08. Valmiki Ramayana - Ayodhya Kaand - Sarg 08

ओम् श्री गणेशाय नमः ।।

ओम् श्रीसीतारामचन्द्राभ्यां नमः ।।

श्रीमद्वाल्मीकीय रामायण – अयोध्या काण्ड ।।

आठवाँ सर्ग ।।

सारांश ।

मन्थरा का पुनः श्रीराम के राज्य अभिषेक को कैकेयी के लिये अनिष्ट कारी बताना, कैकेयी का श्रीराम के गुणों को बताकर उन के अभिषेक का समर्थन करना तत्पश्चात् कुब्जा का पुनः श्रीराम राज्य को भरत के लिये भय जनक बताकर कैकेयी को भड़काना ।।

आरम्भ ।।

श्लोक १ से १० ।।

१.
यह सुन कर मन्थरा ने कैकेयी की निन्दा कर के उस के दिये हुए आभूषण को उठा कर फेंक दिया और कोप तथा दुख से भर कर वह इस प्रकार बोली- ।।

२.
“रानी! तुम बड़ी नादान हो । अहो ! तुम ने यह बेमौके हर्ष किसलिये प्रकट किया है? तुम्हें शोक के स्थान पर प्रसन्नता कैसे हो रही है? अरी! तुम शोक के समुद्र में डूबी हुइ हो, तो भी तुम्हें अपनी इस विपन्नावस्था का बोध नहीं हो रहा है।” ।।

३.
“देवि! महान् संकट में पड़ने पर जहाँ तुम्हें शोक होना चाहिये, वहीं हर्ष हो रहा है। तुम्हारी यह अवस्था देख कर मुझे मन ही मन बड़ा क्लेश सहन करना पड़ रहा है। मैं दुख से व्याकुल हुई जा रही हूँ।” ।।

४.
“मुझे तुम्हारी दुर्बुद्धि के लिये ही अधिक शोक हो रहा है। अरी! सौत का बेटा शत्रु होता है। वह सौतेली माँ के लिये साक्षात् मृत्यु के समान है। भला, उस के अभ्युदय का अवसर आया देख कौन बुद्धिमती स्त्री अपने मन में हर्ष मानेगी?” ।।

५.
“यह राज्य भरत और राम दोनों के लिये साधारण भोग्य वस्तु है, इस पर दोनों का समान अधिकार है, इस लिये श्रीराम को भरत से ही भय है। यही सोच कर मैं विषाद में डूबी जा रही हूँ; क्योंकि भयभीत से ही भय प्राप्त हो रहा है अर्थात् आज जिसे भय है, वही राज्य प्राप्त कर लेने पर जब सबल हो जाय गा, तब अपने भय के हेतु को उखाड़ फेंके गा।” ।।

६.
“महाबाहु लक्ष्मण सम्पूर्ण हृदय से श्रीरामचन्द्रजी के अनुगत हैं। जैसे लक्ष्मण श्रीराम के अनुगत हैं, उसी प्रकार शत्रुघ्न भी भरत का अनुसरण करने वाले हैं।” ।।

७.
“भामिनि! उत्पत्ति के क्रम से श्रीराम के बाद भरत का ही पहले राज्य पर अधिकार हो सकता है। (अतः, भरत से भय होना स्वाभाविक है)। लक्ष्मण और शत्रुघ्न तो छोटे हैं; अतः, उन के लिये राज्य प्राप्ति की सम्भावना दूर है।” ।

८.
“श्रीराम समस्त शास्त्रों के ज्ञाता हैं, विशेषतः क्षत्रिय चरित्र (राजनीति) के पण्डित हैं तथा समयोचित कर्तव्य का पालन करने वाले हैं; अतः, उन का तुम्हारे पुत्र के प्रति जो क्रूरता पूर्ण बर्ताव होगा, उसे सोच कर मैं भय से काँप उठती हूँ।” ।।

९.
“वास्तव में कौसल्या ही सौभाग्यवती हैं, जिन के पुत्र का कल पुष्य नक्षत्र के योग में श्रेष्ठ ब्राह्मणों द्वारा युवराज के महान् पद पर अभिषेक होने जा रहा है।” ।।

१०.
“वे भूमण्डल का निष्कण्टक राज्य पा कर प्रसन्न होंगी; क्योंकि वे राजा की विश्वास पात्र हैं। और तुम दासी की भाँति हाथ जोड़ कर उन की सेवा में उपस्थित होओ गी।” ।।

श्लोक ११ से २० ।।

११.
“इस प्रकार हम लोगों के साथ तुम भी कौसल्या की दासी बनोगी और तुम्हारे पुत्र भरत को भी श्रीरामचन्द्रजी की गुलामी करनी पड़े गी।” ।।

