहिये” ।।
९०.
“मुझे ऐसा कोई उपाय करना चाहिये, जिस से वानर वीर यहां कुछ विश्राम कर लें। मेरे आश्रय में विश्राम कर लेने पर मेरे शेष भाग को ये सुगम्ता से पार कर लेंगे” ।।
श्लोक ९१ से १०० ।।
९१.
यह शुभ विचार कर के समुद्र ने अपने जल में छिपे हुए सुवर्णमय गिरिश्रेष्ठ मैनाक से कहा — ।।
९२.
“शैलप्रवर! महामना देवराज इन्द्र ने तुम्हें यहाँ पाताल वासी असुर समूहों के निकलने के मार्ग को रोकने के लिये परिघरूप से स्थापित किया है” ।।
९३.
“इन असुरों का पराक्रम सर्वत्र प्रसिद्ध है। वे फिर पाताल से ऊपर को आना चाहते हैं, अत्ह उन्हें रोकने के लिये तुम अप्रमेय पाताललोक के द्वार को बंद कर के खड़े हो” ।।
९४.
“शैल! ऊपर नीचे और अगल बगल में सब ओर बढ़ने की तुममें शक्ति है। गिरिश्रेष्ठ! इसीलिये मैं तुम्हें आज्ञा देता हूँ कि तुम ऊपर की ओर उठो” ।।
९५.
“देखो, ये पराक्रमी कपिकेसरी हनुमान् तुम्हारे ऊपर से हो कर जा रहे हैं। ये बड़ा भयंकर कर्म करनेवाले हैं, इस समय श्रीराम का कार्य सिद्ध करने के लिये इन्होंने आकाश में छलांग लगाई है” ।।
९६.
“ये इक्ष्वाकुवंशी श्रीराम के सेवक हैं, अतः मुझे इनकी सहायता करनी चाहिये। इक्ष्वाकु वंश के लोग मेरे पूजनीय हैं और तुम्हारे लिये तो वे परम पूजनीय हैं” ।।
९७.
“अत्ह तुम हमारी सहायता करो। जिस से हमारे कर्तव्य कर्म का (हनुमान्जी के सत्कार रूपी कार्य का) अवसर बीत ना जाय। यदि कर्तव्य का पालन नहीं किया जाय तो वह सत्पुरुषों के क्रोध को जगा देता है” ।।
९८.
“इसलिये तुम पानी से ऊपर उठो, जिस से ये छलांग मारने वालों में श्रेष्ठ कपिवर हनुमान् तुम्हारे ऊपर कुछ काल तक ठहरें। वे हमारे पूजनीय अतिथी भी हैं” ।।
९९.
“देवताओं और गन्धर्वो द्वारा सेवित तथा सुवर्णमय विशाल शिखर वाले मैनाक! तुम्हारे ऊपर विश्राम करने के पश्चात् हनुमान्जी शेष मार्ग को सुख पूर्वक तय कर लेंगे” ।।
१००.
“ककुत्स्थ वंशी श्रीरामचन्द्रजी की दयालुता, मिथिलेश कुमारी सीताजी का परदेश में रहने के लिये विवश होना तथा वानर राज हनुमानजी का परिश्रम देखकर तुम्हें अवश्य ऊपर उठना चाहिये” ।।
श्लोक १०१ से ११० ।।
१०१.
यह सुन कर बड़े बड़े वृक्षों और लताओं से लदा हुआ सुवर्णमय मैनाक पर्वत तुरंत ही क्षार समुद्र के जल से ऊपर उठ गया ।।
१०२.
जैसे उद्दीप्त किरणों वाले दिवाकर (सूर्य) मेघों के आवरण को भेद कर उदित होते हैं, उसी प्रकार उस समय महा सागर के जल का भेदन करके वह पर्वत बहुत ऊँचा उठ् गया ।।
१०३.
समुद्र की आज्ञा पाकर जल में छिपे रहने वाले उस विशालकाय पर्वत ने दो ही घड़ी में हनुमानजी को अपने शिखरों का दर्शन कराया ।।
१०४.
उस पर्वत के वे शिखर सुवर्णमय थे। उन पर किन्नर और बड़े बड़े नाग निवास कर रहे थे। सूर्योदय के समान तेज पुञ्ज से विभूषित वे शिखर इतने ऊंचे थे कि आकाश में रेखा सी खींच रहे थे ।।
१०५.
