15. Valmiki Ramayana - Baal Kaand - Sarg 15

ओम् श्री गणेशाय नमः ।।

ओम् श्रीसीतारामचन्द्राभ्याम् नमः ।।

श्रीमद्वाल्मीकीय रामायण – बालकाण्ड ।।

पन्द्रहवाँ सर्ग - ३४ श्लोक ।।

सारांश ।

ऋष्यश्रृंग द्वारा राजा दशरथ के पुत्रेष्टि यज्ञ का आरम्भ, देवताओं की प्रार्थना से ब्रह्माजी का रावण वध का उपाय ढूँढ़ निकालना तथा भगवान् विष्णु का देवताओं को आश्वासन देना ।।

आरम्भ ।।

श्लोक १ से १० ।।

१.
महात्मा ऋष्यश्रृंग बड़े मेधावी और वेदों के ज्ञाता थे। उन्हों ने थोड़ी देर तक ध्यान लगा कर अपने भावी कर्तव्य का निश्चय किया। फिर ध्यान से विरत हो वे राजा से इस प्रकार बोले, ।।

२.
“महाराज! मैं आप को पुत्र की प्राप्ति कराने के लिये अथर्ववेद के मन्त्रों से पुत्रेष्टि नामक यज्ञ करूँगा । वेदोक्त विधि के अनुसार अनुष्ठान करनेपर वह यज्ञ अवश्य सफल होगा” ।।

३.
यह कह कर उन तेजस्वी ऋषि ने पुत्र प्राप्ति के उद्देश्य से पुत्रेष्टि नामक यज्ञ प्रारम्भ किया और श्रौत विधि के अनुसार अग्नि में आहुति डाली ।।

४.
तब देवता, सिद्ध, गन्धर्व और महर्षिगण विधि के अनुसार अपना-अपना भाग ग्रहण करने के लिये उस यज्ञ में एकत्र हुए ।।

५.
उस यज्ञ सभा में क्रमशः एकत्र होकर (दूसरों की दृष्टि से अदृश्य रहते हुए) सब देवता लोक कर्ता ब्रह्माजी से इस प्रकार बोले, ।।

६.
“भगवन्! रावण नामक राक्षस आपका कृपा प्रसाद पाकर अपने बल से हमसब लोगों को बड़ा कष्ट दे रहा है। हम में इतनी शक्ति नहीं है कि अपने पराक्रम से उस को प्राजित कर सकें” ।।

७.
“प्रभो! आप ने प्रसन्न होकर उसे वर दे दिया है। तब से हम लोग उस वर का सदा समादर करते हुए उस के सारे अपराधों को सहते चले आ रहे हैं” ।।

८.
“उस ने तीनों लोकों के प्राणियों के नाकों में दम कर रखा है । वह दुष्टात्मा जिनको कुछ ऊँची स्थिति में देखता है, उन्हीं के साथ द्वेष करने लगता है। देवराज इन्द्र को परास्त करने की अभिलाषा रखता है” ।।

९.
“आपके वरदान से मोहित हो कर वह इतना उद्दण्ड हो गया है कि ऋषियों, यक्षों, गन्धर्वों, असुरों तथा ब्राह्मणों को पीड़ा देता और उन का अपमान करता फिरता है” ।।

१०.
“सूर्य उस को ताप नहीं पहुँचा सकते । वायु उसके पास जोर से नहीं चलती तथा जिस की उत्ताल तरंगें सदा ऊपर नीचे होती रहती हैं, वह समुद्र भी रावण को देख कर भय के कारण स्तब्ध-सा हो जाता है— उस में कम्पन नहीं होता” ।।

श्लोक ११ से २१ ।।

११.
“वह राक्षस देखने में भी बड़ा भयंकर है । उस से हमें महान् भय प्राप्त हो रहा है; अतः, भगवन्! उस के वध के लिये आप को कोई-न-कोई उपाय अवश्य करना चाहिये” ।।

१२ से १३.
समस्त देवताओं के ऐसा कहने पर ब्रह्माजी कुछ सोच कर बोले, “देवताओ ! लो, उस दुरात्मा के वध का उपाय मेरी समझ में आ गया है । उसने वर माँगते समय यह बात कही थी कि मैं गन्धर्वों, यक्षों, देवताओं तथा राक्षसों के हाथ से न मारा जाऊँ । मैंने भी तथास्तु कहकर उस की प्रार्थना स्वीकार कर ली थी” ।।

१४.
“मनुष्यों को तो वह तुच्छ समझता था, इसलिये उन के प्रति अवहेलना होने के कारण उन से अवध्य होने का वरदान नहीं माँगा । इसलिये अब मनुष्य के हाथ से ही उस का वध होगा । मनुष्य के सिवा दूसरा कोई उस की मृत्यु का कारण नहीं हो सकता” ।।

१५.
ब्रह्माजी की कही हुई यह प्रिय बात सुनकर उस समय समस्त देवता और महर्षि बड़े प्रसन्न हुए ।।

