18. Valmiki Ramayana - Baal Kaand - Sarg 18
ओम् श्री गणेशाय नमः ।।
ओम् श्रीसीतारामचन्द्राभ्याम् नमः ।।
श्रीमद्वाल्मीकीय रामायण – बालकाण्ड ।।
अठारहवाँ सर्ग - ५९ श्लोक ।।
सारांश ।।
राजाओं तथा ऋष्यश्रृंग को विदा कर के राजा दशरथ का रानियों सहित पुरी में आगमन, श्रीराम, भरत, लक्ष्मण तथा शत्रुघ्न के जन्म, संस्कार, शील-स्वभाव एवम् सद्गुण, राजा के दरबार में विश्वामित्र का आगमन और उन का सत्कार ।।
आरम्भ ।।
श्लोक १ से १० ।।
१.
महामना राजा दशरथ का यज्ञ समाप्त होने पर देवता लोग अपना-अपना भाग लेकर जैसे आये थे, वैसे ही लौट गये ।।
२.
दीक्षा का नियम समाप्त होनेपर राजा अपनी पत्नियों को साथ ले सेवकों, सैनिकों और सवारियों सहित पुरी में प्रविष्ट हुए ।।
३.
भिन्न-भिन्न देशों के राजा भी (जो उनके यज्ञ में सम्मिलित होने के लिये आये थे) महाराज दशरथ द्वारा यथा वत् सम्मानित हो मुनिवर वसिष्ठ तथा ऋष्यश्रृंग को प्रणाम करके प्रसन्नता पूर्वक अपने-अपने देश को चले गये ।।
४.
अयोध्या पुरी से अपने घर को जाते हुए उन श्रीमान् नरेशों के शुभ्र सैनिक अत्यन्त हर्ष मग्न होने के कारण बड़ी शोभा पा रहे थे ।।
५.
उन राजाओं के विदा हो जाने पर श्रीमान् महाराज दशरथ ने श्रेष्ठ ब्राह्मणों को आगे करके अपनी पुरी में प्रवेश किया ।।
६.
राजा द्वारा अत्यन्त सम्मानित हो ऋष्यश्रृंग मुनि भी शान्ता के साथ अपने स्थान को चले गये। उस समय सेवकों सहित बुद्धिमान् महाराज दशरथ कुछ दूर तक उनके पीछे-पीछे उन्हें पहुँचाने के लिए गये थे ।।
७.
इस प्रकार उन सब अतिथियों को विदा करके सफल मनोरथ हुए राजा दशरथ पुत्रोत्पत्ति की प्रतीक्षा करते हुए वहाँ बड़े सुख से रहने लगे ।।
८ से १०.
यज्ञ-समाप्ति के पश्चात् जब छः ऋतुएँ बीत गयीं, तब बारहवें मास में चैत्र के शुक्लपक्ष की नवमी तिथि को पुनर्वसु नक्षत्र एवम् कर्क लग्न में कौसल्या देवी ने दिव्य लक्षणों से युक्त, सर्व लोक वन्दित जगदीश्वर श्रीराम को जन्म दिया। उस समय (सूर्य, मंगल, शनि, गुरु और शुक्र- ये) पाँच ग्रह अपने-अपने उच्च स्थान में विद्यमान थे तथा लग्न में चन्द्रमा के साथ बृहस्पति विराजमान थे ॥
श्लोक ११ से २०
११.
वे विष्णु स्वरूप हविष्य या खीर के आधे भाग से प्रकट हुए थे। कौसल्या के महाभाग पुत्र श्रीराम इक्ष्वाकुकुल का आनन्द बढ़ाने वाले थे। उन के नेत्रों में कुछ-कुछ लालिमा थी। उन के ओठ लाल, भुजाएँ बड़ी-बड़ी और स्वर दुन्दुभि के शब्द के समान गम्भीर था ।।
१२.
उस अमिततेजस्वी पुत्र से महारानी कौसल्या की बड़ी शोभा हो रही थी, ठीक उसी तरह, जैसे सुर श्रेष्ठ वज्रपाणि इन्द्र से देवमाता अदिति सुशोभित हुई थीं ।।
१३.
तदनन्तर कैकेयी से सत्यपराक्रमी भरत का जन्म हुआ, जो साक्षात् भगवान् विष्णु के (स्वरूपभूत पायस – खीर के) चतुर्थांश से भी न्यून भाग से प्रकट हुए थे। ये समस्त सद्गुणों से सम्पन्न थे ।।
१४.
