20. Valmiki Ramayana - Sundar Kaand - Sarg 20
ओम् श्री गणेशाय नमः ।।
ओम् श्रीसीतारामचन्द्राभ्याम् नमः ।।
श्रीमद्वाल्मीकीय रामायण – सुन्दरकाण्ड ।।
बीसवाँ सर्ग – ३६ श्लोक ।।
सारांश ।।
रावण का सीताजी को प्रलोभन ।।
आरम्भ ।।
श्लोक १ से १० ।।
१.
राक्षसियों से घिरी हुई दीन और आनन्दशून्य तपस्विनी सीताजी को सम्बोधित करके रावण अभिप्राययुक्त मधुर वचनों द्वारा अपने मन का भाव प्रकट करने लगा ।।
२.
“हाथी की सूंड़ के समान सुन्दर जाँघों वाली सीते! मुझे देखते ही तुम अपने स्तन और उदर को इस प्रकार छिपाने लगी हो, मानो डरके मारे अपने को अदृश्य कर देना चाहती हो” ।।
३.
“किंतु विशाल लोचने! मैं तो तुम्हें चाहता हूँ, तुमसे प्रेम करता हूँ। समस्त संसार का मन मोहने वाली सर्वांग सुन्दरी प्रिये! तुम भी मुझे विशेष आदर दो मेरी प्रार्थना स्वीकार करो” ।।
४.
“यहां तुम्हारे लिये कोई भय नहीं है। इस स्थान में न तो मनुष्य आ सकते हैं, न इच्छानुसार रूप धारण करने वाले दूसरे राक्षस ही, केवल मैं ही आ सकता हूँ। परन्तु, सीते! मुझसे जो तुम्हें भय हो रहा है, वह तो दूर हो ही जाना चाहिये” ।।
५.
“भीरु! (तुम यह न समझो कि मैंने कोई अधर्म किया है) परायी स्त्रियों के पास जाना अथवा बलात् उन्हें हर लाना यह राक्षसों का सदा ही अपना धर्म रहा है इस में संदेह नहीं है” ।।
६.
“मिथिलेश नन्दिनि! ऐसी अवस्था में भी जब तक तुम मुझे न चाहोगी, तब तक मैं तुम्हारा स्पर्श नहीं करूँगा। भले ही कामदेव मेरे शरीर पर इच्छानुसार अत्याचार करे” ।।
७.
“देवि! इस विषय में तुम्हें भय नहीं करना चाहिये। प्रिये! मुझ पर विश्वास करो और यथार्थ रूप से प्रेमदान दो। इस तरह शोक से व्याकुल न हो जाओ” ।।
८.
“एक वेणी धारण करना, नीचे पृथ्वी पर सोना, चिन्ता मग्नरु रहना, मैले वस्त्र पहनना और बिना अवसर के उपवास करना – ये सब बातें तुम्हारे योग्य नहीं हैं” ।।
९ से १०.
“मिथिलेशकुमारी! मुझे पाकर तुम विचित्र पुष्प माला, चन्दन, अगुरु, नाना प्रकार के वस्त्र, दिव्य आभूषण, बहुमूल्य पेय, शय्या, आसन, नाच, गान और वाद्य का सुख भोगो गी” ।।
श्लोक ११ से २० ।।
११.
“तुम स्त्रियों में रत्न हो। इस तरह मलिन वेष में न रहो। अपने अंगों में आभूषण धारण करो। सुन्दरि! मुझे पा कर भी तुम भूषण आदि से असम्मानित कैसे रहो गी!” ।।
१२.
“यह तुम्हारा नवोदित सुन्दर यौवन बीता जा रहा है। जो बीत जाता है, वह नदियों के प्रवाह की भांति फिर लौट कर नहीं आता है” ।।
१३.
“शुभदर्शने! मैं तो ऐसा समझता हूँ कि रूप की रचना करने वाला लोक स्रष्टा विधाता तुम्हें बना कर फिर उस कार्य से विरत हो गया; क्योंकि तुम्हारे रूप की समता करने वाली दूसरी कोइ स्त्री नहीं है” ।।
१४.
“विदेहनन्दिनि! रूप और यौवन से सुशोभित होने वाली तुमको पा कर कौन ऐसा पुरुष है, जो धैर्य से विचलित न होगा। भले ही वह साक्षात् ब्रह्मा ही क्यों न हो” ।।
१५.
“चन्द्रमा के समान मुख वाली सुमध्यमे! मैं तुम्हारे जिस-जिस अंग को देखता हूँ, उसी उसी में मेरे नेत्र उलझ जाते हैं” ।।
१६.
“मिथिलेशकुमारी! तुम मेरी भार्यां बन जाओ। पतिव्रत्य के इस मोह को छोड़ो। मेरे यहाँ बहुत-सी सुन्दर रानियाँ हैं। तुम उन सब में श्रेष्ठ पटरानी बनो” ।।
१७.
“भीरु! मैं अनेक लोकों से उन्हें मथ कर जो-जो रत्न लाया हूँ, वे सब तुम्हारे ही होंगे और यह राज्य भी मैं तुम्हीं को समर्पित कर दूँगा” ।।
१८.
“विलासिनि! तुम्हारी प्रसन्नता के लिये मैं विभिन्न नगरों की मालाओं से अलंकृत इस सारी पृथ्वी को जीत कर राजा जनक के हाथ में सौंप दूंगा” ।।
१९.
