11. Valmiki Ramayana - Kishkindha Kaand - Sarg 11

ओम् श्री गणेशाय नमः ।।

ओम् श्री सीतारामचन्द्राभ्याम् नमः ।।

श्रीमद्वाल्मीकीय रामायण – किष्किन्धाकाण्ड ।।

ग्यारहवाँ सर्ग ।।

सारांश ।

सुग्रीव के द्वारा वाली के पराक्रम का वर्णन, वाली का दुन्दुभि दैत्य को मार कर उस की लाश को मतङ्ग वन में फेंकना, मतङ्ग मुनि का वाली को शाप देना, श्रीराम का दुन्दुभि के अस्थिसमूह को दूर फेंकना और सुग्रीव का उन से साल भेदन के लिये आग्रह करना ।।

आरम्भ ।।

श्लोक १ से १० ।।

१.
श्रीरामचन्द्रजी का वचन हर्ष और पुरुषार्थ को बढ़ाने वाला था, उसे सुन कर सुग्रीव ने उस के प्रति अपना आदर प्रकट किया और श्री रघुनाथजी की इस प्रकार प्रशंसा की - ।।

२.
“प्रभो! आप के बाण प्रज्वलित, तीक्ष्ण एवम् मर्मभेदी हैं। यदि आप कुपित हो जायँ तो इन के द्वारा प्रलय काल के सूर्य की भाँति समस्त लोकों को भस्म कर सकते हैं। इस में संशय की बात नहीं है।” ।।

३.
“परंतु वाली का जैसा पुरुषार्थ है, जो बल है और जैसा धैर्य है, वह आप सब एक चित्त हो कर सुन लीजिये। उस के बाद जैसा उचित हो, कीजियेगा।” ।।

४.
“वाली सूर्योदय के पहले ही पश्चिम समुद्र से पूर्व समुद्र तक और दक्षिण सागर से उत्तर तक घूम आता है; फिर भी वह थकता नहीं है।” ।।

५.
“पराक्रमी वाली पर्वतों की चोटियों पर चढ़ कर बड़े-बड़े शिखरों को बल पूर्वक उठा लेता है और ऊपर को उछाल कर फिर उन्हें हाथों से थाम लेता है।” ।।

६.
“वनों में नाना प्रकार के जो बहुत से सुदृढ़ वृक्ष थे, उन्हें अपने बल को प्रकट करते हुए वाली ने वेग पूर्वक तोड़ डाला है।” ।।

७.
“पहले की बात है यहाँ एक दुन्दुभि नाम का असुर रहता था, जो भैंसे के रूप में दिखायी देता था। वह ऊँचाइ में कैलास पर्वत के समान जान पड़ता था। पराक्रमी दुन्दुभि अपने शरीर में एक हजार हाथियों का बल रखता था।” ।।

८.
“बल के घमंड में भरा हुआ वह विशाल काय दुष्टात्मा दानव अपने को मिले हुए वरदान से मोहित हो सरिताओं के स्वामी समुद्र के पास गया।” ।।

९.
“जिस में ऊंची ऊंची तरंगें उठ रही थीं तथा जो रत्नों की निधि हैं, उस महान् जल राशि से परिपूर्ण समुद्र को लाँघ कर, उसे कुछ भी न समझ कर, दुन्दुभि ने उस के अधिष्ठाता देवता से कहा, “मुझे अपने साथ युद्ध का अवसर दो।” ।।

१०.
“राजन्! उस समय महान् बलशाली धर्मात्मा समुद्र उस काल प्रेरित असुर से इस प्रकार बोला—" ।।

श्लोक ११ से २० ।।

११.
“युद्धविशारद वीर! मैं तुम्हें युद्ध का अवसर देने में असमर्थ हूँ । जो तुम्हें युद्ध प्रदान करेगा , उसका नाम बतलाता हूँ , सुनो” ।।

१२ से १३.
“विशाल वन में जो पर्वतों का राजा और भगवान् शंकर का श्वशुर है, तपस्वी जनों का सब से बड़ा आश्रय और संसार में हिमवान् नाम से विख्यात है, जहाँ से जल के बड़े - बड़े स्रोत प्रकट हुए हैं । तथा जहाँ बहुत - सी कन्दराएँ और झरने हैं, वह गिरिराज हिमालय ही तुम्हारे साथ युद्ध करने में समर्थ है । वह तुम्हें अनुपम प्रीति प्रदान कर सकता है।” ।।