उस पर्वत के उठे हुए सुवर्णमय शिखरों के कारण शस्त्र के समान नील वर्णवाला आकाश सुनहरी प्रभा से उद्भासित होने लगा ।।
१०६.
उन परम कान्तिमान् और तेजस्वी सुवर्णमय शिखरों से वह गिरिश्रेष्ठ मैनाक सैकड़ों सूर्यो के समान देदीप्यमान हो रहा था ।।
१०७.
क्षार समुद्र के बीचमें अविलम्ब उठ कर सामने खड़े हुए मैनाक को देख कर हनुमान्जी ने मन ही मन निश्चिय किया कि यह कोई विघ्न उपस्थित हुआ है ।।
१०८.
अत्ह, वायु जैसे बादल को छिन्न भिन्न कर देती है, उसी प्रकार महान् वेगशाली महा कपि हनुमानजी ने बहुत ऊंचे उठे हुए मैनाक पर्वत के उस उच्चतर शिखर को अपनी छाती के धक्के से नीचे गिरा दिया ।।
१०९.
इस प्रकार कपिवर हनुमान्जी के द्वारा नीचा देखने पर उनके उस महान् वेग का अनुभव कर के पर्वतश्रेष्ठ मैनाक बड़ा प्रसन्न हुआ और गर्जना करने लगा ।।
११०.
तब आकाश में स्थित हुए उस पर्वत ने आकाश गत वीरवानर हनुमान्जी से प्रसन्नचित्त हो कर कहा। वह मनुष्य रूप धारण करके अपने ही शिखर पर स्थित हो इस प्रकार बोला ।।
श्लोक १११ से १२० ।।
१११.
“वानर शिरोमणे! आपने यह अति कठिन कार्य किया है। अब उतर कर मेरे इन शिखरों पर सुख पूर्वक विश्राम कर लीजिये, फिर आगे की यात्रा कीजियेगा” ।।
११२.
“श्री रघुनाथजी के पूर्वजों ने समुद्र की वृद्धि की थी, इस समय आप उनका हित करने में लगे हैं; अत्ह, समुद्र आपका सत्कार करना चाहता है” ।।
११३.
“किसी ने उपकार किया हो तो बदले में उसका भी उपकार किया जाय, यह सनातन धर्म है । इस दृष्टि से प्रत्युपकार करने की इच्छा वाला यह सागर आप से सम्मान पाने के योग्य है (आप इसका सत्कार ग्रहण करें, इतने से ही इसका सम्मान हो जाय गा” ।।
११४ से ११५.
“आपके सत्कार के लिये समुद्र ने बड़े आदर से मुझे नियुक्त किया है और कहा है, “इन कपिवर हनुमान्ने सौ योजन दूर जाने के लिये आकाश में छलांग लगाई है, अत्ह, कुछ देर तक तुम्हारे शिखरों पर ये विश्राम कर लें, फिर शेष भाग का लङ्घन कर लेंगे” ।।
११६.
“अत्ह, कपिश्रेष्ठ! आप कुछ देर तक मेरे ऊपर विश्राम कर लीजिये, फिर जाइयेगा। इस स्थान पर ये बहुत से सुगन्धित और सुस्वादु कन्द, मूल तथा फल हैं। वानर शिरोमणे! इनका आस्वादन कर के थोड़ी देर तक सुस्ता लीजिये। उस के बाद आगे की यात्रा कीजियेगा” ।।
११७.
“कपिवर! आपके साथ हमारा भी कुछ सम्बन्ध है। आप महान् गुणों का संग्रह करने वाले और तीनों लोकों में विख्यात हैं” ।।
११८.
कपिश्रेष्ठ पवन नन्दन! जो वेगशाली और छलांग लगाने वाले वानर हैं, उन सबमें मैं आप को ही श्रेष्ठतम मानता हूँ “ ।।
११९.
“धर्म की जिज्ञासा रखने वाले विज्ञ पुरुष के लिये एक साधारण अतिथि भी निश्चय ही पूजा के योग्य माना गया है। फिर आप जैसे असाधारण शौर्यशाली पुरुष कितने सम्मान के योग्य होंगे, इस विषय में तो कहना ही क्या है?” ।।
१२०.