१२.
“श्रीरामचन्द्रजी के अन्तःपुर की परम सुन्दर स्त्रियाँ - सीतादेवी और उनकी सखियाँ निश्चय ही बहुत प्रसन्न होंगी और भरत के प्रभुत्व का नाश होने से तुम्हारी बहुएँ शोक मग्न हो जायँगी।” ॥

१३.
मन्थरा को अत्यन्त अप्रसन्नता के कारण इस प्रकार बहकी बहकी बातें करती देख देवी कैकेयी ने श्रीराम के गुणों की ही प्रशंसा करते हुए कहा - ।।

१४.
“कुब्जे! श्रीराम धर्म के ज्ञाता, गुणवान्, जितेन्द्रिय, कृतज्ञ, सत्यवादी और पवित्र होने के साथ ही महाराज के ज्येष्ठ पुत्र भी हैं; अतः, युवराज होने के योग्य वे ही हैं।” ।

१५.
“वे दीर्घजीवी हो कर अपने भाइयों और भृत्यों का पिता की भाँति पालन करेंगे। कुब्जे! उन के अभिषेक की बात सुन कर तू इतनी जल क्यों रही है?” ।।

१६.
“श्रीराम की राज्य प्राप्ति के सौ वर्ष बाद नरश्रेष्ठ भरत को भी निश्चय ही अपने पिता- पितामहों का राज्य मिलेगा।” ।।

१७.
“मन्थरे! ऐसे अभ्युदय की प्राप्ति के समय, जब कि भविष्य में कल्याण ही कल्याण दिखायी दे रहा है, तू इस प्रकार जलती हुई सी संतप्त क्यों हो रही है?” ।।

१८.
“मेरे लिये जैसे भरत आदर के पात्र हैं, वैसे ही बल्कि उनसे भी बढ़ कर श्रीराम हैं; क्योंकि वे कौसल्या से भी बढ़ कर मेरी बहुत सेवा किया करते हैं।” ।।

१९.
“यदि श्रीराम को राज्य मिल रहा है तो उसे भरत को ही मिला हुआ समझ; क्योंकि श्रीरामचन्द्र अपने भाइयों को भी अपने ही समान समझते हैं।” ।।

२०.
कैकेयी की यह बात सुन कर मन्थरा को बड़ा दुख हुआ। वह लंबी और गरम साँस खींच कर कैकेयी से बोली - ।।

श्लोक २१ से ३० ।।

२१.
“रानी! तुम मूर्खता वश अनर्थ को ही अर्थ समझ रही हो। तुम्हें अपनी स्थिति का (पता नहीं है। तुम दुख के उस महा सागर में डूब रही हो, जो शोक (इष्ट से वियोग की चिन्ता) और व्यसन (अनिष्ट की प्राप्ति के दुख ) से महान् विस्तार को प्राप्त हो रहा है।” ।।

२२.
“केकय राजकुमारी! जब श्रीरामचन्द्र राजा हो जायँ गे, तब उन के बाद उन का जो पुत्र होगा, उस को राज्य मिलेगा। भरत तो राज परम्परा से अलग हो जायँगे।” ।।

२३.
“भामिनि! राजा के सभी पुत्र राज्य सिंहासन पर नहीं बैठते हैं; यदि सब को बिठा दिया जाय तो बड़ा भारी अनर्थ हो जाय गा।”।।

२४.
“परमसुन्दरी केकयनन्दिनि! इसी लिये राजा लोग राज काज का भार ज्येष्ठ पुत्र पर ही रखते हैं। यदि ज्येष्ठ पुत्र गुणवान् न हो तो दूसरे गुणवान् पुत्रों को भी राज्य सौंप देते हैं।” ।।

२५.
“पुत्रवत्सले! तुम्हारा पुत्र राज्य के अधिकार से तो बहुत दूर हटा ही दिया जायगा, वह अनाथ की भाँति समस्त सुखों से भी वञ्चित हो जायगा।” ।।

२६.
“इस लिये मैं तुम्हारे ही हित की बात सुझाने के लिये यहाँ आयी हूँ; परंतु तुम मेरा अभिप्राय तो समझती ही नहीं, उलटे सौत का अभ्युदय सुन कर मुझे पारितोषिक देने चली हो।” ।।

२७.
“याद रखो, यदि श्रीराम को निष्कण्टक राज्य मिल गया तो वे भरत को अवश्य ही इस देश से बाहर निकाल देंगे अथवा उन्हें पर लोक में भी पहुँचा सकते हैं।” ।।