१४ से १५.
“यह सुन कर असुरशिरोमणि दुन्दुभि समुद्र को डरा हुआ जान कर धनुष से छूटे हुए बाण की भाँति तुरंत हिमालय के वन में जा पहुँचा और उस पर्वत की गजराजों के समान विशाल श्वेत शिलाओं को बारंबार भूमि पर फेंकने और गर्जना करने लगा।” ।।

१६.
“तब श्वेत बादल के समान आकार धारण किये सौम्य स्वभाव वाले हिमवान् वहाँ प्रकट हुए । उन की आकृति प्रसन्नता को बढ़ानेवाली थी । वे अपने ही शिखर पर खड़े हो कर बोले-” ।।

१७.
“धर्मवत्सल दुन्दुभे! तुम मुझे क्लेश न दो । मैं युद्ध कर्म में कुशल नहीं हूँ । मैं तो केवल तपस्वी जनों का निवास स्थान हूँ।” ।।

१८.
“बुद्धिमान् गिरिराज हिमालय की यह बात सुन कर दुन्दुभि के नेत्र क्रोध से लाल हो गये और वह इस प्रकार बोला” ।।

१९.
“यदि तुम युद्ध करने में असमर्थ हो अथवा मेरे भय से ही युद्ध की चेष्टा से विरत हो गये हो तो मुझे उस वीर का नाम बताओ, जो युद्ध की इच्छा रखने वाले मुझ को अपने साथ युद्ध करने का अवसर दे।” ।।

२०.
“उस की यह बात सुन कर बातचीत में कुशल धर्मात्मा हिमवान् ने श्रेष्ठ असुर से, जिस के लिये पहले किसी ने किसी प्रतिद्वन्द्वी योद्धा का नाम नहीं बताया था, क्रोध पूर्वक कहा -” ।।

श्लोक २१ से ३० ।।

२१.
“महाप्राज्ञ दानव राज! वाली नाम से प्रसिद्ध एक परम तेजस्वी और प्रतापी वानर हैं , जो देवराज इन्द्र के पुत्र हैं और अनुपम शोभा से पूर्ण किष्किन्धा नामक पुरी में निवास करते हैं।” ।।

२२.
“वे बड़े बुद्धिमान् और युद्ध की कला में निपुण हैं । वे ही तुम से जूझने में समर्थ हैं । जैसे इन्द्र ने नमुचि को युद्ध का अवसर दिया था, उसी प्रकार वाली तुम्हें द्वन्द्व युद्ध प्रदान कर सकते हैं।” ।।

२३.
“यदि तुम यहाँ युद्ध चाहते हो तो शीघ्र चले जाओ; क्यों कि वाली के लिये किसी शत्रु की ललकार को सह सकना बहुत कठिन है । वे युद्ध कर्म में सदा शूरता प्रकट करने वाले हैं।” ।।

२४.
“ हिमवान की बात सुन कर क्रोध से भरा हुआ दुन्दुभि तत्काल वाली की किष्किन्धापुरी में जा पहुँचा ।।

२५.
“उस ने भैंसे का सा रूप धारण कर रखा था । उस के सींग बड़े तीखे थे । वह बड़ा भयंकर था और वर्षा काल के आकाश में छाये हुए जल से भरे महान् मेघ के समान जान पड़ता था।” ।।

२६.
“वह महाबली दुन्दुभि किष्किन्धापुरी के द्वार पर आ कर भूमि को कँपाता हुआ जोर – जोर से गर्जना करने लगा , मानो दुन्दुभि का गम्भीर नाद हो रहा हो।” ।।

२७.
“वह आस पास के वृक्षों को तोड़ता, धरती को खुरों से खोदता और घमंड में आ कर पुरी के दरवाजे को सींगों से खरोंचता हुआ युद्ध के लिये डट गया।” ।।

२८.
“वाली उस समय अन्तःपुर में था । उस दानव की गर्जना सुन कर वह अमर्ष से भर गया और तारों से घिरे हुए चन्द्रमा की भाँति स्त्रियों से घिरा हुआ नगर के बाहर निकल आया।” ।।

२९.
“समस्त वनचारी वानरों के राजा वाली ने वहाँ सुस्पष्ट अक्षरों तथा पदों से युक्त परिमित वाणी में उस दुन्दुभि से कहा” ।।