“कपिश्रेष्ठ! आप देवशिरोमणि महात्मा वायु के पुत्र हैं और वेग में भी उन्हीं के समान हैं” ।।
श्लोक १२१ से १३० ।।
१२१.
“आप धर्म के ज्ञाता हैं। आप की पूजा होने पर साक्षात् वायुदेव का पूजन हो जायगा । इस लिये आप अवश्य ही मेरे पूजनीय हैं। इसमें एक और भी कारण है, उसे सुनिये” ।।
१२२.
“तात! पूर्व काल के सत्य युग की बात है। उन दिनों पर्वतों के भी पंख होते थे। वे भी गरुड़ के समान वेगशाली हो कर सम्पूर्ण दिशाओं में उड़ते फिरते थे” ।।
१२३.
“उनके इस तरह वेगपूर्वक उड़ने और आने जाने पर देवता, ऋषि और समस्त प्राणियों को उनके गिरने की आशङ्का से बड़ा भय होने लगा” ।।
१२४.
इस से सहस्र नेत्रों वाले देवराज इन्द्र कुपित हो उठे और उन्हों ने अपने वज्र से लाखों पर्वतों के पंख काट डाले” ।।
१२५.
“उस समय कुपित हुए देवराज इन्द्र वज्र उठाये मेरी ओर भी आये, किन्तु महात्मा वायु ने सहसा ही मुझे इस समुद्र में गिरा दिया” ।।
१२६.
“वानर श्रेष्ठ! इस क्षार समुद्र में गिराकर आप के पिताजी ने मेरे पंखों की रक्षा कर ली और मैं अपने सम्पूर्ण अंश से सुरक्षित बच गया” ।।
१२७.
“पवननन्दन! कपिश्रेष्ठ! इसी लिये मैं आप का आदर करता हूँ, आप मेरे माननीय हैं। आपके साथ मेरा यह सम्बन्ध महान् गुणों से युक्त है” ।।
१२८.
“महामते! इस प्रकार चिरकाल के बाद जो यह प्रत्युप कार रूप कार्य (आपके पिता के उपकार का बदला चुकाने का अवसर प्राप्त हुआ है, इसमें आप प्रसन्न चित्त हो कर मेरी और समुद्र की भी प्रीति का सम्पादन करें (हमारा आतिथ्य ग्रहण कर के हमें संतुष्ट करें)” ।।
१२९.
“वानर शिरोमणे! आप यहाँ अपनी थकान उतारिये, हमारी पूजा ग्रहण कीजिये और मेरे प्रेम को भी स्वीकार कीजिये। मैं आप जैसे माननीय पुरुष के दर्शन से बहुत प्रसन्न हुआ हूँ” ।।
१३०.
मैनाक के ऐसा कहने पर कपिश्रेष्ठ हनुमान्जी ने उस उत्तम पर्वत से कहा, “मैनाक! मुझे भी आप से मिल कर बड़ी प्रसन्नता हुई है । मेरा आतिथ्य हो गया। अब आप अपने मन से यह दुख अथवा चिन्ता निकाल दीजिये कि इन्होंने मेरी पूजा ग्रहण नहीं की” ।।
श्लोक १३१ से १४० ।।
१३१.
“मेरे कार्य का समय मुझे बहुत जल्दी करने के लिये प्रेरित कर रहा है। यह दिन भी बीता जा रहा है। मैंने वानरों के साथ यह प्रतिज्ञा कर ली है कि मैं यहाँ बीच में कहीं नहीं ठैहरुंगा” ।।
१३२.
ऐसा कह कर महाबली वानर शिरोमणि नुमानजी ने हंसते हुए से वहाँ मैनाक को अपने हाथ से स्पर्श किया और आकाश में ऊपर उठकर चलने लगे ।।
१३३.
उस समय पर्वत और समुद्र दोनों ने ही बड़े आदर से उनकी ओर देखा, उनका सत्कार किया और यथोचित आशीर्वादों से उनका अभिनन्दन किया ।।
१३४.
फिर पर्वत और समुद्र को छोड़ कर उनसे दूर ऊपर उठकर अपने पिता के मार्ग का आश्रय ले कर हनुमानजी निर्मल आकाश में चलने लगे ।।
१३५.
तत्पश्चात्, और भी ऊंचे उठकर उस पर्वत को देखते हुए कपिश्रेष्ठ पवन पुत्र हनुमान्जी बिना किसी आधार के आगे बढ़ने लगे ।।
१३६.
