16. Valmiki Ramayana - Baal Kaand - Sarg 16
ओम् श्री गणेशाय नमः ।।
ओम् श्रीसीतारामचन्द्राभ्याम् नमः ।।
श्रीमद्वाल्मीकीय रामायण – बालकाण्ड ।।
सोलहवाँ सर्ग - ३२ श्लोक ।।
सारांश ।।
देवताओं का श्रीहरि से रावण वध के लिये मनुष्य रूप में अवतीर्ण होने को कहना, राजा के पुत्रेष्टि यज्ञ में अग्नि कुण्ड से प्राजापत्य पुरुष का प्रकट हो कर खीर अर्पण करना और उसे खा कर रानियों का गर्भ वती होना ।।
आरम्भ ।।
श्लोक १ से १० ।।
१.
तदनन्तर उन श्रेष्ठ देवताओं द्वारा इस प्रकार रावण वध के लिये नियुक्त होने पर सर्वव्यापी नारायण ने रावण वध के उपाय को जानते हुए भी देवताओं से यह मधुर वचन कहा – ।।
२.
“देवगण! राक्षस राज रावण के वध के लिये कौन सा उपाय है, जिस का आश्रय लेकर मैं महर्षियों के लिये कण्टक रूप उस निशाचर का वध करूँ?” ।।
३.
उनके इस तरह पूछने पर सब देवता उन अविनाशी भगवान् विष्णु से बोले, “प्रभो! आप मनुष्य का रूप धारण करके युद्ध में रावण को मार डालिये।“ ।।
४.
“उस शत्रु दमन निशाचर ने दीर्घ काल तक तीव्र तपस्या की थी, जिस से सब लोगों के पूर्वज लोक स्रष्टा ब्रह्माजी उस पर प्रसन्न हो गये।” ।।
५.
“उस पर संतुष्ट हुए भगवान् ब्रह्मा ने उस राक्षस को यह वर दिया कि तुम्हें नाना प्रकार के प्राणियों से मनुष्य के सिवा और किसीसे भय नहीं है।” ।।
६.
“पूर्व काल में वरदान लेते समय उस राक्षस ने मनुष्यों को दुर्बल समझ कर उन की अवहेलना कर दी थी । इस प्रकार पितामह से मिले हुए वरदान के कारण उस का घमण्ड बढ़ गया है।” ।।
७.
“शत्रुओं को संताप देने वाले देव! वह तीनों लोकों को पीड़ा देता और स्त्रियों का भी अपहरण कर लेता है; अतः, उसका वध मनुष्य के हाथ से ही निश्चित हुआ है।“ ।।
८.
समस्त जीवात्माओं को वश में रखने वाले भगवान् विष्णु ने देवताओं की यह बात सुनकर अवतार काल में राजा दशरथ को ही पिता बनाने की इच्छा की थी। ।।
९.
उसी समय वे शत्रुसूदन महातेजस्वी नरेश पुत्रहीन होने के कारण पुत्रप्राप्ति की इच्छा से पुष्ट कर रहे थे ।।
१०.
उन्हें पिता बनाने का निश्चय करके भगवान् विष्णु पितामह की अनुमति ले देवताओं और महर्षियों से पूजित हो वहाँ से अन्तर्ध्यान हो गये ।।
श्लोक ११ से २० ।।
११.
तत्पश्चात् पुत्रेष्टि यज्ञ करते हुए राजा दशरथ के यज्ञ में अग्निकुण्ड से एक विशालकाय पुरुष प्रकट हुआ। उस के शरीर में इतना प्रकाश था, जिस की कहीं कोइ तुलना नहीं थी । उसका बल- पराक्रम महान् था ।।
१२.
उस की अंगकान्ति काले रंग की थी। उसने अपने शरीर पर लाल वस्त्र धारण कर रखे थे। उस का मुख भी लाल ही था । उस की वाणी से दुन्दुभि के समान गम्भीर ध्वनि प्रकट हो रही थी। उस के रोम, दाढ़ी-मूँछ और बड़े-बड़े केश चिकने और सिंह के समान थे ।।
१३.
वह शुभ लक्षणों से सम्पन्न, दिव्य आभूषणों से विभूषित, शैल शिखर के समान ऊँचा तथा गर्वीले सिंह के समान चलने वाला था ।।
१४ से १५.
उस की आकृति सूर्य के समान तेजोमयी थी। वह प्रज्वलित अग्नि की लपटों के समान देदीप्यमान हो रहा था। उस के हाथ में तपाये हुए जाम्बूनद नामक सुवर्ण की बनी हुई परात थी, जो चांदी के ढक्कन से ढँकी हुई थी। वह (परात) थाली बहुत बड़ी थी और दिव्य खीर से भरी हुइ थी। उसे उस पुरुष ने स्वयम् अपनी दोनों भुजाओं पर इस तरह उठा रखा था, मानो कोई रसिक अपनी प्रियतमा पत्नी को अङ्क में लिये हुए हो। वह अद्भुत परात मायामयी- सी जान पड़ती थी ।।
१६.