इसके बाद रानी सुमित्रा ने लक्ष्मण और शत्रुघ्न- इन दो पुत्रों को जन्म दिया। ये दोनों वीर साक्षात् भगवान् विष्णु के अर्धभाग से सम्पन्न और सब प्रकार के अस्त्रों की विद्या में कुशल थे ।।
१५.
भरत सदा प्रसन्न चित्त रहते थे। उनका जन्म पुष्य नक्षत्र तथा मीन लग्न में हुआ था । सुमित्रा के दोनों पुत्र आश्लेषा नक्षत्र और कर्क लग्न में उत्पन्न हुए थे। उस समय सूर्य अपने उच्च स्थान में विराजमान थे ।।
१६.
राजा दशरथ के ये चारों महा मनस्वी पुत्र पृथक्-पृथक् गुणों से सम्पन्न और सुन्दर थे। ये भाद्रपदा नामक चार तारों के समान कान्तिमान् थे ।।
१७.
इनके जन्म के समय गन्धर्वों ने मधुर गीत गाये। अप्सराओं ने नृत्य किया। देवताओं की दुन्दुभियाँ बजने लगीं तथा आकाश से फूलों की वर्षा होने लगी ।।
१८.
अयोध्या में बहुत बड़ा उत्सव हुआ। मनुष्यों की भारी भीड़ एकत्र हुई। गलियाँ और सड़कें लोगों से खचाखच भरी थीं। बहुत-से नट और नर्तक वहाँ अपनी कलाएँ दिखा रहे थे ।।
१९.
वहाँ सब ओर गाने-बजाने वाले तथा दूसरे लोगों के शब्द गूँज रहे थे। दीन-दुखियों के लिये लुटाये गये सब प्रकार के रत्न वहाँ बिखरे पड़े थे ।।
२०.
राजा दशरथ सूत, मागध और वन्दी जनों को देने योग्य पुरस्कार दिये तथा ब्राह्मणों को धन एवम् सहस्रों गोधन प्रदान किये ।।
श्लोक २१ से ३० ।।
२१ से २२.
ग्यारह दिन बीतने पर महाराज ने बालकों का नामकरण संस्कार किया। उस समय महर्षि वसिष्ठ ने प्रसन्नता के साथ सब के नाम रखे। उन्हों ने ज्येष्ठ पुत्र का नाम 'राम' रखा । श्रीराम महात्मा (परमात्मा) थे। कैकेयी कुमार का नाम भरत तथा सुमित्रा के एक पुत्र का नाम लक्ष्मण और दूसरे का शत्रुघ्न निश्चित किया ।।
२३.
राजा ने ब्राह्मणों, पुरवासियों तथा जनपदवासियों को भी भोजन कराया। ब्राह्मणों को बहुत- से उज्ज्वल रत्न समूह दान किये ।।
२४.
महर्षि वसिष्ठ ने समय-समय पर राजा से उन बालकों के जात कर्म आदि सभी संस्कार करवाये थे। उन सब में श्रीरामचन्द्रजी ज्येष्ठ होने के साथ ही अपने कुल की कीर्ति-ध्वजा को फहराने वाली पताका के समान थे। वे अपने पिता की प्रसन्नता को बढ़ाने वाले थे ।।
२५.
सभी भूतों के लिये वे स्वयम्भू ब्रह्माजी के समान विशेष प्रिय थे। राजा के सभी पुत्र वेदों के विद्वान् और शूरवीर थे । सब-के-सब लोक-हितकारी कार्यों में संलग्न रहते थे ।।
२६ से २७.
सभी ज्ञानवान् और समस्त सद्गुणों से सम्पन्न थे। उन में भी सत्यपराक्रमी श्रीरामचन्द्रजी सब से अधिक तेजस्वी और सब लोगों के विशेष प्रिय थे। वे निष्कलङ्क चन्द्रमा के समान शोभा पाते थे। उन्होंने हाथी के कंधे और घोड़े की पीठ पर बैठने तथा रथ हाँकने की कला में भी सम्मानपूर्ण स्थान प्राप्त किया था। वे सदा धनुर्वेद का अभ्यास करते और पिताजी की सेवा में लगे रहते थे।
२८ से २९.
लक्ष्मी की वृद्धि करने वाले लक्ष्मण बाल्यावस्था से ही श्रीरामचन्द्रजी के प्रति अत्यन्त अनुराग रखते थे। वे अपने बड़े भाइ लोकाभिराम श्रीराम का सदा ही प्रिय करते थे और शरीर से भी उन की सेवा में ही जुटे रहते थे ।
३०.