हनुमानजी का यह दूसरा अत्यन्त दुष्कर कर्म देख कर सम्पूर्ण देवता, सिद्ध और महर्षिगण उनकी प्रशंसा करने लगे ।।
१३७.
वहां आकाश में ठहरे हुए देवता तथा सहस्र नेत्रधारी इन्द्र उस सुन्दर मध्य भागवाले सुवर्णमय मैनाक पर्वत के उस कार्य से बहुत प्रसन्न हुए ।।
१३८.
उस समय स्वयम् बुद्धिमान् शची पति इन्द्र ने अत्यन्त संतुष्ट होकर पर्वत श्रेष्ठ सुनाभ मैनाक से गद्गद वाणी में कहा- ।।
१३९.
“सुवर्णमय शैलराज मैनाक! मैं तुमसे बहुत प्रसन्न हूँ। सौम्य! तुम्हें अभय दान देता हूँ । तुम सुखपूर्वक जहाँ चाहो, जाओ” ।।
१४०.
“सौ योजन समुद्र को लांघ्ते समय जिनके मन में कोई भय नहीं रहा है, फिर भी जिनके लिये हमारे हृदय में यह भय था कि पता नहीं इनका क्या होगा? उन्हीं हनुमान्जी को विश्राम का अवसर देकर तुमने उनकी बहुत बड़ी सहायता की है” ।।
श्लोक १४१ से १५० ।।
१४१.
“ये वानर श्रेष्ठ हनुमान्, दशरथ नन्दन श्रीरामजी की सहायता के लिये ही जा रहे हैं। तुमने यथाशक्ति इनका सत्कार कर के मुझे पूर्ण संतोष प्रदान किया है” ।।
१४२.
देवताओं के स्वामी शतक्रतु इन्द्र को संतुष्ट देखकर पर्वतों में श्रेष्ठ मैनाक को बड़ा हर्ष प्राप्त हुआ ।।
१४३.
इस प्रकार इन्द्र का दिया हुआ वर पाकर मैनाक उस समय जल में स्थित हो गया और हनुमान्जी समुद्र के उस प्रदेश को उसी मुहूर्त में लांघ गये ।।
१४४.
तब देवता, गन्धर्व, सिद्धों और महर्षियों ने सूर्यतुल्य तेजस्विनी नागमाता सुरसा से कहा – ।।
१४५.
“ये पवन नन्दन श्रीमान् हनुमान्जी समुद्र के ऊपर से होकर जा रहे हैं। तुम दो घड़ी के लिये इनके मार्ग में विघ्न डाल दो” ।।
१४६.
“तुम पर्वत के समान अत्यन्त भयंकर राक्षसी का रूप धारण करो। उसमें विकराल दाढ़ें, पीले नेत्र और आकाश को स्पर्श करने वाला विकट मुंह बनाओ” ।।
१४७.
“हमलोग पुनः हनुमान्जी के बल और पराक्रम की परीक्षा लेना चाहते हैं। या तो किसी उपाय से ये तुम्हें जीत लेंगे अथवा विषाद में पड़ जायेंगे ( इससे इनके बलाबल का ज्ञान हो जायगा)” ।।
१४८ से १४९.
देवताओं के सत्कार पूर्वक इस प्रकार कहने पर देवी सुरसा ने समुद्र के बीच में राक्षसी का रूप धारण किया। उस का वह रूप बड़ा ही विकट, बेडौल और सबके लिये भयावना था। वह समुद्र के पार जाते हुए हनुमान्जी को घेर कर उन से इस प्रकार बोली, ।।
१५०.
“कपिश्रेष्ठ! देवेश्वरों ने तुम्हें मेरा भक्ष्य बना कर मुझे अर्पित कर दिया है, अत्ह मैं तुम्हें खाऊंगी । तुम मेरे इस मुंह में चले आओ” ।।
श्लोक १५१ से १६१ ।।
१५१.
“पूर्वकाल में ब्रह्मा जी ने मुझे यह वर दिया था”, ऐसा कहकर वह तुरंत ही अपना विशाल मुंह फैला कर हनुमान्जी के सामने खड़ी हो गयी ।।
१५२.
