10. Valmiki Ramayana - Aranya Kaand - Sarg 10

ओम् श्री गणेशाय नमः ।।

ओम् श्रीसीतारामचन्द्राभ्याम् नमः ।।

श्रीमद्वाल्मीकीय रामायण – अरण्यकाण्ड ।।

दसवाँ सर्ग ।।

सारांश ।

श्रीराम का ऋषियों की रक्षा के लिये राक्षसों के बध के निमित्त की हुई प्रतिज्ञा के पालन पर दृढ़ रहने का विचार प्रकट करना ।।

आरम्भ ।।

श्लोक १ से १० ।।

१.
अपने स्वामी के प्रति भक्ति रखने वाली विदेहकुमारी सीता की कही हुई यह बात सुन कर सदा धर्म में स्थित रहने वाले श्रीरामचन्द्रजी ने जानकी को इस प्रकार उत्तर दिया- ।।

२.
“देवि! धर्म को जानने वाली जनककिशोरी ! तुम्हारा मेरे ऊपर स्नेह है, इसलिये तुम ने मेरे हित की बात कही है । क्षत्रियों के कुल धर्म का उपदेश करती हुइ तुम ने जो कुछ कहा है, वह तुम्हारे ही योग्य है” ।।

३.
“देवि! मैं तुम्हें क्या उत्तर दूँ, तुम ने ही पहले यह बात कही है कि क्षत्रिय लोग इस लिये धनुष धारण करते हैं कि किसी को दुखी हो कर हाहाकार ना करना पड़े (यदि कोई दुख या संकट में पड़ा हो तो उस की रक्षा की जाय )” ।।

४.
“सीते! दण्डकारण्य में रह कर कठोर व्रत का पालन करने वाले वे मुनि बहुत दुखी हैं, इसी लिये मुझे शरणा गत वत्सल जान कर वे स्वयम् मेरे पास आये और शरणा गत हुए” ।।


५.
“भीरु! सदा ही वन में रह कर फल- मूल का आहार करने वाले वे मुनि इन क्रूर कर्मा राक्षसों के कारण कभी सुख नहीं पाते हैं । मनुष्यों के मांस से जीवन निर्वाह करने वाले ये भयानक राक्षस उन्हें मार कर खा जाते हैं” ।।

६.
“उन राक्षसों के ग्रास बने हुए वे दण्डकारण्य वासी द्विजश्रेष्ठ मुनि हम लोगों के पास आ कर मुझ से बोले, “प्रभो! हम पर अनुग्रह कीजिये” ।।

७.
“उनके मुख से निकली हुई इस प्रकार रक्षा की पुकार सुन कर और उन की आज्ञा- पालन रूपी सेवा का विचार मन में ले कर मैंने उन से यह बात कही” ।।

८ से ९.
“महर्षियो! आप-जैसे ब्राह्मणों की सेवा में मुझे स्वयम् ही उपस्थित होना चाहिये था, परंतु आप स्वयम् ही अपनी रक्षा के लिये मेरे पास आये, यह मेरे लिये अनुपम लज्जा की बात है; अतः आप प्रसन्न हों। बताइये, मैं आप लोगों की क्या सेवा करूँ?" यह बात मैंने उन ब्राह्मणों के सामने कही” ।।

१०.
“तब उन सभी ने मिल कर अपना मनोभाव इन वचनों में प्रकट किया- “श्रीराम ! दण्डकारण्य में इच्छानुसार रूप धारण करने वाले बहुत से राक्षस रहते हैं । उन से हमें बड़ा कष्ट पहुँच रहा है, अतः वहाँ उन के भय से आप हमारी रक्षा करें” ।।

श्लोक ११ से २० ।।

११.
“निष्पाप रघुनन्दन! अग्निहोत्र का समय आने पर तथा पर्व के अवसरों पर ये अत्यन्त दुर्धर्ष मांस भोजी राक्षस हमें धर दबाते हैं” ।।

१२.
“राक्षसोंद्वारा आक्रान्त होने वाले हम तपस्वी तापस सदा अपने लिये कोई आश्रय ढूँढ़ते रहते हैं, अतः आप ही हमारे परम आश्रय हों” ।।

१३ से १४.
“रघुनन्दन! यद्यपि हम तपस्या के प्रभाव से इच्छानुसार इन राक्षसों का वध करने में समर्थ हैं तथापि चिर काल से उपार्जित किये हुए तप को खण्डित करना नहीं चाहते हैं; क्योंकि तप में सदा ही बहुत-से विघ्न आते रहते हैं । तथा इसका सम्पादन बहुत ही कठिन होता है” ।।

१५.
“यही कारण है कि राक्षसों के ग्रास बन जाने पर भी हम उन्हें शाप नहीं देते हैं, इस लिये दण्डकारण्य वासी निशाचरों से पीड़ित हुए हम तापसों की भाइ सहित आप रक्षा करें; क्योंकि इस वन में अब आप ही हमारे रक्षक हैं” ।।

१६.
“जनकनन्दिनि! दण्डकारण्य में ऋषियों की यह बात सुन कर मैंने पूर्ण रूप से उन की रक्षा करने की प्रतिज्ञा की है” ।।

१७.
“मुनियों के सामने यह प्रतिज्ञा कर के अब मैं जीते-जी इस प्रतिज्ञा को मिथ्या नहीं कर सकूँगा; क्योंकि सत्य का पालन मुझे सदा ही प्रिय है” ।।

१८.
“सीते! मैं अपने प्राण छोड़ सकता हूँ, तुम्हारा और लक्ष्मण का भी परित्याग कर सकता हूँ, किंतु अपनी प्रतिज्ञा को, विशेषतः ब्राह्मणों के लिये की गयी प्रतिज्ञा को मैं कदापि नहीं तोड़ सकता” ।।

१९.
“इसलिये ऋषियों की रक्षा करना मेरे लिये आवश्यक कर्तव्य है । विदेहनन्दिनि! ऋषियों के बिना कहे ही उन की मुझे रक्षा करनी चाहिये थी; फिर जब उन्हों ने स्वयम् कहा और मैंने प्रतिज्ञा भी कर ली, तब अब उन की रक्षा से कैसे मुँह मोड़ सकता हूँ” ।।

२०.
“सीते! तुम ने स्नेह और सौहार्द वश जो मुझ से ये बातें कही हैं, इस से मैं बहुत संतुष्ट हूँ; क्योंकि जो अपना प्रिय ना हो, उसे कोई हित कर उपदेश नहीं देता” ।।

श्लोक २१ से २२ ।।

२१.
“शोभने! तुम्हारा यह कथन तुम्हारे योग्य तो है ही, तुम्हारे कुल के भी सर्वथा अनुरूप है । तुम मेरी सहधर्मिणी हो और मुझे प्राणों से भी बढ़ कर प्रिय हो” ।।

२२.
महात्मा श्रीरामचन्द्रजी अपनी प्रिया मिथिलेशकुमारी सीता से ऐसा वचन कह कर हाथ में धनुष ले लक्ष्मण के साथ रमणीय तपो वनों में विचरण करने लगे ।।

इस प्रकार श्रीवाल्मीकि निर्मित आर्षरामायण आदिकाव्य के अरण्यकाण्ड में दसवाँ सर्ग पूरा हुआ ॥

Valmiki Ramayana Translated in Hindi and made Screen Readable by Dr T K Bansal