09. Valmiki Ramayana - Ayodhya Kaand - Sarg 09

ओम् श्री गणेशाय नमः ।।

ओम् श्रीसीतारामचन्द्राभ्यां नमः ।।

श्रीमद्वाल्मीकीय रामायण – अयोध्या काण्ड ।।

नवाँ सर्ग ।।

सारांश ।

कुब्जा के कुच क्र से कैकेयी का कोप भवन में प्रवेश ।।

आरम्भ ।।

श्लोक १ से १० ।।

१.
मन्थरा के ऐसा कहने पर कैकेयी का मुख क्रोध से तमतमा उठा। वह लंबी और गरम साँस खींच कर उस से इस प्रकार बोली- ।।

२.
“कुब्जे! मैं श्रीराम को शीघ्र ही यहाँ से वन में भेजूँ गी और तुरंत ही युवराज के पद पर भरत का अभिषेक कराऊँगी।” ।।

३.
“परंतु इस समय यह तो सोचो कि किस उपाय से अपना अभीष्ट साधन करूँ? भरत को राज्य प्राप्त हो जाय और श्रीराम उसे किसी तरह भी न पा सकें- यह काम कैसे बने?” ।।

४.
देवी कैकेयी के ऐसा कहने पर पाप का मार्ग दिखाने वाली मन्थरा श्रीराम के स्वार्थ पर कुठारा घात करती हुई वहाँ कैकेयी से इस प्रकार बोली- ।।

५.
“केकयनन्दिनि! अच्छा, अब देखो कि मैं क्या करती हूँ? तुम मेरी बात सुनो, जिस से केवल तुम्हारे पुत्र भरत ही राज्य प्राप्त करेंगे (श्रीराम नहीं)।” ।।

६.
“कैकेयि! क्या तुम्हें स्मरण नहीं है? या स्मरण होने पर भी मुझ से छिपा रही हो? जिस की तुम मुझ से अनेक बार चर्चा करती रहती हो, क्या अपने उसी प्रयोजन को तुम मुझ से सुनना चाहती हो? इस का क्या कारण है?” ।।

७.
“विलासिनि! यदि मेरे ही मुँह से सुनने के लिये तुम्हारा आग्रह है तो बताती हूँ, सुनो और सुन कर इसी के अनुसार कार्य करो।” ।।

८.
मन्थरा का यह वचन सुन कर कैकेयी अच्छी तरह से बिछे हुए उस पलंग से कुछ उठ कर उस से यों बोली - ।।

९.
“मन्थरे! मुझ से वह उपाय बताओ। किस उपाय से भरत को तो राज्य मिल जाय गा, किंतु श्रीराम उसे किसी भी तरह नहीं पा सकेंगे।” ।।

१०.
देवी कैकेयी के ऐसा कहने पर पाप का मार्ग दिखाने वाली मन्थरा श्रीराम के स्वार्थ पर कुठाराघात करती हुई उस समय कैकेयी से इस प्रकार बोली- ।।

श्लोक ११ से २० ।।

११.
“देवि! पूर्व काल की बात है कि देवासुर संग्राम के अवसर पर राजर्षियों के साथ तुम्हारे पतिदेव तुम्हें साथ ले कर देवराज की सहायता करने के लिये गये थे।” ।।

१२ से १३.
“केकयराजकुमारी! दक्षिण दिशा में दण्डकारण्य के भीतर वैजयन्त नाम से विख्यात एक नगर है, जहाँ शम्बर नाम से प्रसिद्ध एक महान् असुर रहता था। वह अपनी ध्वजा में तिमि (व्हेल मछली) का चिह्न धारण करता था और सैकड़ों मायाओं का जानकार था। देवताओं के समूह भी उसे पराजित नहीं कर पाते थे। एक बार उस ने इन्द्र के साथ युद्ध छेड़ दिया।” ।।

१४.
“उस महान् संग्राम में क्षतविक्षत हुए पुरुष जब रात में थक कर सो जाते, उस समय राक्षस उन्हें उन के बिस्तर से खींच ले जाते और मार डालते थे।” ।।