सुरसा के ऐसा कहने पर हनुमान्जी ने प्रसन्न मुख होकर कहा, “देवि! दशरथ नन्दन श्रीरामचन्द्रजी अपने भाई लक्ष्मण और धर्मपत्नि सीताजी के साथ दण्डकारण्य में आये थे” ।।
१५३.
“वहां पर हित साधन में लगे हुए श्रीरामजी का राक्षसों के साथ वैर बढ़ गया। अत्ह रावण ने उनकी यशस्विनी भार्या सीताजी को हर लिया” ।।
१५४.
“मैं श्रीरामजी की आज्ञा से उन का दूत बन कर सीताजी के पास जा रहा हूँ। तुम भी श्रीरामजी के राज्य में निवास करती हो । अत्ह तुम्हें उन की सहायता करनी चाहिये” ।।
१५५.
“अथवा (यदि तुम मुझे खाना ही चाहती हो तो) मैं सीताजी के दर्शन कर के अनायास ही महान् कर्म करने वाले श्रीरामचन्द्रजी से जब मिल लूंगा, तब तुम्हारे मुख में आ जाऊं गा, यह तुम से सच्ची प्रतिज्ञा करके कहता हूँ” ।।
१५६.
हनुमान्जी के ऐसा कहने पर इच्छानुसार रूप धारण करने वाली सुरसा बोली- “मुझे यह वर मिला है कि कोई भी मुझे लांघ कर आगे नहीं जा सकता” ।।
१५७.
फिर भी हनुमान्जी को जाते देख उन के बल को जानने की इच्छा रखनेवाली नाग माता सुरसा ने उन से कहा- ।।
१५८.
“वानरश्रेष्ठ! आज मेरे मुख में प्रवेश कर के ही तुम्हें आगे जाना चाहिये । पूर्वकाल में विधाता ने मुझे ऐसा ही वर दिया था” ऐसा कह कर सुरसा तुरंत अपना विशाल मुंह फैला कर हनुमान्जी के सामने खड़ी हो गयी ।।
१५९ से १६१.
सुरसा के ऐसा कहने पर वानर शिरोमणि हनुमान्जी कुपित हो उठे और बोले- “तुम अपना मुंह इतना बड़ा बना लो जिस से उस में मेरा भार सह सको” यों कह कर जब वे मौन हुए, तब सुरसा ने अपना मुख दस योजन विस्तृत कर लिया। यह देख कर कुपित हुए हनुमान्जी भी तत्काल दस योजन बड़े हो गये। उन्हें मेघ के समान दस योजन विस्तृत शरीर से युक्त हुआ देख सुरसा ने भी अपने मुख को बीस योजन बड़ा बना लिया ।।
श्लोक १६२ से १७० ।।
१६२.
तब हनुमान्जी ने क्रोद्ध होकर अपने शरीर को तीस योजन अधिक बढ़ा दिया। फिर तो सुरसा ने भी अपने मुंह को चालीस योजन ऊंचा कर लिया ।।
१६३.
यह देख वीर हनुमान् पचास योजन ऊंचे हो गये। तब सुरसा ने अपना मुंह साठ योजन ऊंचा बना लिया ।।
१६४.
फिर तो वीर हनुमान् उसी क्षण सत्तर योजन ऊंचे हो गये। अब सुरसा ने अस्सी योजन ऊंचा मुंह बना लिया ।।
१६५.
तदनन्तर अग्नि के समान तेजस्वी हनुमान् नब्बे योजन ऊंचे हो गये। यह देख सुरसा ने भी अपने मुंह का विस्तार सौ योजन का कर लिया ।।
१६६ से १६७.
सुरसा के फैलाये हुए उस विशाल जिह्वा से युक्त और नरक के समान अत्यन्त भयंकर मुंह को देख कर बुद्धिमान् वायुपुत्र हनुमानजी ने मेघ की भांति अपने शरीर को संकुचित कर लिया। वे उसी क्षण अंगूठे के बराबर छोटे हो गये ।।
१६८.
फिर वे महाबली श्रीमान् पवनकुमार सुरसा के उस मुंह में प्रवेश कर के तुरंत निकल आये और आकाश में खड़े हो कर इस प्रकार बोले- ।।
१६९.
“दक्षकुमारी! तुम्हें नमस्कार है। मैं तुम्हारे मुंह में प्रवेश कर चुका। लो तुम्हारा वर भी सत्य हो गया। अब मैं उस स्थान को जाऊंगा, जहां विदेहकुमारी सीताजी विद्यमान हैं” ।।
१७०.
