07. Valmiki Ramayana - Yudhh Kaand - Sarg 07
ओम् श्री गणेशाय नमः ।।
ओम् श्रीसीतारामचन्द्राभ्यां नमः ।।
श्रीमद्वाल्मीकीय रामायण – युद्ध काण्ड ।।
सातवाँ सर्ग – २५ श्लोक ।।
सारांश ।।
राक्षसों का रावण और इन्द्रजीत के बल पराक्रम का वर्णन करते हुए उसे राम पर विजय पाने का विश्वास दिलाना ।।
आरम्भ ।।
श्लोक १ से ११ ।।
१.
राक्षसों को न तो नीति का ही ज्ञान था और न ही वे शत्रुपक्ष के बलाबल को ही समझते थे। वे बलवान् तो बहुत थे ; किंतु नीति की दृष्टि से महामूर्ख थे। इस लिये जब राक्षसराज रावण ने उन से पूर्वोक्त बातें कहीं , तब वे सब - के - सब हाथ जोड़ कर उस से इस प्रकार बोले – ।।
२.
“राजन्! हमारे पास परिघ, शक्ति, ऋष्टि, शूल, पट्टिश और भालों से लैस बहुत बड़ी सेना उपलव्ध् है ; फिर आप विषाद क्यों करते हैं?” ।।
३ से ४.
“आप ने तो भोगवतीपुरी में जा कर नागों को भी युद्ध में परास्त कर दिया था। बहुसंख्यक यक्षों से घिरे हुए कैलासशिखर के निवासी कुबेर को भी युद्ध में भारी मार - काट मचा कर वश में कर लिया था” ।।
५.
“प्रभो! महाबली लोकपाल कुबेर महादेवजी के साथ मित्रता होने के कारण आप के साथ बड़ी स्पर्धा रखते थे; परंतु आप ने समराङ्गण में रोष पूर्वक उन्हें हरा दिया” ।।
६.
“यक्षों की सेना को विचलित कर के बंदी बना लिया और कितनों को धराशायी कर के कैलासशिखर से आप उन का यह विमान छीन लाये थे” ।।
७.
“राक्षसशिरोमणे! दानवराज मयने आपसे भयभीत हो कर ही आप को अपना मित्र बना लेने की इच्छा की और इसी उद्देश्य से आप को धर्मपत्नी के रूप में अपनी पुत्री समर्पित कर दी थी” ।।
८.
“महाबाहो! अपने पराक्रम का घमंड रखने वाले दुर्जय दानवराज मधु को भी , जो आप की बहिन कुम्भीनसी को सुख देने वाला उस का पति है , आप ने युद्ध छेड़ कर वश में कर लिया” ।।
९.
“विशालबाहु वीर! आप ने रसातल पर चढ़ाई कर के वासु कि, तक्षक, शङ्ख और जटी आदि नागों को युद्ध में जीता और अपने अधीन कर लिया” ।।
१० से ११.
“प्रभो! शत्रुदमन राक्षसराज! दानव लोग बड़े ही बलवान् , किसी से नष्ट न होने वाले, शूरवीर तथा वर पा कर अद्भुत शक्ति से सम्पन्न हो गये थे; परंतु आप ने समराङ्गण में एक वर्ष तक युद्ध कर के अपने ही बल के भरोसे उन सब को अपने अधीन कर लिया और वहाँ उन से बहुत - सी मायाएँ भी प्राप्त कीं” ।।
श्लोक १२ से २२ ।।
१२.
“महाभाग! आप ने वरुण के शूरवीर और बलवान् पुत्रों को भी उन की चतुरंगिणी सेना सहित युद्ध में परास्त कर दिया था” ।।
१३ से १५.
“राजन्! मृत्यु का दण्ड ही जिस में महान् ग्राह के समान है, जो यम - यातना - सम्बन्धी शाल्मलि आदि वृक्षों से मण्डित है, काल पाश रूपी उत्ताल तरङ्गे जिस की शोभा बढ़ाती हैं, यम दूत रूपी सर्प जिस में निवास करते हैं तथा जो महान् ज्वर के कारण दुर्जय है, उस यमलोक रूपी महासागर में प्रवेश कर के आप ने यमराज की सागर - जैसी सेना को मथ डाला, मृत्यु को रोक दिया और महान् विजय प्राप्त की। यही नहीं, युद्ध की उत्तम कला से आप ने वहाँ के सब लोगों को पूर्ण संतुष्ट कर दिया था” ।।
१६.
“पहले यह पृथ्वी विशाल वृक्षों की भाँति इन्द्र तुल्य पराक्रमी बहुसंख्यक क्षत्रिय वीरों से भरी हुइ थी” ।।
१७.
“उन वीरों में जो पराक्रम, गुण और उत्साह थे, उन की दृष्टि से राम रणभूमि में उन के समान कदापि नहीं है; राजन्! जब आप ने उन समर दुर्जय वीरों को भी बल पूर्वक मार डाला, तब राम पर विजय पाना आप के लिये कौन सी बड़ी बात है?” ।।
१८.
“अथवा महाराज! आप चुपचाप यहीं बैठे रहें। आप को परिश्रम करने की क्या आवश्यकता है? अकेले ये महाबाहु इन्द्रजित् ही सब वानरों का संहार कर डालेंगे” ।।
१९.
“महाराज! इन्हों ने परम उत्तम माहेश्वर यज्ञ का अनुष्ठान कर के वह वर प्राप्त किया है, जो संसार में दूसरे के लिये अत्यन्त दुर्लभ है” ।।
२० से २२.
“देवताओं की सेना समुद्र के समान थी। शक्ति और तोमर ही उस में मत्स्य थे। निकाल कर फेंकी हुई आँतें से वार का काम देती थीं। हाथी ही उस सैन्य – सागर में कछुओं के समान भरे थे। घोड़े मेढकों के समान उस में सब ओर व्याप्त थे। रुद्रगण और आदित्यगण उस सेनारूपी समुद्र के बड़े - बड़े ग्राह थे। मरुद्गण और वसुगण वहाँ के विशाल नाग थे। रथ, हाथी और घोड़े जलराशि के समान थे और पैदल सैनिक उस के विशाल तट थे; परंतु इस इन्द्रजित ने देवताओं के उस सैन्य- समुद्र में घुस कर देवराज इन्द्र को कैद कर लिया और उन्हें लङ्कापुरी में ला कर बंद कर दिया” ।।
श्लोक २३ से २५ ।।
२३.
“राजन्! फिर ब्रह्माजी के कहने से इन्हों ने शम्बर और वृत्रासुर को मारने वाले सर्वदेव वन्दित इन्द्र को मुक्त किया। तब वे स्वर्गलोक में गये” ।।
२४.
“अतः, महाराज! इस काम के लिये आप राजकुमार इन्द्रजित को ही भेजिये, जिस से ये राम सहित वानर सेना का यहाँ आने से पहले ही संहार कर डालें” ।।
२५.
“राजन्! साधारण नर और वानरों से प्राप्त हुई इस आपत्ति के विषय में चिन्ता करना आप के लिये उचित नहीं है। आप को तो अपने हृदय में इसे स्थान ही नहीं देना चाहिये। आप अवश्य ही राम का वध कर डालेंगे” ।।
इस प्रकार श्रीवाल्मीकि द्वारा निर्मित आर्षरामायण आदिकाव्य के युद्धकाण्ड में सातवाँ सर्ग पूरा हुआ ।
Sarg 07 - Yuddh Kaand - Valmiki Ramayana Translated in Hindi and made Screen Readable for Blind and Visually Impaired Individuals by Dr T K Bansal, The Blind Scientist.