“इस संसार में मैं किसी दूसरे ऐसे पुरुष को नहीं देखता, जो मेरा सामना कर सके। तुम युद्ध में मेरा वह महान् पराक्रम देखना, जिस के सामने कोई प्रतिद्वन्द्वी टिक नहीं पाता” ।।
२०.
“मैंने युद्धस्थल में जिनकी ध्वजाएँ तोड़ डाली थीं, वे देवता और असुर मेरे सामने ठहरने में असमर्थ होने के कारण कई बार पीठ दिखा चुके हैं” ।।
श्लोक २१ से ३० ।।
२१.
“ तुम मुझे स्वीकार करो, आज तुम्हारा उत्तम श्रृंगार किया जाय और तुम्हारे अंगों में चमकीले आभूषण पहनाये जायँ” ।।
२२.
“सुमुखि! आज मैं श्रृंगार से सुसज्जित हुए तुम्हारे सुन्दर रूप को देख रहा हूँ। तुम उदारता वश मुझ पर कृपा करके श्रृंगार से सम्पन्न हो जाओ” ।।
२३.
“भीरु! फिर इच्छानुसार भाँति-भाँति के भोग भोगो, दिव्य रस का पान करो, विहरो तथा पृथ्वी या धन का यथेष्टरूप से दान करो” ।।
२४.
“तुम मुझ पर विश्वास करके भोग भोगने की इच्छा करो और निर्भय हो कर मुझे अपनी सेवा के लिये आज्ञा दो। मुझ पर कृपा करके इच्छानुसार भोग भोगती हुइ तुम जैसी पटरानी के भाइ-बन्धु भी मनमाने भोग भोग सकते हैं” ।।
२५.
“भद्रे! यशस्विनि! तुम मेरी समृद्धि और धन सम्पत्ति की ओर तो देखो। सुभगे! चीर-वस्त्र धारण करने वाले राम को लेकर क्या करोगी?” ।।
२६.
“राम ने विजय की आशा त्याग दी है। वे श्रीहीन हो कर वन-वन में विचर रहे हैं, व्रत का पालन करते हैं और मिट्टी की वेदी पर सोते हैं। अब तो मुझे यह भी संदेह होने लगा है कि वे जीवित भी हैं या नहीं” ।।
२७.
“विदेहनन्दिनि! जिनके आगे बगुलों की पंक्तियाँ चलती हैं, उन काले बादलों से छिपी हुइ चन्द्रिका के समान तुमको अब राम पाना तो दूर रहा, देख भी नहीं सकते हैं” ।।
२८.
“जैसे हिरण्यकशिपु इन्द्र के हाथ में गयी हुई कीर्ति को न पा सका, उसी प्रकार राम भी मेरे हाथ से तुम्हें नहीं पा सकते” ।।
२९.
“मनोहर मुसकान, सुन्दर दन्तावलि तथा रमणीय नेत्रों वाली विलासिनि! भीरु! जैसे गरुड़ सर्प को उठा ले जाते हैं, उसी प्रकार तुम मेरे मन को हर लेती हो” ।।
३०.
“तुम्हारा रेशमी पीताम्बर मैला हो गया है। तुम बहुत दुबली-पतली हो गयी हो और तुम्हारे अंगों में आभूषण भी नहीं हैं तो भी तुम्हें देख कर अपनी दूसरी स्त्रियों में मेरा मन नहीं लगता है” ।।
श्लोक ३१ से ३६ ।।
३१.
“जनकनन्दिनि! मेरे अन्तःपुर में निवास करने वाली जितनी भी सर्वगुण सम्पन्न रानियाँ हैं, उन सब की तुम स्वामिनी बन जाओ” ।।
३२.
“काले केशों वाली सुन्दरी! जैसे अप्सराएँ लक्ष्मी की सेवा करती हैं, उसी प्रकार त्रिभुवन की श्रेष्ठ सुन्दरियाँ यहाँ तुम्हारी परिचर्या करें गी” ।।
३३.
“सुभ्रु! सुश्रोणि! कुबेर के यहाँ जितने भी अच्छे रत्न और धन हैं, उन सब का तथा सम्पूर्ण लोकों का तुम मेरे साथ सुख पूर्वक उपभोग करो” ।।
३४.
“देवि! राम तो न तप से, न बल से, न पराक्रम से, न धन से और न ही तेज अथवा यश के द्वारा ही मेरी समानता कर सकते हैं” ।।
३५.
“तुम दिव्य रस का पान, विहार एवम् रमण करो तथा अभीष्ट भोग भोगो। मैं तुम्हें धन की राशि और सारी पृथ्वी भी समर्पित किये देता हूँ। ललने! तुम मेरे पास रह कर मौज से मनचाही वस्तुएँ ग्रहण करो और तुम्हारे निकट आकर तुम्हारे भाइ-बन्धु भी सुख पूर्वक इच्छानुसार आदि प्राप्त करें” ।।
३६.
“भीरु! तुम सोने के निर्मल हारों से अपने अंगों को विभूषित करके मेरे साथ समुद्र-तटवर्ती उन काननों में विहार करो, जिनमें खिले हुए वृक्षों के समुदाय सब ओर फैले हुए हैं और उन पर भ्रमरे मँड़रा रहे हैं” ।।
इस प्रकार श्रीवाल्मीकि द्वारा निर्मित आर्षरामायण आदिकाव्य के सुन्दरकाण्ड में बीसवाँ सर्ग पूरा हुआ ।।
२० ।।
Sarg 20 - Sundar Kaand - Valmiki Ramayana Translated in Hindi and made Screen Readable for Blind and Visually Impaired Individuals by Dr T K Bansal, The Blind Scientist.