राहु के मुख से छूटे हुए चन्द्रमा की भांति अपने मुख से मुक्त हुए हनुमान्जी को देख कर सुरसा देवी ने अपने असली रूप में प्रकट होकर उन वानरवीर से कहा- ।।
श्लोक १७१ से १८० ।।
१७१.
“कपिश्रेष्ठ! तुम भगवान् श्रीरामजी के कार्य की सिद्धि के लिये सुखपूर्वक जाओ। सौम्य! विदेहनन्दिनी सीताजी को महात्मा श्रीरामजी से शीघ्र मिलाओ” ।।
१७२.
कपिवर हनुमान्जी का यह तीसरा अत्यन्त दुष्कर कर्म देख सब प्राणी वाह वाह कर के उनकी प्रशंसा करने लगे ।।
१७३.
वे वरुण के निवास भूत अलङ्घ्य समुद्र के निकट आ कर आकाश का ही आश्रय ले गरुड़ के समान वेग से आगे बढ़ने लगे ।।
१७४ से १८०.
जो जल की धाराओं से सेवित, पक्षियों से संयुक्त, गानविद्या के आचार्य तुम्बुरु आदि गन्धर्वो के विचरण का स्थान तथा ऐरावत के आने जाने का मार्ग है, सिंह, हाथी, बाघ, पक्षी और सर्प आदि वाहनों से जुते और उड़ते हुए निर्मल विमान जिसकी शोभा बढ़ाते हैं, जिनका स्पर्श वज्र और अशनि के समान दुसह तथा तेज अग्नि के समान प्रकाशमान है तथा जो स्वर्ग लोक पर विजय पा चुके हैं, ऐसे महाभाग पुण्यात्मा पुरुषों का जो निवास स्थान है, देवता के लिये अधिक मात्रा में हविष्य का भार वहन करने वाले अग्निदेव जिसका सदा सेवन करते हैं, ग्रह, नक्षत्र, चन्द्रमा, सूर्य और तारे आभूषण की भांति जिसे सजाते हैं, महर्षियों के समुदाय, गन्धर्व, नाग और यक्ष जहां भरे रहते हैं, जो जगत्का आश्रय स्थान, एकान्त और निर्मल है, गन्धर्व राज विश्वावसु जिस में निवास करते हैं, देवराज इन्द्र का हाथी जहां चलता फिरता है, जो चन्द्रमा और सूर्य का भी मङ्गलमय मार्ग है, इस जीव जगत् के लिये विमल वितान (चंदोवा) है, साक्षात् परब्रह्म परमात्मा ने ही जिसकी सृष्टि की है, जो बहुसंख्यक वीरों से सेवित और विद्याधरगणों से आवृत है, उस वायुपथ आकाश में पवन नन्दन हनुमान्जी गरुड़ के समान वेग से चले ।।
श्लोक १८१ से १९० ।।
१८१.
वायु के समान हनुमान्जी अगर के समान काले तथा लाल, पीले और श्वेत बादलों को खींच्ते हुए आगे बढ़ने लगे ।।
१८२.
उन के द्वारा खींचे जाते हुए वे बड़े बड़े बादल अद्भुत शोभा पा रहे थे। वे बारम्बार मेघ समूहों में प्रवेश करते और बाहर निकल्ते थे। उस अवस्था में बादलों में छिपते तथा प्रकट होते हुए वर्षाकाल के चन्द्रमा की भांति उनकी बड़ी शोभा हो रही थी ।।
१८३.
सर्वत्र दिखायी देते हुए पवनकुमार हनुमान्जी पंखधारी गिरिराज के समान निराधार आकाश का आश्रय ले कर आगे बढ़ रहे थे ।।
१८४.
इस तरह जाते हुए हनुमान्जी को इच्छानुसार रूप धारण करने वाली विशालकाया सिंहिका नाम वाली राक्षसी ने देखा। देख कर वह मन ही मन इस प्रकार विचार करने लगी- ।।
१८५.
“आज दीर्घकाल के बाद यह विशाल जीव मेरे वश में आया है। इसे खा लेने पर बहुत दिनों के लिये मेरा पेट भर जायगा।” ।।
१८६ से १८७.
