02. Valmiki Ramayana - Sundar Kaand - Sarg 02

ओम् श्री गणेशाय नमः ।।

ओम् श्रीसीतारामचन्द्राभ्याम् नमः ।।

श्रीमद्वाल्मीकीय रामायण – सुन्दरकाण्ड ।।

दूसरा सर्ग – ५८ श्लोक ।।

सारांश ।।

लंकापुरी का वर्णन, उसमें प्रवेश करने के विषय में हनुमान्जी का विचार, उनका लघु रूप से पुरी में प्रवेश तथा चन्द्रोदय का वर्णन ।।

आरम्भ ।।

श्लोक १ से १० ।।

१.
महाबली हनुमान्जी अलङ्घनीय समुद्र को पार करके त्रिकूट नामक पर्वत के शिखर पर स्वस्थ भाव से खड़े होकर लंकापुरी की शोभा देखने लगे ।।

२.
उस समय उनके ऊपर वहां वृक्षों से झड़े हुए फूलों की वर्षा होने लगी। इस से वहां बैठे हुए पराक्रमी हनुमान् फूल के बने हुए वानर के समान प्रतीत होने लगे ।।

३.
उत्तम पराक्रमी श्रीमान् वानरवीर हनुमान् सौ योजन समुद्र लांघ कर भी वहां लम्बी साँस नहीं खींच रहे थे और न ग्लानि का ही अनुभव कर रहे थे ।।

४.
उलटे वे यह सोच रहे थे, “मैं सौ-सौ योजनों के बहुत से समुद्र लांघ सकता हूँ; फिर इस गिने- गिनाये सौ योजन समुद्र को पार करना कौन सी बड़ी बात है ?” ।।

५.
बलवानों में श्रेष्ठ तथा वानरों में उत्तम वे वेगवान् पवनकुमार महासागर को लांघ कर शीघ्र ही लंका में जा पहुँचे ।।

६.
रास्ते में हरी-हरी दूब और वृक्षों से भरे हुए मकरन्दपूर्ण सुगन्धित वन देखते हुए वे मध्यमार्ग से जा रहे थे ।।

७.
तेजस्वी वानरशिरोमणि हनुमान् वृक्षों से आच्छादित पर्वतों और फूलों से भरी हुई वन- श्रेणियों में विचरने लगे ।।

८.
उस पर्वत पर स्थित हो पवनपुत्र हनुमानजी ने बहुत से वन और उपवन देखे तथा उस पर्वत के अग्रभाग में बसी हुई लंका का भी अवलोकन किया ।।

९ से ११.
उन कपिश्रेष्ठ ने वहां सरल , कनेर, खिले हुए खजूर, प्रियाल (चिरौंजी ), मुचुलिन्द (जम्बीरी नीबू), कुटज, केतक (केवड़े), सुगन्धपूर्ण प्रियङ्गु (पिप्पली), नीप (कदम्ब या अशोक), छितवन, असन, कोविदार तथा खिले हुए करवीर भी देखे। फूलों के भार से लदे हुए तथा मुकुलित (अधखिले) बहुत से वृक्ष उन्हें दृष्टिगोचर हुए, जिनमें पक्षी भरे हुए थे और हवा के झोंकों से जिनकी डालियाँ झूम रही थीं ।।

श्लोक १२ से २० ।।

१२.
हंसों और कारण्डवों से व्याप्त तथा कमल और उत्पल से आच्छादित हुई बहुत-सी बावड़ियाँ, भांति भांति के रमणीय क्रीड़ा स्थान तथा नाना प्रकार के जलाशय उन के दृष्टिपथ में आये ।।

१३.
उन जलाशयों के चारों ओर सभी ऋतुओं में फल-फूल देने वाले अनेक प्रकार के वृक्ष फैले हुए थे। उन वानरशिरोमणि ने वहाँ बहुत से रमणीय उद्यान भी देखे ।।

१४ से १५.
अद्भुत शोभा से सम्पन्न हनुमान्जी धीरे-धीरे रावण पालित लंकापुरी के पास पहुँच गए। उस के चारों ओर खुदी हुइ खाइयाँ उस नगरी की शोभा बढ़ा रही थीं। उन में उत्पल और पद्म आदि कईं जातियों के कमल खिले हुए थे। सीता को हर लाने के कारण रावण ने लंकापुरी की रक्षा का विशेष प्रबन्ध कर रखा था। उस के चारों ओर भयंकर धनुष धारण करने वाले राक्षस घूमते रहते थे ।।