१५.
“उन दिनों महाबाहु राजा दशरथ ने भी वहाँ असुरों के साथ बड़ा भारी युद्ध किया। उस युद्ध में असुरों ने अपने अस्त्र-शस्त्रों द्वारा उन के शरीर को जर्जर कर दिया था।” ।।

१६.
“देवि! जब राजा की चेतना लुप्त सी हो गयी, उस समय सारथि का काम करती हुइ तुमने अपने पति को रणभूमि से दूर हटा कर उन की रक्षा की थी। जब वहाँ भी राक्षसों के शस्त्रों से वे घायल हो गये, तब तुमने पुनः वहाँ से अन्यत्र ले जा कर उन की रक्षा की।” ।।

१७ से १८.
“शुभदर्शने! इस से संतुष्ट हो कर महाराज ने तुम्हें दो वरदान देने को कहा – देवि ! उस समय तुम ने अपने पति से कहा – “प्राणनाथ ! जब मेरी इच्छा होगी, तब मैं इन वरों को माँग लूँगी।” उस समय उन महात्मा नरेश ने “तथास्तु” कह कर तुम्हारी बात मान ली थी। देवि! मैं इस कथा को नहीं जानती थी। पूर्व काल में तुम्हींने मुझ से यह वृत्तान्त कहा था।” ।।

१९.
“तब से तुम्हारे स्नेह वश मैं इस बात को मन ही मन सदा याद रखती आयी हूँ। तुम इन वरों के प्रभाव से स्वामी को वश में कर के श्रीराम के अभिषेक के आयोजन को पलट दो।” ।।

२०.
“तुम उन दोनों वरों को अपने स्वामी से माँगो - एक वर के द्वारा भरत का राज्याभिषेक और दूसरे के द्वारा श्रीराम का चौदह वर्ष तक का वनवास माँग लो।” ।।

श्लोक २१ से ३० ।।

२१.
“जब श्रीराम चौदह वर्षों के लिये वन में चले जायँ गे।' तब उतने समय में तुम्हारे पुत्र भरत समस्त प्रजा के हृदय में अपने लिये स्नेह पैदा कर लेंगे और इस राज्य पर स्थिर हो जायँ गे।” ।।

२२.
“अश्व पति कुमारी! तुम इस समय मैले वस्त्र पहन लो और कोप भवन में प्रवेश कर के कुपित- सी हो कर बिना बिस्तर के ही भूमि पर लेट जाओ।” ।।

२३.
“राजा आवें तो उन की ओर आँखें उठा कर न देखो और न उन से कोई बात ही करो। महाराज को देखते ही रोती हुई शोक मग्न हो धरती पर लोटने लगो।” ।।

२४.
“इस में तनिक भी संदेह नहीं कि तुम अपने पति को सदा ही बड़ी प्यारी रही हो। तुम्हारे लिये महाराज आग में भी प्रवेश कर सकते हैं।” ।।

२५.
“वे न तो तुम्हें कुपित कर सकते हैं और न कुपित अवस्था में तुम्हें देख ही सकते हैं। राजा दशरथ तुम्हारा प्रिय करने के लिये अपने प्राणों का भी त्याग कर सकते हैं।” ।।

२६.
“महाराज तुम्हारी बात किसी भी तरह टाल नहीं सकते। मुग्धे! तुम अपने सौभाग्य के बल का स्मरण करो।” ।।

२७.
“राजा दशरथ तुम्हें भुलावे में डालने के लिये मणि, मोती, सुवर्ण तथा भाँति-भाँति के रत्न देने की चेष्टा करेंगे; किंतु तुम उन की ओर मन न चलाना।” ।।

२८.
“महाभागे! देवासुर संग्राम के अवसर पर राजा दशरथ ने वे जो दो वर दिये थे, उन का उन्हें स्मरण दिलाना। वरदान के रूप में माँगा गया वह तुम्हारा अभीष्ट मनोरथ सिद्ध हुए बिना नहीं रह सकता।” ।।