३०.
“महाबली दुन्दुभे! मैं तुम्हें अच्छी तरह जानता हूँ । तुम इस नगर द्वार को रोक कर क्यों गरज रहे हो ? अपने प्राणों की रक्षा करो।” ।।

श्लोक ३१ से ४० ।।

३१.
“बुद्धिमान् वानर राज वाली का यह वचन सुन कर दुन्दुभि की आँखें क्रोध से लाल हो गयीं । वह उस से इस प्रकार बोला-” ।।

३२.
“वीर! तुम्हें स्त्रियों के समीप ऐसी बात नहीं कहनी चाहिये । मुझे युद्ध का अवसर दो , तब मैं तुम्हारा बल समझूंगा।”।।

३३.
“अथवा वानर! मैं आज की रात में अपने क्रोध को रोके रहूँ गा। तुम स्वेच्छानुसार काम भोग के लिये सूर्योदयतक समय मुझसे ले लो।” ।।

३४.
“वानरों को हृदय से लगा कर जिसे जो कुछ देना हो दे दो; तुम समस्त कपियों के राजा हो न! अपने सुहृदों से मिल लो , सलाह कर लो।” ।।

३५.
“किष्किन्धापुरी को अच्छी तरह देख लो। अपने समान पुत्र आदि को इस नगरी के राज्य पर अभिषिक्त कर दो और स्त्रियों के साथ आज जी भर कर क्रीडा कर लो। इस के बाद मैं तुम्हारा घमंड चूर कर दूँगा।” ।।

३६.
“जो मधुपान से मत्त, प्रमत्त (असावधान), युद्ध से भगे हुए, अस्त्ररहित, दुर्बल, तुम्हारे जैसे स्त्रियों से घिरे हुए तथा मदमोहित पुरुष का वध करता है, वह जगत्में गर्भ - हत्यारा कहा जाता है” ।।

३७.
“यह सुन कर वाली मन्द - मन्द मुसकरा कर उन तारा आदि सब स्त्रियों को दूर हटा उस असुर राज से क्रोध पूर्वक बोला-” ।।

३८.
“यदि तुम युद्ध के लिये निर्भय हो कर खड़े हो तो यह न समझो कि यह वाली मधु पी कर मतवाला हो गया है। मेरे इस मद को तुम युद्ध स्थल में उत्साह वृद्धि के लिये वीरों द्वारा किया जाने वाला औषध विशेष का पान समझो।” ।।

३९.
“उस से ऐसा कह कर पिता इन्द्र की दी हुई विजय दायिनी सुवर्ण माला को गले में डाल कर वाली कुपित हो युद्ध के लिये खड़ा हो गया” ।।

४०.
“कपिश्रेष्ठ वाली ने पर्वताकार दुन्दुभि के दोनों सींग पकड़ कर उस समय गर्जना करते हुए उसे बारंबार घुमाया” ।।

श्लोक ४१ से ५० ।।

४१.
“फिर बल पूर्वक उसे धरती पर दे मारा और बड़े जोर से सिंहनाद किया। पृथ्वी पर गिराये जाते समय उस के दोनों कानों से खून की धाराएँ बहने लगीं।” ।।

४२.
“क्रोध के आवेश से युक्त हो एक दूसरे को जीतने की इच्छा वाले उन दोनों दुन्दुभि और वाली में घोर युद्ध होने लगा।” ।।

४३.
“उस समय इन्द्र के तुल्य पराक्रमी वाली दुन्दुभि पर मुक्कों, लातों, घुटनों, शिलाओं तथा वृक्षों से प्रहार करने लगा।” ।।

४४.
“उस युद्ध स्थल में परस्पर प्रहार करते हुए वानर और असुर दोनों योद्धाओं में से असुर की शक्ति तो घटने लगी और इन्द्रकुमार वाली का बल बढ़ने लगा।” ।।

४५.
“उन दोनों में वहाँ प्राणान्त कारी युद्ध छिड़ गया। उस समय वाली ने दुन्दुभि को उठा कर पृथ्वी पर दे मारा, साथ ही अपने शरीर से उस को दबा दिया, जिस से दुन्दुभि पिस गया।” ।।

४६.
“गिरते समय उस के शरीर के समस्त छिद्रों से बहुत सा रक्त बहने लगा। वह महाबाहु असुर पृथ्वी पर गिरा और मर गया।” ।।