१६.
वह महापुरी सोने की चारदीवारी से घिरी हुई थी तथा पर्वत के समान ऊँचे और शरद् ऋतु के बादलों के समान श्वेत भवनों से भरी हुई थी ।।

१७.
श्वेत रंग की ऊँची-ऊँची सड़कें उस पुरी को सब ओर से घेरे हुए थीं। सैकड़ों अट्टालिकाएँ वहाँ शोभा पा रही थीं तथा फहराती हुई ध्वजा-पताकाएँ उस नगरी की शोभा बढ़ा रही थीं ।।

१८.
उस के बाहरी फाटक सोने के बने हुए थे और उन की दीवारें लताओं और बेलों के चित्रों से सुशोभित थीं । हनुमान्जी ने उन फाटकों से सुशोभित लंका को उसी प्रकार देखा, जैसे कोई देवता देवपुरी का निरीक्षण कर रहा हो ।।

१९.
तेजस्वी कपि हनुमानजी ने सुन्दर शुभ्र सदनों से सुशोभित और पर्वत के शिखर पर स्थित लंका को इस तरह देखा, मानो वह आकाश में विचरने वाली नगरी हो ।।

२०.
कपिवर हनुमानजी ने विश्वकर्मा द्वारा निर्मित तथा राक्षसराज रावण द्वारा सुरक्षित उस पुरी को आकाश में तैरती-सी देखा ।।

श्लोक २१ से ३० ।।

२१.
विश्वकर्मा की बनायी हुई लंका मानो उन के मानसिक संकल्प से रची गयी एक सुन्दर स्त्री थी । चारदीवारी और उस के भीतर की वेदी उस की जघनस्थली जान पड़ती थीं, समुद्र की विशाल जलराशि और वन उस के वस्त्र थे, शतघ्नी और शूल नामक अस्त्र ही उस के केश थे और बड़ी-बड़ी अट्टालिकाएँ उस के लिये कर्णभूषण से प्रतीत हो रहे थे ।।

२२ से २३.
उस पुरी के उत्तर द्वार पर पहुँचकर वानरवीर हनुमान्जी चिन्ता में पड़ गये। वह द्वार कैलास पर्वत पर बसी हुइ अलकापुरी के बहिर्द्वार के समान ऊँचा था और आकाश में रेखा सी खींचता जान पड़ता था । ऐसा जान पड़ता था मानो अपने ऊँचे-ऊँचे प्रासादों पर आकाश को उठा रखा है ।।

२४ से २५.
लंकापुरी भयानक राक्षसों से उसी तरह भरी थी, जैसे पाताल की भोगवती पुरी नागों से भरी रहती है। उस की निर्माणकला अचिन्त्य थी। उस की रचना सुन्दर ढंग से की गयी थी। वह हनुमानजी को स्पष्ट दिखायी देती थी। पूर्वकाल में साक्षात् कुबेर वहाँ निवास करते थे। हाथों में शूल और पट्टिश लिये बड़ी-बड़ी दाढों वाले बहुत से शूरवीर घोर राक्षस लंकापुरी की उसी प्रकार रक्षा कर रहे थे, जैसे विषधर सर्प अपनी पुरी की करते हैं ।।

२६.
उस नगर की बड़ी भारी चौकसी, उसके चारों ओर समुद्र की खाई तथा रावण-जैसे भयंकर शत्रु को देख कर हनुमानजी इस प्रकार विचारने लगे - ।।

२७.
“यदि वानर यहाँ तक आ भी जायँ तो भी वे व्यर्थ ही सिद्ध होंगे; क्योंकि युद्ध के द्वारा देवता भी लंका पर विजय नहीं पा सकते” ।।

२८.
“जिस से बढ़ कर विषम (संकटपूर्ण) स्थान और कोई नहीं है, उस रावण पालित इस दुर्गम कामें आ कर महाबाहु श्री रघुनाथजी भी क्या करेंगे?” ।।

२९.
“राक्षसों पर सामनीति के प्रयोग के लिये तो कोई सम्भावना ही नहीं है। इन पर दान, भेद और युद्ध (दण्ड) नीति का प्रयोग भी सफल होता नहीं दिखायी देता” ।।

