20. Valmiki Ramayana - Kishkindha Kaand - Sarg 20
ओम् श्री गणेशाय नमः ।।
ओम् श्री सीतारामचन्द्राभ्याम् नमः ।।
श्रीमद्वाल्मीकीय रामायण – किष्किन्धाकाण्ड ।।
बीसवाँ सर्ग – २६ श्लोक ।।
सारांश ।।
तारा का विलाप। ।।
आरम्भ ।।
श्लोक १ से १० ।।
१ से ३.
चन्द्रमुखी तारा ने देखा कि उसके स्वामी वानरराज वाली श्रीरामचन्द्रजी के धनुष से छूटे हुए प्राणान्तकारी बाण से घायल होकर धरती पर पड़े हैं, उस अवस्था में उनके पास पहुँच कर वह भामिनी उनके शरीर से लिपट गयी। जो अपने शरीर से गजराज और गिरिराज को भी मात देते थे, उन्हीं वानरराज को बाण से आहत होकर जड़से उखड़े हुए वृक्ष की भाँति धराशायी हुआ देख तारा का हृदय शोक से संतप्त हो उठा और वह आतुर हो कर विलाप करने लगी। ।।
४.
“रणमें भयानक पराक्रम प्रकट करनेवाले महान् वीर वानरराज! आज इस समय मुझे अपने सामने पाकर भी आप बोलते क्यों नहीं हैं?” ।।
५.
“कपिश्रेष्ठ! उठिये और उत्तम शय्या का आश्रय लीजिये। आप-जैसे श्रेष्ठ भूपाल पृथ्वी पर नहीं सोते हैं।” ।।
६.
“पृथ्वीनाथ! निश्चय ही यह पृथ्वी आपको अत्यन्त प्यारी है, तभी तो निष्प्राण होने पर भी आप आज मुझे छोड़कर अपने अङ्गों से इस वसुधा का ही आलिङ्गन किये सो रहे हैं।” ।।
७.
“वीरवर! आपने धर्मयुक्त युद्ध करके स्वर्ग के मार्ग में भी अवश्य ही किष्किन्धा की भाँति कोइ रमणीय पुरी बना ली है, यह बात आज स्पष्ट हो गयी (अन्यथा आप किष्किन्धा को छोड़ कर यहाँ क्यों सोते)।” ।।
८.
“आपके साथ मधुर सुगन्धयुक्त वनों में हमने जो-जो विहार किये हैं, उन सब को इस समय आपने सदा के लिये समाप्त कर दिया।” ।।
९.
“नाथ! आप बड़े-बड़े यूथपतियों के भी स्वामी थे। आज आप के मारे जाने से मेरा सारा आनन्द लुट गया। मैं सब प्रकार से निराश हो कर शोक के समुद्र में डूब गयी हूँ।” ।।
१०.
“निश्चय ही मेरा हृदय बड़ा कठोर है, जो आज आप को पृथ्वी पर पड़ा देख कर भी शोक से संतप्त हो फट नहीं जाता-इसके हजारों टुकड़े नहीं हो जाते।” ।।
श्लोक ११ से २० ।।
११.
“वानरराज! आपने जो सुग्रीव की स्त्री छीन ली और उन्हें घर से बाहर निकाल दिया, उसी का यह फल आप को प्राप्त हुआ है।” ।।
१२.
“वानरेन्द्र! मैं आप का हित चाहती थी और आपके कल्याण-साधन में ही लगी रहती थी। तो भी मैंने आप से जो हितकर बात कही थी, उसे मोहवश आप ने नहीं माना और उलटे मेरी ही निन्दा की।” ।।
१३.
“दूसरों को मान देनेवाले आर्यपुत्र! निश्चय ही आप स्वर्ग में जा कर रूप और यौवन के अभिमान से मत्त रहनेवाली केलिकला में निपुण अप्सराओं के मन को अपने दिव्य सौन्दर्य से मथ डालें गे।” ।।
१४.
“निश्चय ही आज आपके जीवन का अन्त कर देनेवाला संशय रहित काल यहाँ आ पहुँचा था, जिसने किसी के भी वश में न आनेवाले आप को बलपूर्वक सुग्रीव के वश में डाल दिया।” ।।
१५.
