07. Valmiki Ramayana - Aranya Kaand - Sarg 07
ओम् श्री गणेशाय नमः ।।
ओम् श्रीसीतारामचन्द्राभ्याम् नमः ।।
श्रीमद्वाल्मीकीय रामायण – अरण्यकाण्ड ।।
सातवाँ सर्ग ।।
सारांश ।
सीता और भ्राता सहित श्रीराम का सुतीक्ष्ण के आश्रम पर जा कर उन से बात चीत करना तथा उन से सत्कृत हो रात में वहीं ठहरना ।।
आरम्भ ।।
श्लोक १ से १० ।।
१.
शत्रुओं को संताप देनेवाले श्रीरामचन्द्रजी, लक्ष्मण, सीता तथा उन ब्राह्मणों के साथ सुतीक्ष्ण मुनि के आश्रम की ओर चले ।।
२.
दूत का मार्ग करके अगाध जल से भरी हुई बहुत-सी नदियों को पार करते हुए जब आगे गये, तब उन्हें महान् मेरु गिरि के समान एक अत्यन्त ऊँचा पर्वत दिखायी दिया, जो बड़ा ही निर्मल था ।।
३.
वहाँ से आगे बढ़कर वे दोनों इक्ष्वाकु कुल के श्रेष्ठ वीर रघुवंशी बन्धु सीता के साथ नाना प्रकार के वृक्षों से भरे हुए एक वन में पहुँचे ।।
४.
उस घोर वनमें प्रविष्ट होकर श्री रघुनाथजी ने एक एकान्त स्थान में एक आश्रम देखा, जहाँके वृक्ष प्रचुर फल फूलों से लदे हुए थे । इधर-उधर टंगे हुए चीर वस्त्रों के समुदाय उस आश्रम की शोभा बढ़ा रहे थे ।।
५.
वहाँ आन्तरिक मल की शुद्धि के लिये पद्मासन धारण किये सुतीक्ष्ण मुनि ध्यानमग्न हो कर बैठे थे । श्रीराम ने उन तपोधन मुनि के पास विधिवत् जा कर उनसे इस प्रकार कहा- ।।
६.
“सत्यपराक्रमी धर्मज्ञ महर्षे! भगवन्! मैं राम हूँ और यहाँ आपका दर्शन करने के लिये आया हूँ, अतः आप मुझसे बात कीजिये” ।।
७.
धर्मात्माओं में श्रेष्ठ भगवान् श्रीराम का दर्शन कर के धीर महर्षि सुतीक्ष्ण ने अपनी दोनों भुजाओं से उन का आलिङ्गन किया और इस प्रकार कहा – ।।
८.
“सत्यवादियों में श्रेष्ठ रघुकुलभूषण श्रीराम ! आपका स्वागत है । इस समय आप के पदार्पण करने से यह आश्रम सनाथ हो गया है” ।।
९.
“महायशस्वी वीर! मैं आप की ही प्रतीक्षा में था, इसी लिये अब तक इस पृथ्वी पर अपने शरीर को त्याग कर मैं यहाँ से देवलोक (ब्रह्मधाम) में नहीं गया” ।।
१०.
“मैंने सुना था कि आप राज्य से भ्रष्ट हो चित्रकूट पर्वत पर आ कर रहते हैं । काकुत्स्थ ! यहाँ सौ यज्ञों का अनुष्ठान करने वाले देवराज इन्द्र आये थे” ।।
श्लोक ११ से २० ।।
११.
“वे महान् देवता देवेश्वर इन्द्रदेव मेरे पास आ कर कह रहे थे कि “तुमने अपने पुण्यकर्मके द्वारा समस्त शुभ लोकों पर विजय पायी है” ।।
१२.
“उन के कथनानुसार मैंने तपस्या से जिन देवर्षि सेवित लोकों पर अधिकार प्राप्त किया है, उन लोकों में आप सीता और लक्ष्मण के साथ विहार करें । मैं बड़ी प्रसन्नता के साथ वे सारे लोक आप की सेवा में समर्पित करता हूँ” ।।
१३.
जैसे इन्द्र ब्रह्माजी से बात करते हैं, उसी प्रकार मनस्वी श्रीराम ने उन उग्र तपस्या वाले तेजस्वी एवम् सत्यवादी महर्षि को इस प्रकार उत्तर दिया- ।।
१४.
“महामुने! वे लोक तो मैं स्वयं ही आप को प्राप्त कराऊँगा, इस समय तो मेरी यह इच्छा है कि आप बतावें कि मैं इस वन में अपने ठहरने के लिये कहाँ कुटिया बनाऊँ?” ।।
१५.
“आप समस्त प्राणियों के हित में तत्पर तथा इस लोक और पर लोक की सभी बातों के ज्ञान में निपुण हैं, यह बात मुझ से गौतम गोत्रीय महात्मा शरभङ्ग ने कही थी” ।।
१६.
श्रीरामचन्द्रजी के ऐसा कहने पर उन लोक विख्यात महर्षि ने बड़े हर्ष के साथ मधुर वाणी में कहा – ।।
१७.
“श्रीराम! यही आश्रम सब प्रकार से गुणवान् (सुविधा जनक है, अतः आप यहीं सुख पूर्वक निवास कीजिये। यहाँ ऋषियों का समुदाय सदा आता-जाता रहता है और फल मूल भी सर्वदा सुलभ होते हैं” ।।
१८.
“इस आश्रम पर बड़े-बड़े मृगों के झुंड आते और अपने रूप, कान्ति एवम् गति से मन को लुभाकर किसी को भी कष्ट दिये बिना ही यहाँ से लौट जाते हैं । उन्हें यहाँ किसी से कोई भय नहीं प्राप्त होता है” ।।
१९.
“इस आश्रम में मृगों के उपद्रव के सिवा और कोई दोष नहीं है, यह आप निश्चित रूप से जान लें” महर्षि का यह वचन सुन कर लक्ष्मण के बड़े भाई धीर-वीर भगवान् श्रीराम ने हाथ में धनुष-बाण ले कर कहा- ।।
२० से २१.
“महाभाग! यहाँ आये हुए उन उपद्रव कारी मृग समूहों को यदि मैं झुकी हुई गाँठ और तीखी धार वाले बाण से मार डालूँ तो इस में आप का अपमान होगा । यदि ऐसा हुआ तो इस से बढ़ कर कष्ट की बात मेरे लिये और क्या हो सकती है?” ।।
श्लोक २२ से २४ ।।
२२.
“इसलिये मैं इस आश्रम में अधिक समय नहीं निवास करना चाहता” मुनि से ऐसा कह कर मौन हो श्रीरामचन्द्रजी संध्योपासना करने चले गये ।।
२३.
सायंकाल की संध्योपासना कर के श्रीराम ने सीता और लक्ष्मण के साथ सुतीक्ष्ण मुनि के उस रमणीय आश्रम में निवास किया ।।
२४.
संध्या का समय बीतने पर रात हुई देख महात्मा सुतीक्ष्ण ने स्वयम् ही तपस्वी-जनों के सेवन करने योग्य शुभ अन्न ले आ कर उन दोनों पुरुषशिरोमणि बन्धुओं को बड़े सत्कार के साथ अर्पित किया ।।
इस प्रकार श्रीवाल्मीकिनिर्मित आर्षरामायण आदिकाव्यके अरण्यकाण्ड में सातवाँ सर्ग पूरा हुआ ।।
"Keep enjoying the nectar of Shree Ramayana created by Shree Valmiki Jee about 2500 years." By Dr T K Bansal.