अपने हृदय में ऐसा सोच कर उस राक्षसी ने हनुमान्जी की छाया पकड़ ली। छाया पकड़ी जाने पर वानर वीर हनुमानजी ने सोचा- “अहो! सहसा किस ने मुझे पकड़ लिया, इस पकड़ के सामने मेरा पराक्रम पङ्गु हो गया है। जैसे प्रतिकूल हवा चलने पर समुद्र में जहाज की गति अवरुद्ध हो जाती है, वैसी ही दशा आज मेरी भी हो गयी है।” ।।
१८८.
यही सोचते हुए कपिवर हनुमानजी ने उस समय अगल बगल में, ऊपर और नीचे दृष्टि डाली। इतने ही में उन्हें समुद्र के जल के ऊपर उठा हुआ एक विशालकाय प्राणी दिखायी दिया ।।
१८९ से १९०.
उस विकराल मुख वाली राक्षसी को देख कर पवनकुमार हनुमान् सोचने लगे, “वानरराज सुग्रीव ने जिस महा पराक्रमी छाया ग्राही अद्भुत जीव की चर्चा की थी, वह निसंदेह यही है।” ।।
श्लोक १९१ से २०० ।।
१९१.
तब बुद्धिमान् कपिवर हनुमान्जी ने यह निश्चय कर के कि वास्तव में यही सिंहिका है, वर्षाकाल के मेघ की भांति अपने शरीर को बढ़ाना आरम्भ किया। इस प्रकार वे विशालकाय हो गये ।।
१९२.
उन महा कपि के शरीर को बढ़ते देख सिंहिका ने अपना मुंह पाताल और आकाश के मध्यभाग के समान फैला लिया और मेघों की घटा के समान गर्जना करती हुई उन वानरवीर की ओर दौड़ी ।।
१९३.
हनुमानजी ने उसका अत्यन्त विकराल और बढ़ा हुआ मुंह देखा। उन्हें अपने शरीर के बराबर ही उसका मुंह दिखायी दिया। उस समय बुद्धिमान् महा कपि हनुमानजी ने सिंहिका के मर्मस्थानों को अपना लक्ष्य बनाया ।।
१९४.
तदनन्तर, वज्रोपम शरीर वाले महाकपि पवनकुमार अपने शरीर को संकुचित कर के उस के विकराल मुख में आ गिरे ।।
१९५.
उस समय सिद्धों और चारणों ने हनुमान्जी को सिंहिका के मुख में उसी प्रकार निमग्नरु होते देखा, जैसे पूर्णिमा की रात में पूर्ण चन्द्रमा राहु के ग्रास बन गये हों ।।
१९६.
मुख में प्रवेश करके उन वानरवीर ने अपने तीखे नखों से उस राक्षसी के मर्म स्थानों को विदीर्ण कर डाला। इस के पश्चात् वे मन के समान गति से उछल कर वेग पूर्वक बाहर निकल आये ।।
१९७.
दैव के अनुग्रह, स्वाभाविक धैर्य तथा कौशल से उस राक्षसी को मार कर वे मनस्वी वानर वीर पुनः वेग से बढ़ कर बड़े हो गये ।।
१९८.
हनुमानजी ने प्राणों के आश्रय भूत उस के हृदय स्थल को ही नष्ट कर दिया, अत्ह वह प्राणशून्य हो कर समुद्र के जल में गिर पड़ी। विधाता ने ही उसे मार गिराने के लिये हनुमान्जी को निमित् बनाया था ।।
१९९.
उन वानरवीर के द्वारा शीघ्र ही मारी जाकर सिंहिका जल में गिर पड़ी। यह देख आकाश में विचर्ने वाले प्राणी उन कपिश्रेष्ठ से बोले - ।।
२००.
“कपिवर! तुमने यह बड़ा ही भयंकर कर्म किया है, जो इस विशालकाय प्राणी को मार गिराया है। अब तुम बिना किसी विघ्न बाधा के अपना अभीष्ट कार्य सिद्ध करो।” ।।
श्लोक २०१ से २१० ।।
२०१.
“वानरेन्द्र! जिस पुरुष में तुम्हारे समान धैर्य, सूझ, बुद्धि और कुशल्ता - ये चार गुण होते हैं, उसे अपने कार्य में कभी असफलता नहीं होती।” ।।
२०२.