२८.
“छोटी अवस्था में ही तुमने भरत को मामा के घर भेज दिया । निकट रहने से सौहार्द उत्पन्न होता है। यह बात स्थावर योनियों में भी देखी जाती है (लता और वृक्ष आदि एक-दूसरे के निकट होने पर परस्पर आलिङ्गन पाश में बद्ध हो जाते हैं। यदि भरत यहाँ होते तो राजा का उनमें भी समान रूप से स्नेह बढ़ता; अतः, वे उन्हें भी आधा राज्य दे देते)” ।।

२९.
“भरत के अनुरोध से शत्रुघ्न भी उन के साथ ही चले गये (यदि वे यहाँ होते तो भरत का काम बिगड़ने नहीं पाता। क्योंकि जैसे लक्ष्मण राम के अनुगामी हैं, उसी प्रकार शत्रुघ्न भरत का अनुसरण करनेवाले हैं।” ।।

३०.
“सुना जाता है, जंगल की लकड़ी बेच कर जीविका चलानेवाले कुछ लोगों ने किसी वृक्ष को काटने का निश्चय किया, परंतु वह वृक्ष कँटीली झाड़ियों से घिरा हुआ था; इस लिये वे उसे काट नहीं सके। इस प्रकार उन कँटीली झाड़ियों ने निकट रहने के कारण उस वृक्ष को महान् भय से बचा लिया।” ।।

श्लोक ३१ से ३९ ।।

३१.
“सुमित्राकुमार लक्ष्मण श्रीराम की रक्षा करते हैं और श्रीराम उनकी। उन दोनों का उत्तम भ्रातृ प्रेम दोनों अश्विनीकुमारों की भाँति तीनों लोकों में प्रसिद्ध है।” ।।

३२.
“इस लिये श्रीराम लक्ष्मण का तो किञ्चित् भी अनिष्ट नहीं करेंगे, परंतु भरत का अनिष्ट किये बिना वे रह नहीं सकते; इस में संशय नहीं है।” ।।

३३.
“अतः, श्रीरामचन्द्र महाराज के महल से ही सीधे वन को चले जायँ – मुझे तो यही अच्छा जान पड़ता है और इस में तुम्हारा परम हित है।” ।।

३४.
“यदि भरत धर्मानुसार अपने पिता का राज्य प्राप्त कर लेंगे तो तुम्हारा और तुम्हारे पक्ष के अन्य सब लोगों का भी कल्याण होगा।” ।।

३५.
“सौतेला भाई होने के कारण जो श्रीराम का सहज शत्रु है, वह सुख भोगने के योग्य तुम्हारा बालक भरत राज्य और धन से वञ्चित हो राज्य पा कर समृद्धि शाली बने हुए श्रीराम के वश में पड़ कर कैसे जीवित रहेगा?” ।।

३६.
“जैसे वन में सिंह हाथियों के यूथपति पर आक्रमण करता है और वह भागा फिरता है, उसी प्रकार राजा राम भरत का तिरस्कार करेंगे; अतः, उस तिरस्कार से तुम भरत की रक्षा करो।” ।।

३७.
“तुमने पहले पति का अत्यन्त प्रेम प्राप्त होने के कारण घमंड में आ कर जिन का अनादर किया था, वे ही तुम्हारी सौत श्रीराम की माता कौसल्या पुत्र की राज्य प्राप्ति से परम सौभाग्य शालिनी हैं; अब वे तुम से अपने वैर का बदला क्यों नहीं लेंगी?” ।।

३८.
“भामिनि! जब श्रीराम अनेक समुद्रों और पर्वतों से युक्त समस्त भूमण्डल का राज्य प्राप्त कर लेंगे, तब तुम अपने पुत्र भरत के साथ ही दीन हीन हो कर अशुभ पराभव का पात्र बन जाओ गी।” ।।

३९.
“याद रखो, जब श्रीराम इस पृथ्वी पर अधिकार प्राप्त कर लेंगे, तब निश्चय ही तुम्हारे पुत्र भरत नष्टप्राय हो जायँगे। अतः, ऐसा कोई उपाय सोचो, जिस से तुम्हारे पुत्र को तो राज्य मिले और शत्रुभूत श्रीराम का वनवास हो जाय । “।।

इस प्रकार श्रीवाल्मीकि निर्मित आर्षरामायण आदिकाव्य के अयोध्याकाण्ड में आठवाँ सर्ग पूरा हुआ ।।

Sarg 8 - Ayodhya Kaand - Valmiki Ramayana Translated in Hindi and made Screen Readable for Blind and Visually Impaired Individuals by Dr T K Bansal.