(अब श्रीरामको सुनाकर बोली)- “ककुत्स्थकुल में अवतीर्ण हुए श्रीरामचन्द्रजी ने दूसरे के साथ युद्ध करते हुए वाली को मार कर अत्यन्त निन्दित कर्म किया है। इस कुत्सित कर्म को करके भी जो ये संतप्त नहीं हो रहे हैं, यह सर्वथा अनुचित है।” ।।
१६.
(फिर वाली से बोली-) “मैंने कभी दीनतापूर्ण जीवन नहीं बिताया है, ऐसे महान् दुख का सामना नहीं किया है; परंतु आज आप के बिना मैं दीन हो गयी, अब मुझे अनाथ की भाँति शोक-संताप से पूर्ण वैधव्य जीवन व्यतीत करना होगा।” ।।
१७.
“नाथ! आपने अपने वीर पुत्र अङ्गद को, जो सुख भोगने योग्य और सुकुमार है, बड़ा लाड़-प्यार किया था। अब क्रोध से पागल हुए चाचा के वश में पड़ कर मेरे बेटे की क्या दशा होगी।?” ।।
१८.
“बेटा अङ्गद! अपने धर्मप्रेमी पिता को अच्छी तरह देख लो। अब तुम्हारे लिये उनका दर्शन दुर्लभ हो जायगा।” ।।
१९.
“प्राणनाथ! आप दूसरे देश को जा रहे हैं। अपने पुत्र का मस्तक सूंघ कर इसे धैर्य बँधाइये और मेरे लिये भी कुछ संदेश दीजिये।” ।।
२०.
“श्रीराम ने आप को मार कर बहुत बड़ा कर्म किया है। उन्होंने सुग्रीव से जो प्रतिज्ञा की थी, उसके ऋण को उतार दिया।” ।।
श्लोक २१ से २६ ।।
२१.
(अब सुग्रीव को सुना कर कहने लगी-) “सुग्रीव! तुम्हारा मनोरथ सफल हो। तुम्हारे भाई, जिन्हें तुम अपना शत्रु समझते थे, मारे गये। अब बेखटके राज्य भोगो। रुमा को भी प्राप्त कर लो गे।” ।।
२२.
(फिर वाली से बोली-) “वानरेश्वर! मैं आप की प्यारी पत्नी हूँ और इस तरह रोती-कलपती हूँ, फिर भी आप मुझ से बोलते क्यों नहीं हैं? देखिये, आप की ये बहुत-सी सुन्दर भार्याएँ यहाँ उपस्थित हैं।” ।।
२३.
तारा का विलाप सुन कर अन्य वानरपत्नियाँ भी सब ओर से अङ्गद को पकड़ कर दीन एवम् दुख से व्याकुल होकर जोर-जोर से क्रन्दन करने लगीं। ।।
२४.
(तदनन्तर तारा ने फिर कहा-) “बाजूबन्द से विभूषित वीरभुजाओं वाले वानरराज! आप अङ्गद को छोड़ कर दीर्घकाल के लिये दूसरे देश में क्यों जा रहे हैं? जो गुणों में आपके सर्वथा निकट है-जो आप के समान ही गुणवान् है तथा जिसका प्रिय एवम् मनोहर वेश है, ऐसे प्रिय पुत्र को त्याग कर इस प्रकार चला जाना आप के लिये कदापि उचित नहीं है।” ।।
२५.
“महाबाहो! यदि नासमझी के कारण मैंने आप का कोई अपराध किया हो तो आप उसे क्षमा कर दें। वानरवंश के स्वामी वीर आर्यपुत्र! मैं आप के चरणों में मस्तक रखकर यह प्रार्थना करती हूँ।” ।।
२६.
इस प्रकार अन्य वानरपत्नियों के साथ पति के समीप करुण विलाप करती हुई अनिन्द्य सुन्दरी तारा ने जहाँ वाली पृथ्वी पर पड़ा था, वहीं उस के समीप बैठ कर आमर्ण अनशन करने का निश्चय किया। ।।
इस प्रकार श्रीवाल्मीकि द्वारा निर्मित आर्षरामायण आदिकाव्य के किष्किन्धाकाण्ड में बीसवाँ सर्ग पूरा हुआ। ।।
Sarg 20 - Kishkindha Kaand - Valmiki Ramayana Translated in Hindi and made Screen Readable for Blind and Visually Impaired Individuals by Dr T K Bansal, The Blind Scientist.