इस प्रकार अपना प्रयोजन सिद्ध हो जाने से उन आकाशचारी प्राणियों ने हनुमान्जी का बड़ा सत्कार किया। इस के बाद वे आकाश में चढ़ कर गरुड़ के समान वेग से चलने लगे ।।
२०३.
सौ योजन अंत में प्रायः समुद्र के पार पहुंच कर जब उन्हों ने सब ओर दृष्टि डाली, तब उन्हें एक हरी भरी वनश्रेणी दिखायी दी ।।
२०४.
आकाश में उड़ते हुए ही शाखा मृगों में श्रेष्ठ हनुमान्जी ने भांति भांति के वृक्षों से सुशोभित लंका नामक द्वीप देखा। उत्तर तट की भांति समुद्र के दक्षिण तट पर भी मलय नामक पर्वत और उस के उपवन दिखायी दिये ।।
२०५.
समुद्र, सागर के तटवर्ती जलप्राय देश तथा वहां उगे हुए वृक्षों एवम् सागर पन्ती सरिताओं के मुहानों को भी उन्होंने देखा ।।
२०६.
मन को वश में रखने वाले बुद्धिमान् हनुमान्जी ने अपने शरीर को महान् मेघों की घटा के समान विशाल तथा आकाश को अवरोद्ध करता सा देख मन ही मन इस प्रकार विचार किया ।।
२०७.
“अहो! मेरे शरीर की विशालता तथा मेरा यह तीव्र वेग देखते ही राक्षसों के मन में मेरे प्रति बड़ा कौतूहल होगा । वे मेरा भेद जानने के लिये उत्सुक हो जायेंगे।” परम बुद्धिमान् हनुमान्जी के मन में यह धारणा पक्की हो गयी ।।
२०८.
मनस्वी हनुमान्जी अपने पर्वताकार शरीर को संकुचित कर के पुनः अपने वास्तविक स्वरूप में स्थित हो गये। ठीक उसी तरह, जैसे मन को वश में रखने वाला मोह रहित पुरुष अपने मूल स्वरूप में प्रतिष्ठित होता है ।।
२०९.
जैसे बलि के पराक्रम सम्बन्धी अभिमान को हर लेने वाले श्री हरि ने विराट रूप से तीन पग चल कर ही तीनों लोकों को नाप लेने के पश्चात् अपने उस स्वरूप को समेट लिया था, उसी प्रकार हनुमान्जी समुद्र को लांघ जाने के बाद अपने उस विशाल रूप को संकुचित कर के अपने वास्तविक स्वरूप में स्थित हो गये ।।
२१०.
हनुमान्जी बड़े ही सुन्दर और नाना प्रकार के रूप धारण कर लेते थे। उन्होंने समुद्र के दूसरे तट पर, जहां दूसरों का पहुंचना असम्भव था, पहुंच कर अपने विशाल शरीर की ओर दृष्टि की। फिर अपने कर्तव्य का विचार कर के छोटा सा रूप धारण कर लिया ।।
श्लोक २११ से २१३ ।।
२११.
महान् मेघों के समूह के समान शरीर वाले महात्मा हनुमान्जी के वड़े, लसोड़े और नारियल के वृक्षों से विभूषित लम्ब पर्वत के विचित्र लघु शिखरों वाले महान् समृद्धिशाली श्रृङ्ग पर कूद पड़े ।।
२१२.
तदनन्तर, समुद्र तटपर पहुंच कर वहां से उन्हों ने एक श्रेष्ठ पर्वत के शिखर पर बसी हुइ लंका नगरी को देखा। देख कर अपने पहले रूप को तिरोहित कर के वे वानर वीर वहां के पशु पक्षियों को व्यथित करते हुए उसी पर्वत पर उतर पड़े ।।
२१३.
इस प्रकार दानवों और सर्पों से भरे हुए तथा बड़ी बड़ी उत्ताल तरङ्ग मालाओं से अलंकृत महासागर को बलपूर्वक लांघ कर वे उस के तट पर उतर गये और अमरावती के समान सुशोभित लंकापुरी की शोभा देखने लगे ।।
इस प्रकार श्रीवाल्मीकि निर्मित आर्षरामायण आदिकाव्य के सुन्दरकाण्ड में पहला सर्ग पूरा हुआ ।
Sarg 1 - Sundar Kaand - Valmiki Ramayana Translated in Hindi and made Screen Readable for Blind and Visually Impaired Individuals by Dr T K Bansal