४७.
“जब उस के प्राण निकल गये और चेतना लुप्त हो गयी, तब वेगवान् वाली ने उसे दोनों हाथों से उठा कर एक साधारण वेग से एक योजन दूर फेंक दिया।” ।।

४८.
“वेगपूर्वक फेंके गये उस असुर के मुख से निकली हुइ रक्त की बहुत सी बूँदें हवा के साथ उड़ कर मतंग मुनि के आश्रम में पड़ गयीं।” ।।

४९.
“महाभाग! वहाँ पड़े हुए उन रक्त बिन्दुओं को देख कर मतंग मुनि कुपित हो उठे और इस विचार में पड़ गये कि “यह कौन है, जो यहाँ रक्त के छींटे डाल गया है?” ।।

५०.
“जिस दुष्ट ने सहसा मेरे शरीर से रक्त का स्पर्श करा दिया है, यह दुरात्मा, दुर्बुद्धि, अजितात्मा और मूर्ख कौन है?” ।।

श्लोक ५१ से ६० ।।

५१.
“ऐसा कह कर मुनिवर मतंग ने बाहर निकल कर देखा तो उन्हें एक पर्वताकार भैंसा पृथ्वी पर प्राण हीन हो कर पड़ा दिखायी दिया।” ।।

५२.
“उन्होंने अपने तपो बल से यह जान लिया कि यह एक वानर की करतूत है। अतः, उस लाश को फेंकने वाले वानर के प्रति उन्हों ने बड़ा भारी शाप दिया-” ।।

५३.
“जिसने खून के छींटे डाल कर मेरे निवास स्थान, इस वन को अपवित्र कर दिया है, वह आज से इस वन में प्रवेश न करे। यदि इस में प्रवेश करेगा तो उस का वध हो जायगा।” ।।

५४.
“इस असुर के शरीर को इधर फेंक कर जिस ने इन वृक्षों को तोड़ डाला है, वह दुर्बुद्धि यदि मेरे आश्रम के चारों ओर पूरे एक योजन तक की भूमि में पैर रखे गा तो अवश्य ही अपने प्राणों से हाथ धो बैठेगा।” ।।

५५ से ५६.
“उस वाली के जो कोई सचिव भी मेरे इस वन में रहते हों, उन्हें अब यहाँ का निवास त्याग देना चाहिये। वे मेरी आज्ञा सुन कर सुख पूर्वक यहाँ से चले जायँ। यदि वे रहें गे तो उन्हें भी निश्चय ही शाप दे दूँगा।” ।।

५७.
“मैंने अपने इस वन की सदा पुत्रों की भाँति रक्षा की है। जो इस के पत्र और अड्डुर का विनाश तथा फल-मूल का अभाव करने के लिये यहाँ रहेंगे, वे अवश्य शाप के भागी होंगे।” ।।

५८.
“आज का दिन उन सब के आने जाने या रहने की अन्तिम अवधि है-आज भर के लिये मैं उन सब को छुट्टी देता हूँ। कल से जो कोई वानर यहाँ मेरी दृष्टि में पड़ जाय गा, वह कइ हजार वर्षों के लिये पत्थर हो जायगा।” ।।
५९.
“मुनि के इस वचन को सुन कर वे सभी वानर मतंग वन से निकल गये । उन्हें देख कर वाली ने पूछा-” ।।

६०.
“मतंग वन में निवास करने वाले आप सभी वानर मेरे पास क्यों चले आये? वनवासियों की कुशल तो है न ?“ ।।

श्लोक ६१ से ७१ ।।

६१.
“तब उन सभी वानरों ने सुवर्ण माला धारी वाली से अपने आने का सब कारण बताया तथा जो वाली को शाप हुआ था, उसे भी कह सुनाया।” ।।

६२.
“वानरों की कही हुई यह बात सुन कर वाली महर्षि मतंग के पास गया और हाथ जोड़ कर क्षमा - याचना करने लगा।” ।।

६३.
“किंतु महर्षि ने उस का आदर नहीं किया । वे चुपचाप अपने आश्रम में चले गये। इधर वाली शाप प्राप्त होने से भयभीत हो बहुत ही व्याकुल हो गया।” ।।

६४.
“नरेश्वर! तब से उस शाप के भय से डरा हुआ वाली इस महान् पर्वत ऋष्यमूक के स्थानों में न तो कभी प्रवेश करना चाहता है और न इस पर्वत को देखना ही चाहता है।” ।।