३०.
“यहाँ चार ही वेगशाली वानरों की पहुँच हो सकती है - बालिपुत्र अंगद की, नील की, मेरी और बुद्धिमान् राजा सुग्रीव की” ।।

श्लोक ३१ से ४० ।।

३१.
“अच्छा, पहले यह तो पता लगाऊँ कि विदेहकुमारी सीता जीवित भी हैं या नहीं? जनककिशोरी का दर्शन करने के पश्चात् ही मैं इस विषय में कोई विचार करूँ गा” ।।

३२.
तदनन्तर, उस पर्वतशिखर पर खड़े हुए कपिश्रेष्ठ हनुमान्जी श्रीरामचन्द्रजी के अभ्युदय के लिये सीताजी का पता लगाने के उपाय पर दो घड़ी तक विचार करते रहे ।।

३३.
उन्होंने सोचा, “मैं इस रूप से राक्षसों की इस नगरी में प्रवेश नहीं कर सकता; क्योंकि बहुत से क्रूर और बलवान् राक्षस इसकी रक्षा कर रहे हैं” ।।

३४.
“जानकी की खोज करते समय मुझे अपने को छिपाने के लिये यहाँ के सभी महातेजस्वी, महापराक्रमी और बलवान् राक्षसों से आंख बचानी होगी” ।।

३५.
“अतः, मुझे रात्रि के समय ही नगर में प्रवेश करना चाहिये और सीताजी का अन्वेषण रूप यह महान् समयोचित कार्यं सिद्ध करने के लिये ऐसे रूप का आश्रय लेना चाहिये, जो आंख से देखा न जा सके। केवल कार्य से यह अनुमान हो कि कोई आया था” ।।

३६.
देवताओं और असुरों के लिये भी दुर्जय वैसी लंकापुरी को देख कर हनुमान्जी बारम्बार लम्बी साँस खींचते हुए यों विचार करने लगे ।।

३७.
“किस उपाय से काम लूँ, जिस से दुरात्मा राक्षसराज रावण की दृष्टि से ओझल रह कर मैं मिथिलेशनन्दिनी जनककिशोरी सीता का दर्शन प्राप्त कर सकूँ” ।।

३८.
“किस रीति से कार्य किया जाय, जिस से जगद्विख्यात श्रीरामचन्द्रजी का काम भी न बिगड़े और मैं एकान्त में अकेली जानकीजी से भेंट भी कर लूँ” ।।

३९.
“कई बार कातर अथवा अविवेकपूर्ण कार्य करनेवाले दूत के हाथ में पड़ कर देश और काल के विपरीत व्यवहार होने के कारण बने बनाये काम भी उसी तरह बिगड़ जाते हैं, जैसे सूर्योदय होने पर अन्धकार नष्ट हो जाता है” ।।

४०.
“राजा और मन्त्रियों के द्वारा निश्चित किया हुआ कर्तव्य कर्तव्यविषयक विचार भी किसी अविवेकी दूत का आश्रय लेने से शोभा (सफलता) नहीं पाता है। अपने को पण्डित मानने वाले अविवेकी दूत सारा काम ही चौपट कर देते हैं” ।।

श्लोक ४१ से ५० ।।

४१.
“अच्छा, तो किस उपाय का अवलम्बन करने से स्वामी का कार्य नहीं बिगड़े गा; मुझे घबराहट या अविवेक नहीं होगा और मेरा यह समुद्र का लाँघना भी व्यर्थ नहीं होने पायेगा” ।।

४२.
“यदि राक्षसों ने मुझे देख लिया तो रावण का अनर्थ चाहने वाले उन विख्यातनामा भगवान् श्रीराम का यह कार्य सफल न हो सकेगा” ।।

४३.
“यहाँ दूसरे किसी रुप की तो बात ही क्या है, राक्षस का रूप धारण कर के भी राक्षसों से अज्ञात रह कर कहीं ठहरना असम्भव है” ।।

४४.
“मेरा तो ऐसा विश्वास है कि राक्षसों से छिपे रह कर वायुदेव भी इस पुरी में विचरण नहीं कर सकते। यहाँ कोई भी ऐसा स्थान नहीं है, जो इन भयंकर कर्म करने वाले राक्षसों को ज्ञात न हो” ।।

४५.
“यदि यहाँ मैं अपने इस रूप से छिप कर भी रहूँ गा तो भी मारा जाऊँगा और मेरे स्वामी के कार्य में भी हानि पहुँचेगी” ।।