२९.
“रघुकुलनन्दन राजा दशरथ जब स्वयम् तुम्हें धरती से उठा कर वर देने को उद्यत हो जायँ, तब उन महाराज को सत्य की शपथ दिला कर खूब पक्का कर के उन से वर माँगना।” ।।

३०.
“वर माँगते समय कहना कि नृपश्रेष्ठ! आप श्रीराम को चौदह वर्षों के लिये बहुत दूर वन में भेज दीजिये और भरत को भूमण्डल का राजा बनाइये।” ।।

श्लोक ३१ से ४० ।।

३१.
“श्रीराम के चौदह वर्षों के लिये वन में चले जाने पर तुम्हारे पुत्र भरत का राज्य सुदृढ़ हो जायगा और प्रजा आदि को वश में कर लेने से यहाँ उन की जड़ जम जायगी। फिर चौदह वर्षों के बाद भी वे आजीवन स्थिर बने रहें गे।” ।।

३२.
“देवि! तुम राजा से श्रीराम के वनवास का वर अवश्य माँगो। पुत्र के लिये राज्य की कामना करनेवाली कैकेयि! ऐसा करने से तुम्हारे पुत्र के सभी मनोरथ सिद्ध हो जायँगे।” ।।

३३.
“इस प्रकार वनवास मिल जाने पर ये राम राम नहीं रह जायेंगे (इनका आज जो प्रभाव है वह भविष्य में नहीं रह सकेगा) और तुम्हारे भरत भी शत्रुहीन राजा होंगे।” ॥

३४.
“जिस समय श्रीराम वन से लौटें गे, उस समय तक तुम्हारे पुत्र भरत भीतर और बाहर से भी दृढ मूल हो जायँ गे।” ॥

३५.
“उनके पास सैनिक बल का भी संग्रह हो जायगा; जितेन्द्रिय तो वे हैं ही; अपने सुहृदों के साथ रह कर दृढ मूल हो जायँगे। इस समय मेरी मान्यता के अनुसार राजा को श्रीराम के राज्याभिषेक के संकल्प से हटा देने का समय आ गया है; अतः, तुम निर्भय हो कर राजा को अपने वचनों में बाँध लो और उन्हें श्रीराम के अभिषेक के संकल् से हटा दो।” ।।

३६ से ३७.
ऐसी बातें कह कर मन्थरा ने कैकेयी की बुद्धि में अनर्थ को ही अर्थ रूप में जँचा दिया। कैकेयी को उस की बात पर विश्वास हो गया और वह मन ही मन बहुत प्रसन्न हुई। यद्यपि वह बहुत समझदार थी, तो भी कुबरी के कहने से नादान बालिका की तरह कुमार्गपर चली गयी- अनुचित काम करने को तैयार हो गयी। उसे मन्थरा की बुद्धि पर बड़ा आश्चर्य हुआ और वह उस से इस प्रकार बोली- ।।

३८ से ३९.
“हित की बात बताने में कुशल कुब्जे! तू एक श्रेष्ठ स्त्री है; मैं तेरी बुद्धि की अवहेलना नहीं करुँगी। बुद्धि के द्वारा किसी कार्य का निश्चय करने में तू इस पृथ्वी पर सभी कुब्जाओं में उत्तम है। केवल तू ही मेरी हितैषिणी है और सदा सावधान रह कर मेरा कार्य सिद्ध करने में लगी रहती है।” ॥ ।

४०.
“कुब्जे! यदि तू न होती तो राजा जो षड्यन्त्र रचना चाहते हैं, वह कदापि मेरी समझ में नहीं आता। तेरे सिवा जितनी कुब्जाएँ हैं, वे बेडौल शरीरवाली, टेढ़ी-मेढ़ी और बड़ी पापिनी होती हैं।” ।।

श्लोक ४१ से ५० ।।

४१.
“तू तो वायु के द्वारा झुकायी हुई कमलिनी की भाँति कुछ झुकी हुई होने पर भी देखने में प्रिय (सुन्दर) है तेरा वक्षः स्थल कुब्जता के दोष से व्याप्त है, अतएव कंधों तक ऊँचा दिखायी देता है।” ।।