शोभासम्पन्न लक्ष्मण श्रीरामचन्द्रजी के लिये बाहर विचरने वाले दूसरे प्राण के समान थे। पुरुषोत्तम श्रीराम को उन के बिना नींद भी नहीं आती थी । यदि उन के पास उत्तम भोजन लाया जाता तो श्रीरामचन्द्रजी उस में से लक्ष्मण को दिये बिना नहीं खाते थे ।।
श्लोक ३१ से ४० ।।
३१ से ३२.
जब श्रीरामचन्द्रजी घोड़े पर चढ़ कर शिकार खेलने के लिये जाते, उस समय लक्ष्मण धनुष लेकर उनके शरीर की रक्षा करते हुए पीछे-पीछे जाते थे। इसी प्रकार लक्ष्मण के छोटे भाई शत्रुघ्न भरतजी को प्राणों से भी अधिक प्रिय थे और वे भी भरतजी को सदा प्राणों से भी अधिक प्रिय मानते थे ।।
३३.
इन चार महान् भाग्यशाली प्रिय पुत्रों से राजा दशरथ को बड़ी प्रसन्नता प्राप्त होती थी, ठीक वैसे ही जैसे चार देवताओं (दिक्पालों) से ब्रह्माजी को प्रसन्नता होती है ।।
३४ से ३५.
वे सब बालक जब समझ दार हुए, तब समस्त सद्गुणों से सम्पन्न हो गये। वे सभी लज्जाशील, यशस्वी, सर्वज्ञ और दूरदर्शी थे। ऐसे प्रभावशाली और अत्यन्त तेजस्वी उन सभी पुत्रों की प्राप्ति से राजा दशरथ लोकेश्वर ब्रह्मा की भाँति बहुत प्रसन्न थे ।।
३६.
वे पुरुषसिंह राजकुमार प्रतिदिन वेदों के स्वाध्याय, पिता की सेवा तथा धनुर्वेद के अभ्यास में दत्तचित्त रहते थे ।।
३७ से ३८.
एक दिन धर्मात्मा राजा दशरथ पुरोहित तथा बन्धु-बान्धवों के साथ बैठ कर पुत्रों के विवाह के विषय में विचार कर रहे थे । मन्त्रियों के बीच में विचार करते हुए उन महामना नरेश के यहाँ महातेजस्वी महामुनि विश्वामित्र पधारे ।।
३९.
वे राजा से मिलना चाहते थे। उन्हों ने द्वारपालों से कहा- “तुम लोग शीघ्र जाकर महाराज को यह सूचना दो कि कुशिकवंशी गाधिपुत्र विश्वामित्र आये हैं ।”' ।।
४०.
उन की यह बात सुनकर वे द्वारपाल दौड़े हुए राजा के दरबार में गये। वे सब विश्वामित्र के उस वाक्य से प्रेरित हो कर मन ही मन घबराये हुए थे ।।
श्लोक ४१ से ५० ।।
४१.
राजा के दरबार में पहुँचकर उन्होंने इक्ष्वाकुकुल - नन्दन अवध नरेश से कहा, “महाराज ! महर्षि विश्वामित्र पधारे हैं ।” ।।
४२.
उनकी वह बात सुनकर राजा सावधान हो गये। उन्होंने पुरोहित को साथ लेकर बड़े हर्ष के साथ उनकी अगवानी की, मानो देवराज इन्द्र ब्रह्माजी का स्वागत कर रहे हों ।।
४३.
विश्वामित्रजी कठोर व्रत का पालन करने वाले तपस्वी थे। वे अपने तेज से प्रज्वलित हो रहे थे। उनका दर्शन करके राजा का मुख प्रसन्नता से खिल उठा और उन्होंने महर्षि को अर्घ्य निवेदन किया ।।
४४.
राजा का वह अर्घ्य शास्त्रीय विधि के अनुसार स्वीकार करके महर्षि ने उनसे कुशल-मंगल पूछा ।।॥
४५.
धर्मात्मा विश्वामित्र ने क्रमशः राजा के नगर, खजाना, राज्य, बन्धु बान्धव तथा मित्रवर्ग आदि विषय में कुशलप्रश्न किया- ।।
४६.