१६ से १७.
इसी समय महान् तेजस्वी जगत्पति भगवान् विष्णु भी मेघ के ऊपर स्थित हुए सूर्य की भाँति गरुड़ पर सवार होकर वहाँ आ पहुँचे । उनके शरीर पर पीताम्बर और हाथों में शङ्ख, चक्र एवम् गदा आदि आयुध शोभा पा रहे थे । उनकी दोनों भुजाओं में तपाये हुए सुवर्ण के बने केयूर प्रकाशित हो रहे थे । उस समय सम्पूर्ण देवताओं ने उन की वन्दना की और वे ब्रह्माजी से मिल कर सावधानी के साथ सभा में विराजमान हो गये ।।

१८.
तब समस्त देवताओं ने विनीत भाव से उनकी स्तुति करके कहा, “सर्वव्यापी परमेश्वर ! हम तीनों लोकों के हित की कामना से आप के ऊपर एक महान् कार्य का भार दे रहे हैं” ।।

१९ से २१.
“प्रभो! अयोध्या के राजा दशरथ धर्मज्ञ, उदार तथा महर्षियों के समान तेजस्वी हैं । उनके तीन रानियाँ हैं जो ह्री, श्री और कीर्ति इन तीन देवियों के समान हैं । विष्णुदेव ! आप अपने चार स्वरूप बनाकर राजा की उन तीनों रानियों के गर्भ से पुत्र रूप में अवतार ग्रहण कीजिये । इस प्रकार मनुष्य रूप में प्रकट होकर आप संसार के लिये प्रबल कण्टक रूप रावण को, जो देवताओं के लिये अवध्य है, समर भूमि में मार डालिये” ।।

श्लोक २२ से ३० ।।

२२.
“वह मूर्ख राक्षस रावण अपने बढ़े हुए पराक्रम से देवताओं, गन्धर्वों, सिद्धों तथा श्रेष्ठ महर्षियों को बहुत कष्ट दे रहा है” ।।

२३.
“उस रौद्र निशाचर ने ऋषियों को तथा नन्दनवन में क्रीड़ा करने वाले गन्धर्वों और अप्सराओं को भी स्वर्ग से भूमि पर गिरा दिया है” ।।

२४.
“इस लिये मुनियों सहित हम सब सिद्ध, गन्धर्व, यक्ष तथा देवता उसके वध केलिये आप की शरण में आये हैं” ।।

२५.
“शत्रुओं को संताप देने वाले देव! आप ही हमसब लोगों की परम गति हैं, अतः, इन देवद्रोहियों का वध करने के लिये आप मनुष्य लोक में अवतार लेने का निश्चय कीजिये” ।।

२६ से २७.
उनके इस प्रकार स्तुति करने पर सर्वलोक- वन्दित देवप्रवर देवाधिदेव भगवान् विष्णु ने वहाँ एकत्रित हुए उन समस्त ब्रह्मा आदि धर्मपरायण देवताओं से कहा, ।।

२८ से २९.
“देवगण! तुम्हारा कल्याण हो । तुम भय को त्याग दो । मैं तुम्हारा हित करने के लिये रावण को पुत्र, पौत्र, अमात्य, मन्त्रियों और बन्धुबान्धवों सहित युद्ध में मार डालूँगा । देवताओं तथा ऋषियों को भय देने वाले उस क्रूर एवम् दुर्धर्ष राक्षस का नाश करके मैं ग्यारह हजार वर्षों तक इस पृथ्वी का पालन करता हुआ मनुष्य लोक में निवास करूँगा” ।।

३०.
देवताओं को ऐसा वर देकर मनस्वी भगवान् विष्णु ने मनुष्य लोक में पहले अपनी जन्मभूमि के सम्बन्ध में विचार किया ।।

श्लोक ३१ से ३४ ।।

३१.
इसके बाद कमलनयन श्रीहरि ने अपने को चार स्वरूपों में प्रकट करके राजा दशरथ को पिता बनाने का निश्चय किया ।।

३२.
तब देवताओं, ऋषिओं, गन्धर्वों, रुद्रओं तथा अप्सराओं ने दिव्य स्तुतियों के द्वारा भगवान् मधुसूदन का स्तवन किया ।।

३३.
वे कहने लगे, “प्रभो! रावण बड़ा उद्दण्ड है । उसका तेज अत्यन्त उम्र और घमण्ड बहुत बढ़ा-चढ़ा है । वह देवराज इन्द्र से सदा द्वेष रखता है । तीनों लोकों को रुलाता रहता है, साधुओं और तपस्वी जनों के लिये तो वह बहुत बड़ा कण्टक है; अतः, तापसों को भय देने वाले उस भयानक राक्षस को आप जड़ से ही उखाड़ डालिये ।।

३४.
“उपेन्द्र! सारे जगत को रुलाने वाले उस उग्र पराक्रमी रावण को सेना और बन्धु- बान्धवों सहित नष्ट करके अपनी स्वाभाविक निश्चिन्तता के साथ अपने ही द्वारा सुरक्षित उस चिरन्तन वैकुण्ठ धाम में आ जाइये; जिसे राग-द्वेष आदि दोषों का कलुष कभी छू नहीं पाता है” ।।

इस प्रकार श्रीवाल्मीकिनिर्मित आर्षरामायण आदिकाव्य के बालकाण्ड में पंद्रहवाँ सर्ग पूरा हुआ ।।

Sarg 15- Baal Kaand - Valmiki Ramayana Translated in Hindi and made Screen Readable for Blind and Visually Impaired Individuals by Dr T K Bansal