४२.
“वक्षःस्थल से नीचे सुन्दर नाभि से युक्त जो उदर है, वह मानो वक्षःस्थल की ऊँचाई देख कर लज्जित-सा हो गया है, इसी लिये शान्त - कृश प्रतीत होता है। तेरा जघन विस्तृत है और दोनों स्तन सुन्दर एवम् स्थूल हैं।”।

४३.
“मन्थरे! तेरा मुख निर्मल चन्द्रमा के समान अद्भुत शोभा पा रहा है। करधनी की लड़ियों से विभूषित तेरी कटि का अग्रभाग बहुत ही स्वच्छ-रोमादि से रहित है।” ।।

४४.
“मन्थरे! तेरी पिण्डलियाँ परस्पर अधिक सटी हुई हैं और दोनों पैर बड़े-बड़े हैं। तू विशाल ऊरुओं (जाँघों) से सुशोभित होती है। शोभने ! जब तू रेशमी साड़ी पहन कर मेरे आगे- आगे चलती है, तब तेरी बड़ी शोभा होती है।” ।।

४५से ४६.
“असुरराज शम्बर को जिन सहस्रों मायाओं का ज्ञान है, वे सब तेरे हृदय में स्थित हैं; इन के अलावे भी तू हजारों प्रकार की मायाएँ जानती है। इन मायाओं का समुदाय ही तेरा यह बड़ा-सा कुब्बड़ है, जो रथ के नकुए (अग्रभाग) के समान बड़ा है। इसी में तेरी मति, स्मृति और बुद्धि, क्षत्रविद्या (राजनीति) तथा नाना प्रकार की मायाएँ निवास करती हैं।” ।।

४७ से ४८.
“सुन्दरी कुब्जे! यदि भरत का राज्याभिषेक हुआ और श्रीराम वन को चले गये तो मैं सफल मनोरथ एवम् संतुष्ट हो कर अच्छी जाति के खूब तपाये हुए सोने की बनी हुइ सुन्दर स्वर्णमाला तेरे इस कुब्बड़ को पहनाऊँ गी और इस पर चन्दन का लेप लगवाऊँ गी।” ।।

४९ से ५०.
“कुब्जे! तेरे मुख (ललाट पर सुन्दर और विचित्र सोने का टीका लगवा दूँगी और तू बहुत- से सुन्दर आभूषण एवम् दो उत्तम वस्त्र ( लहँगा और दुपट्टा ) धारण कर के देवाङ्गना के समान विचरण करे गी।” ।।

श्लोक ५१ से ६० ।।

५१.
“चन्द्रमा से होड़ लगाने वाले अपने मनोहर मुख द्वारा तू ऐसी सुन्दर लगे गी कि तेरे मुख की कहीं समता नहीं रह जाय गी तथा शत्रुओं के बीच में अपने सौभाग्य पर गर्व प्रकट करती हुइ तू सर्वश्रेष्ठ स्थान प्राप्त कर लेगी।” ।।

५२.
“जैसे तू सदा मेरे चरणों की सेवा किया करती है, उसी प्रकार समस्त आभूषणों से विभूषित बहुत-सी कुब्जाएँ तुझ कुब्जा के भी चरणों की सदा परिचर्या किया करेंगी।” ॥

५३.
जब इस प्रकार कुब्जा की प्रशंसा की गयी, तब उस ने वेदी पर प्रज्वलित अग्नि- शिखा के समान शुभ्र शय्या पर शयन करने वाली कैकेयी से इस प्रकार कहा- ।।

५४.
“कल्याणि! नदी का पानी निकल जाने पर उस के लिये बाँध नहीं बाँधा जाता, (यदि राम का अभिषेक हो गया तो तुम्हारा वर माँगना व्यर्थ होगा; अतः, बातों में समय न बिताओ) जल्दी उठो और अपना कल्याण करो। कोप भवन में जा कर राजा को अपनी अवस्था का परिचय दो।” ।।