६५.
“श्रीराम! यहाँ उस का प्रवेश होना असम्भव है , यह जान कर मैं अपने मन्त्रियों के साथ इस महान् वन में विषाद - शून्य हो कर विचरता हूँ।” ।।

६६.
“यह रहा दुन्दुभि की हड्डियों का ढेर, जो एक महान् पर्वत शिखर के समान जान पड़ता है। वाली ने अपने बल के घमंड में आ कर दुन्दुभि के शरीर को इतनी दूर फेंका था।” ।।

६७.
“ये सात साल के विशाल एवम् मोटे वृक्ष हैं, जो अनेक उत्तम शाखाओं से सुशोभित होते हैं। वाली इनमें से एक – एक को बल पूर्वक हिला कर पत्र हीन कर सकता है।” ।।

६८.
“श्रीराम! यह मैंने वाली के अनुपम पराक्रम को प्रकाशित किया है। नरेश्वर ! आप उस वाली को समराङ्गणमें कैसे मार सकेंगे!” ।।

६९.
सुग्रीव के ऐसा कहने पर लक्ष्मण को बड़ी हँसी आयी। वे हँसते हुए ही बोले, “ कौन सा काम कर देने पर तुम्हें विश्वास होगा कि श्रीरामचन्द्रजी वाली का वध कर सकेंगे?” ।।

७० से ७१.
तब सुग्रीव ने उन से कहा, “ पूर्व काल में वाली ने साल के इन सातों वृक्षों को एक - एक कर के कई बार बींध डाला है। अतः, श्रीरामचन्द्रजी भी यदि इन में से किसी एक वृक्ष को एक ही बाण से छेद डालें गे तो इन का पराक्रम देख कर मुझे वाली के मारे जाने का विश्वास हो जायगा।” ।।

श्लोक ७२ से ८० ।।

७२.
“लक्ष्मण! यदि इस महिष रूप धारी दुन्दुभि की हड्डी को एक ही पैर से उठा कर बल पूर्वक दो सौ धनुष की दूरी पर फेंक सकें तो भी मैं यह मान लूँगा कि इनके हाथ से वाली का वध हो सकताहै।” ।।

७३.
जिन के नेत्र प्रान्त कुछ-कुछ लाल थे, उन श्रीराम से ऐसा कह कर सुग्रीव दो घड़ी तक कुछ सोचविचार में पड़े रहे। इस के बाद वे ककुत्स्थ कुल भूषण श्रीराम से फिर बोले- ।।

७४.
“वाली शूर है और स्वयं भी उसे अपने शौर्य पर अभिमान है। उस के बल और पुरुषार्थ विख्यात हैं। वह बलवान् वानर अब तक के युद्धों में कभी पराजित नहीं हुआ है।” ।।

७५.
“इस के ऐसे-ऐसे कर्म देखे जाते हैं, जो देवताओं के लिये भी दुष्कर हैं और जिन का चिन्तन कर के भयभीत हो मैंने इस ऋष्यमूक पर्वत की शरण ली है।” ।।

७६.
“वानर राज वाली को जीतना दूसरों के लिये असम्भव है। उस पर आक्रमण अथवा उस का तिरस्कार भी नहीं किया जा सकता। वह शत्रु की ललकार को नहीं सह सकता। जब मैं उस के प्रभाव का चिन्तन करता हूँ, तब इस ऋष्यमूक पर्वत को एक क्षण के लिये भी छोड़ नहीं पाता हूँ।” ।।

७७.
“ये हनुमान् आदि मेरे श्रेष्ठ सचिव मुझ में अनुराग रखने वाले हैं। इनके साथ रह कर भी मैं इस विशाल वन में वालीसे उद्विग्न और शङ्कित हो कर ही विचरता हूँ।” ।।

७८.
“मित्र वत्सल! आप मुझे परम स्पृहणीय श्रेष्ठ मित्र मिल गये हैं। पुरुषसिंह! आप मेरे लिये हिमालय के समान हैं और मैं आप का आश्रय ले चुका हूँ। (इस लिये अब मुझे निर्भय हो जाना चाहिये)"” ।।

७९.
“किंतु रघुनन्दन! मैं उस बलशाली दुष्ट भ्राता के बल-पराक्रम को जानता हूँ और समर भूमि में आप का पराक्रम मैंने प्रत्यक्ष नहीं देखा है।”। ।।