उस ने राजा दशरथ की ओर देख कर कहा, “नरेश्वर! मुझे प्रजापति लोक का पुरुष जानो । मैं प्रजापति की ही आज्ञा से यहाँ आया हूँ” ।।
१७.
तब राजा दशरथ ने हाथ जोड़ कर उस से कहा, “भगवन्! आप का स्वागत है । कहिये, मैं आप की क्या सेवा करूँ?” ।।
१८.
फिर उस प्राजापत्य पुरुष ने पुनः यह बात कही, “राजन् ! तुम देवताओं की आराधना करते हो; इसी लिये तुम्हें आज यह वस्तु प्राप्त हुई है।“ ।।
१९.
“नृपश्रेष्ठ! यह देवताओं की बनायी हुई खीर है, जो संतान की प्राप्ति कराने वाली है। तुम इसे ग्रहण करो। यह धन और आरोग्य की भी वृद्धि करने वाली है।” ।।
२०.
“राजन्! यह खीर अपनी योग्य पत्नियों को दो और कहो तुमलोग इसे खाओ । ऐसा करने पर उन के गर्भ से आप को अनेक पुत्रों की प्राप्ति होगी, जिन के लिये तुम यह यज्ञ कर रहे हो” ।।
श्लोक २१ से ३० ।।
२१ से २२.
राजा ने प्रसन्नता पूर्वक “बहुत अच्छा” कह कर उस दिव्य पुरुष की दी हुई देवान्न से परिपूर्ण सोने की थाली को ले कर उसे अपने मस्तक पर धारण किया । फिर उस अद्भुत एवम् प्रियदर्शन पुरुष को प्रणाम करके बड़े आनन्द के साथ उस की परिक्रमा की ।।
२३ से २४.
इस प्रकार देवताओं की बनायी हुई उस खीर को पाकर राजा दशरथ बहुत प्रसन्न हुए, मानो निर्धन को धन मिल गया हो। इसके बाद वह परम तेजस्वी अद्भुत पुरुष अपना वह काम पूरा करके वहीं अन्तर्धयान हो गया ।।
२५.
उस समय राजा के अन्तः पुर की स्त्रियाँ हर्षोल्लास से बढ़ी हुई कान्तिमयी किरणों से प्रकाशित हो उठीक उसी तरह शोभा पाने लगीं, जैसे शर त्काल के नयनाभिराम चन्द्रमा की रम्य रश्मियों से उद्भासित होने वाला आकाश सुशोभित होता है ।।
२६.
राजा दशरथ वह खीर लेकर अन्तः पुर में गये और रानी कौसल्या से बोले, “देवि! यह अपने लिये पुत्र की प्राप्ति कराने वाली खीर ग्रहण करो” ।।
२७.
ऐसा कह कर नरेश ने उस समय उस खीर का आधा भाग महारानी कौसल्या को दे दिया। फिर बचे हुए आधे का आधा भाग रानी सुमित्रा को अर्पण किया ।।
२८ से २९.
उन दोनों को देने के बाद जितनी खीर बच रही, उस का आधा भाग तो उन्हों ने पुत्रप्राप्ति के उद्देश्य से कैकेयी को दे दिया। तत्पश्चात् उस खीर का जो अवशिष्ट आधा भाग था, उस अमृतोपम भाग को महाबुद्धिमान् नरेश ने कुछ सोच-विचार कर पुनः सुमित्रा को ही अर्पित कर दिया। इस प्रकार राजा ने अपनी सभी रानियों को अलग-अलग खीर बाँट दी ।।
३०.
महाराज की उन सभी साध्वी रानियों ने उन के हाथ से वह खीर पाकर अपना सम्मान समझा। उन के चित्त में अत्यन्त हर्षोल्लास छा गया ॥ ॥
श्लोक ३१ से ३२ ।।
३१.
उस उत्तम खीर को खाकर महाराज की उन तीनों साध्वी महारानियों ने शीघ्र ही पृथक्-पृथक् गर्भ धारण किया। उन के वे गर्भ अग्नि और सूर्य के समान तेजस्वी थे ।।
३२.
तदनन्तर अपनी उन रानियों को गर्भ्वती देख राजा दशरथ को बड़ी प्रसन्नता हुई। उन्होंने समझा, मेरा मनोरथ सफल हो गया। जैसे स्वर्ग में इन्द्र, सिद्ध तथा ऋषियों से पूजित हो श्रीहरि प्रसन्न होते हैं, उसी प्रकार भूतल में देवेन्द्र, सिद्ध तथा महर्षियों से सम्मानित हो राजा दशरथ संतुष्ट हुए थे ।।
इस प्रकार श्रीवाल्मीकिनिर्मित आर्षरामायण आदिकाव्य के बालकाण्ड में सोलहवाँ सर्ग पूरा हुआ ।।
Sarg 16- Baal Kaand - Valmiki Ramayana Translated in Hindi and made Screen Readable for Blind and Visually Impaired Individuals by Dr T K Bansal