“राजन्! आपके राज्य की सीमा के निकट रहने वाले शत्रु राजा आप के समक्ष नतमस्तक तो हैं? आपने उनपर विजय तो प्राप्त की है ना ? आपके यज्ञयाग आदि देवकर्म और अतिथि सत्कार आदि मनुष्यकर्म तो अच्छी तरह सम्पन्न होते हैं ना?” ।।
४७.
इसके बाद महाभाग मुनिवर विश्वामित्र ने वसिष्ठजी तथा अन्यान्य ऋषियों से मिलकर उन सबका यथावत् कुशल- समाचार पूछा ।।
४८.
फिर वे सब लोग प्रसन्नचित्त होकर राजा के दरबार में गये और उन के द्वारा पूजित हो यथायोग्य आसनों पर बैठे ।।
४९.
तदनन्तर, प्रसन्नचित्त परम उदार राजा दशरथ ने पुलकित होकर महामुनि विश्वामित्र की प्रशंसा करते हुए कहा- ।।
५० से ५२.
“महामुने! जैसे किसी मरणधर्मा मनुष्य को अमृत की प्राप्ति हो जाय, निर्जल प्रदेश में पानी बरस जाय, किसी संतानहीन को अपने अनुरूप पत्नी के गर्भ से पुत्र प्राप्त हो जाय, खोयी हुई निधि मिल जाय, तथा किसी महान् उत्सव से हर्ष का उदय हो, उसी प्रकार आप का यहाँ शुभागमन हुआ है। ऐसा मैं मानता हूँ। आप का स्वागत है। आप के मन में कौन-सी उत्तम कामना है, जिसको मैं हर्ष के साथ पूर्ण करूँ?” ।।
श्लोक ५३ से ५९ ।।
५३.
“ब्रह्मन्! आप मुझसे सब प्रकार की सेवा लेने योग्य उत्तम पात्र हैं। मानद ! मेरा अहोभाग्य है, जो आप ने यहाँ तक पधारने का कष्ट उठाया। आज मेरा जन्म सफल और जीवन धन्य हो गया।” ।।
५४ से ५५.
“मेरी बीती हुइ रात सुन्दर प्रभात दे गयी, जिस से मैंने आज आप ब्राह्मणशिरोमणि का दर्शन किया। पूर्वकाल में आप राजर्षि शब्द से उपलक्षित होते थे, फिर तपस्या से अपनी अद्भुत प्रभा को प्रकाशित करके आपने ब्रह्मर्षि का पद पाया; अतः, आप राजर्षि और ब्रह्मर्षि दोनों ही रूपों में मेरे पूजनीय हैं। आप का जो यहाँ मेरे समक्ष शुभागमन हुआ है, यह परम पवित्र और अद्भुत है ।” ।।
५६.
“प्रभो! आपके दर्शन से आज मेरा घर तीर्थ हो गया। मैं अपने आप को पुण्यक्षेत्रों की यात्रा करके आया हुआ मानता हूँ। बताइये, आप क्या चाहते हैं? आप के शुभागमन का शुभ उद्देश्य क्या है ?” ।।
५७.
“उत्तम व्रत का पालन करनेवाले महर्षे! मैं चाहता हूँ कि आपकी कृपा से अनुगृहीत होकर आप के अभीष्ट मनोरथ को जान लूँ और अपने अभ्युदय के लिये उसकी पूर्ति करूँ। ‘कार्य सिद्ध होगा या नहीं' ऐसे संशय को अपने मन में स्थान न दीजिये।” ।।
५८.
“आप जो भी आज्ञा देंगे, मैं उसका पूर्णरूप से पालन करूँगा; क्योंकि सम्माननीय अतिथि होने के नाते आप मुझ गृहस्थ के लिये देवता हैं। ब्रह्मन्! आज आप के आगमन से मुझे सम्पूर्ण धर्मों का उत्तम फल प्राप्त हो गया। यह मेरे महान् अभ्युदय का अवसर आया है ।” ।।
५९.
मनस्वी नरेश के कहे हुए ये विनययुक्त वचन, जो हृदय और कानों को सुख देने वाले थे, सुनकर विख्यात गुण और यश वाले, शम-दम आदि सद्गुणों से सम्पन्न महर्षि विश्वामित्र बहुत प्रसन्न हुए ।।
इस प्रकार श्रीवाल्मीकि द्वारा निर्मित आर्षरामायण आदिकाव्य के बालकाण्ड में अठारहवाँ सर्ग पूरा हुआ ।।
Sarg 18- Baal Kaand - Valmiki Ramayana Translated in Hindi and made Screen Readable for Blind and Visually Impaired Individuals by Dr T K Bansal