८०.
“प्रभो! अवश्य ही मैं वाली से आप की तुलना नहीं करता हूँ। न तो आप को डराता हूँ और न आप का अपमान ही करता हूँ। वाली के भयानक कर्मों ने ही मेरे हृदय में कातरता उत्पन्न कर दी है।” ।।

श्लोक ८१ से ९० ।।

८१.
“रघुनन्दन! निश्चय ही आप की वाणी मेरे लिये प्रमाणभूत है-विश्वसनीय है; क्योंकि आपका धैर्य और आपकी यह दिव्य आकृति आदि गुण राखसे ढकी हुई आग के समान आप के उत्कृष्ट तेज को सूचित कर रहे हैं।” ।।

८२.
महात्मा सुग्रीव की यह बात सुन कर भगवान् श्रीराम पहले तो मुसकराये। फिर उस वानर की बात का उत्तर देते हुए उस से बोले- ।।

८३.
“वानर! यदि तुम्हें इस समय पराक्रम के विषय में हम लोगों पर विश्वास नहीं होता तो युद्ध के समय हम तुम्हें उस का उत्तम विश्वास करा देंगे।” ।।

८४ से ८५.
ऐसा कह कर सुग्रीव को सान्त्वना देते हुए लक्ष्मण के बड़े भाई महाबाहु बलवान् श्री रघुनाथजी ने खिलवाड़ में ही दुन्दुभि के शरीर को अपने पैर के अँगूठे से टांग लिया और उस असुर के उस सूखे हुए कङ्काल को पैर के अँगूठे से ही दस योजन दूर फेंक दिया ।।

८६.
उस के शरीर को फेंका गया देख सुग्रीव ने लक्ष्मण और वानरों के सामने ही तपते हुए सूर्य के समान तेजस्वी वीर श्रीरामचन्द्रजी से पुनः यह अर्थ भरी बात कही- ।।

८७.
“सखे! मेरा भाई वाली उस समय मदमत्त और युद्ध से थका हुआ था और दुन्दुभि का यह शरीर खून से भीगा हुआ, मांसयुक्त तथा नया था। इस दशा में उस ने इस शरीर को पूर्व काल में दूर फेंका था ।।

८८.
“परंतु रघुनन्दन! इस समय यह मांसहीन होने के कारण तिनके के समान हलका हो गया है और आप ने हर्ष एवम् उत्साह से युक्त हो कर इसे फेंका है।” ।।

८९.
“अतः, श्रीराम! इस लाश को फेंकने पर भी यह नहीं जाना जा सकता कि आप का बल अधिक है या उसका; क्योंकि वह गीला था और यह सूखा। यह इन दोनों अवस्थाओं में महान् अन्तर है।” ।।

९०.
“तात! आप के और उस के बल में वही संशय अब तक बना रह गया है। अब इस एक साल वृक्ष को विदीर्ण कर देने पर दोनों के बलाबल का स्पष्टीकरण हो जायगा।” ।।

श्लोक ९१ से ९३ ।।

९१.
“आपका यह धनुष हाथी की फैली हुई सूंड़ के समान विशाल है। आप इस पर प्रत्यञ्चा चढ़ाइये और इसे कान तक खींच कर साल वृक्ष को लक्ष्य कर के एक विशाल बाण छोड़िये।” ।।

९२.
“इसमें संदेह नहीं कि आप का छोड़ा हुआ बाण इस साल वृक्ष को विदीर्ण कर देगा। राजन्! अब विचार करने की आवश्यकता नहीं है। मैं अपनी शपथ दिला कर कहता हूँ, आप मेरा यह प्रिय कार्य अवश्य कीजिये।” ।।

९३.
“जैसे सम्पूर्ण तेजों में सदा सूर्यदेव ही श्रेष्ठ हैं, जैसे बड़े-बड़े पर्वतों में गिरिराज हिमवान् श्रेष्ठ हैं, और जैसे चौपायों में सिंह श्रेष्ठ है, उसी प्रकार पराक्रम के विषय में सब मनुष्यों में आप ही श्रेष्ठ हैं।” ।।

इस प्रकार श्रीवाल्मीकि निर्मित आर्षरामायण आदिकाव्य के किष्किन्धाकाण्ड में ग्यारहवाँ सर्ग पूरा हुआ ।।

Sarg 11 - Kishkindha Kaand - Valmiki Ramayana Translated in Hindi and made Screen Readable for Blind and Visually Impaired Individuals by Dr T K Bansal.