५५ से ५६.
मन्थरा के इस प्रकार प्रोत्साहन देने पर सौभाग्य के मद से गर्व करने वाली विशाललोचना सुन्दरी कैकेयी देवी उस के साथ ही कोप भवन में जा कर लाखों की लागत के मोतियों के हार तथा दूसरे- दूसरे सुन्दर बहुमूल्य आभूषणों को अपने शरीर से उतार उतार कर फेंकने लगी ।।

५७.
सोने के समान सुन्दर कान्ति वाली कैकेयी कुब्जा की बातों के वशी भूत हो गयी थी, अतः, वह धरती पर लेट कर मन्थरा से इस प्रकार बोली- ।।

५८ से ५९.
“कुब्जे! मुझे न तो सुवर्ण से, न रत्नों से और न भाँति-भाँति के भोजनों से ही कोई प्रयोजन है; यदि श्रीराम का राज्याभिषेक हुआ तो यह मेरे जीवन का अन्त होगा। अब या तो श्रीराम के वन में चले जाने पर भरत को इस भूतल का राज्य प्राप्त होगा अथवा तू यहाँ महाराज को मेरी मृत्यु का समाचार सुनाये गी।” ।।

६०.
तदनन्तर कुब्जा महाराज दशरथ की रानी और भरत की माता कैकेयी से अत्यन्त क्रूर वचनों द्वारा पुनः ऐसी बात कहने लगी, जो लौकिक दृष्टि से भरत के लिये हितकर और श्रीराम के लिये अहितकर थी - ।।

श्लोक ६१ से ६६ ।।

६१.
“कल्याणि! यदि श्रीराम इस राज्य को प्राप्त कर लेंगे तो निश्चय ही अपने पुत्र भरत सहित तुम भारी संताप में पड़ जाओगी; अतः ऐसा प्रयत्न करो, जिस से तुम्हारे पुत्र भरत का राज्याभिषेक हो जाय।” ।।

६२.
इस प्रकार कुब्जा ने अपने वचन रूपी बाणों का बारंबार प्रहार कर के जब रानी कैकेयी को अत्यन्त घायल कर दिया, तब वह अत्यन्त विस्मित और कुपित हो अपने हृदय पर दोनों हाथ रख कर कुब्जा से बारंबार इस प्रकार कहने लगी- ।।

६३.
“कुब्जे! अब या तो रामचन्द्र के अधिक काल के लिये वन में चले जाने पर भरत का मनोरथ सफल होगा या तू मुझे यहाँ से यम लोक में चली गयी सुन कर महाराज से यह समाचार निवेदन करेगी।” ।।

६४.
“यदि राम यहाँ से वन को नहीं गये तो मैं न तो भाँति-भाँति के बिछौने, न फूलों के हार, न चन्दन, न अञ्जन, न पान, न भोजन और न दूसरी ही कोई वस्तु लेना चाहूँ गी। उस दशा में तो मैं यहाँ इस जीवन को भी नहीं रखना चाहूँ गी।” ।।

६५.
ऐसे अत्यन्त कठोर वचन कह कर कैकेयी ने सारे आभूषण उतार दिये और बिना बिस्तर के ही वह खाली जमीन पर लेट गयी। उस समय वह स्वर्ग से भूतल पर गिरी हुई किसी किन्नरी के समान जान पड़ती थी ।।

६६.
उस का मुख बढ़े हुए अमर्ष रूपी अन्धकार से आच्छादित हो रहा था। उस के अङ्गों से उत्तम पुष्पहार और आभूषण उतर चुके थे। उस दशा में उदास मन वाली राजरानी कैकेयी जिस के तारे डूब गये हों, उस अन्धकाराच्छन्न आकाश के समान प्रतीत हो रही थी ।।

इस प्रकार श्रीवाल्मीकि निर्मित आर्षरामायण आदिकाव्य के अयोध्याकाण्ड में नवाँ सर्ग पूरा हुआ ।।

Sarg 9 - Ayodhya Kaand - Valmiki Ramayana Translated in Hindi and made Screen Readable for Blind and Visually Impaired Individuals by Dr T K Bansal.