४६.
“अतः, मैं श्री रघुनाथजी का कार्य सिद्ध करने के लिये रात में अपने इसी रूप से छोटासा शरीर धारण करके लंका में प्रवेश करूँगा” ।।

४७.
“यद्यपि रावण की इस पुरी में जाना बहुत ही कठिन है तथापि, रात को इस के भीतर प्रवेश कर के सभी घरों में घुस कर मैं जानकीजी की खोज करूँगा” ।।

४८.
ऐसा निश्चय कर के वीर वानर हनुमान् विदेहनन्दिनी के दर्शन के लिये उत्सुक हो उस समय सूर्यास्त की प्रतीक्षा करने लगे ।।

४९.
सूर्यास्त हो जानेपर रात के समय उन पवनकुमार ने अपने शरीर को छोटा बना लिया। वे बिल्ली के बराबर हो कर अत्यन्त अद्भुत दिखायी देने लगे ।।

५०.
प्रदोषकाल में पराक्रमी हनुमान् तुरंत ही उछल कर उस रमणीय पुरी में घुस गये। वह नगरी पृथक्-पृथक् बने हुए चौड़े और विशाल राजमार्गों से सुशोभित थी ।।

श्लोक ५१ से ५८ ।।

५१.
उस में प्रासादों की लंबी पंक्तियाँ दूर तक फैली हुई थीं। सुनहरे रंग के खम्भों और सोने की जाय से विभूषित वह नगरी गन्धर्व नगर के समान रमणीय प्रतीत हो रही थी ।।

५२ से ५३.
हनुमानजी ने उस विशाल पुरी को सतमहले, अठमहले मकानों और सुवर्ण जटित स्फटिक मणिकी फर्शो से सुशोभित देखा। उन में वैदूर्य (नीलम) भी जड़े गये थे, जिस से उन की विचित्र शोभा हो रही थी। मोतियों की जालियाँ भी उन महलों की शोभा बढ़ा रही थीं। उन सबके कारण राक्षसों के वे भवन बड़े सुन्दर शोभा से सम्पन्न हो रहे थे ।।

५४.
सोने के बने हुए विचित्र फाटक सब ओर से सजी हुई राक्षसों की उस लंका को और भी उद्दीप्त कर रहे थे ।।

५५.
ऐसी अचिन्त्य और अद्भुत आकार वाली लंका को देखकर महाकपि हनुमान् विषाद में पड़ गये; परंतु जानकीजी के दर्शन के लिये उनके मन में बड़ी उत्कण्ठा थी, इस लिये उनका हर्ष और उत्साह भी कम नहीं हुआ ।।

५६.
परस्पर सटे हुए श्वेतवर्ण के सतमंजिले महलों की पंक्तियाँ लंकापुरी की शोभा बढ़ा रही थीं। बहुमूल्य जाम्बूनद नामक सुवर्ण की जालियों और वन्दनवारों से वहाँ के घरों को सजाया गया था। भयंकर बलशाली निशाचर उस पुरी की अच्छी तरह रक्षा कर रहे थे। रावण के बाहुबल से भी वह सुरक्षित थी। उस के यश की ख्याति दूर तक फैली हुई थी। ऐसी लंकापुरी में हनुमान्जी ने प्रवेश किया ।।

५७.
उस समय तारागणों के साथ उनके बीच में विराजमान अनेक सहस्र किरणोंवाले चन्द्रदेव भी हनुमान्जी की सहायता सी करते हुए समस्त लोकोंपर अपनी चांदनी का चंदोवा सा तानकर उदित हो गये ।।

५८.
वानरों के प्रमुख वीर श्री हनुमान्जी ने शङ्खकी सी कान्ति तथा दूध और मृणालके से वर्णवाले चन्द्रमा को आकाशमें इस प्रकार उदित एवम् प्रकाशित होते देखा, मानो किसी सरोवर में कोई हंस तैर रहा हो ।।

इस प्रकार श्रीवाल्मीकि द्वारा निर्मित आर्षरामायण आदिकाव्य के सुन्दरकाण्ड में दूसरा सर्ग पूरा हुआ।

Sarg 02 - Sundar Kaand - Valmiki Ramayana Translated in Hindi and made Screen Readable for Blind and Visually Impaired Individuals by Dr T K Bansal, A Blind Scientist.