18. Valmiki Ramayana - Yudhh Kaand - Sarg 18
ओम् श्री गणेशाय नमः ।।
ओम् श्रीसीतारामचन्द्राभ्यां नमः ।।
श्रीमद्वाल्मीकीय रामायण – युद्ध काण्ड ।।
अठारहवाँ सर्ग – ३९ श्लोक ।।
सारांश ।।
भगवान् श्रीराम का शरणा गत की रक्षा का महत्त्व एवम् अपना व्रत बता कर विभीषण से मिलना ।।
आरम्भ ।।
श्लोक १ से १० ।।
१.
वायुनन्दन हनुमान्जी के मुख से अपने मन में बैठी हुई बात सुन कर दुर्जय वीर भगवान् श्रीराम का चित्त प्रसन्न हो गया। वे इस प्रकार बोले- ।।
२.
“मित्रो! विभीषण के सम्बन्ध में मैं भी कुछ कहना चाहता हूँ। आप सब लोग मेरे हित साधन में संलग्न रहनेवाले हैं। अतः मेरी इच्छा है कि आप भी उसे सुन लें” ।।
३.
“जो मित्रभाव से मेरे पास आ गया हो, उसे मैं किसी भी तरह त्याग नहीं सकता। सम्भव है उस में कुछ दोष भी हों, परंतु दोषी को आश्रय देना भी सत्पुरुषों के लिये निन्दित नहीं है (अतः विभीषण को मैं अवश्य अपनाऊँगा)” ।।
४.
वानरराज सुग्रीव ने भगवान् श्रीराम के इस कथन को सुन कर स्वयम् भी उसे दोहराया और उस पर विचार कर के यह परम सुन्दर बात कही- ।।
५.
“प्रभो! यह दुष्ट हो या अदुष्ट, इस से क्या? है तो यह निशाचर ही। फिर जो पुरुष ऐसे संकट में पड़े हुए अपने भाइ को छोड़ सकता है, उस का दूसरा ऐसा कौन सम्बन्धी होगा, जिसे वह त्याग न सके” ।।
६ से ७.
वानरराज सुग्रीव की यह बात सुन कर सत्यपराक्रमी श्री रघुनाथजी सब की ओर देख कर कुछ मुसकराये और पवित्र लक्षण वाले लक्ष्मण से इस प्रकार बोले— ।।
८.
“सुमित्रानन्दन! इस समय वानरराज ने जैसी बात कही है, वैसी कोई भी पुरुष शास्त्रोंका अध्ययन और गुरुजनों की सेवा किये बिना नहीं कह सकता” ।।
९.
“परंतु सुग्रीव! तुम ने विभीषण में जो भाइ के परित्यागरूप दोष की उद्भावना की है, उस विषय में मुझे एक ऐसे अत्यन्त सूक्ष्म अर्थ की प्रतीति हो रही है, जो समस्त राजाओं में प्रत्यक्ष देखा गया है और सभी लोगों में प्रसिद्ध है ( मैं उसी को तुम सब लोगों से कहना चाहता हूँ”) ।।
१०.
“राजाओं के छिद्र दो प्रकार के बताये गये हैं - एक तो उसी कुल में उत्पन्न हुए जाति - भाई और दूसरे पड़ोसी देशों के निवासी। ये संकट में पड़ने पर अपने विरोधी राजा या राजपुत्र पर प्रहार कर बैठते हैं। इसी भय से यह विभीषण यहाँ आया है (इसे भी अपने जाति – भाइयों से भय है)” ।।
श्लोक ११ से २० ।।
११.
जिन के मन में पाप नहीं है, ऐसे एक कुल में उत्पन्न हुए भाई-बन्धु अपने कुटुम्बी जनों को हितैषी मानते हैं, परंतु यही सजातीय बन्धु अच्छा होने पर भी प्रायः राजाओं के लिये शङ्गनीय होता है (रावण भी विभीषण को शङ्का की दृष्टि से देखने लगा है; इस लिये इस का अपनी रक्षा के लिये यहाँ आना अनुचित नहीं है। अतः तुम्हें इस के ऊपर भाई के त्याग का दोष नहीं लगाना चाहिये)” ।।
१२.
“तुम ने शत्रुपक्षीय सैनिक को अपनाने में जो यह दोष बताया है कि वह अवसर देख कर प्रहार कर बैठता है, उस के विषय में मैं तुम्हें यह नीति शास्त्र के अनुकूल उत्तर दे रहा हूँ, सुनो” ।।
१३.
“हमलोग इस के कुटुम्बी तो हैं नहीं (अतः हम से स्वार्थ-हानि की आशंका इसे नहीं है) और यह राक्षस राज्य पाने का अभिलाषी है (इस लिये भी यह हमारा त्याग नहीं कर सकता) । इन राक्षसों में बहुत-से लोग बड़े विद्वान् भी होते हैं (अतः वे मित्र होने पर बड़े काम के सिद्ध होंगे) इस लिये विभीषण को अपने पक्ष में मिला लेना चाहिये” ।।
१४.
“हम से मिल जाने पर ये विभीषण आदि निश्चिन्त एवम् प्रसन्न हो जायँगे। इन की जो यह शरणा गति के लिये प्रबल पुकार है, इससे मालूम होता है, राक्षसों में एक-दूसरे से भय बना हुआ है। इसी कारण से इन में परस्पर फूट होगी और ये नष्ट हो जायँगे। इसलिये भी विभीषण को ग्रहण कर लेना चाहिये” ।।
१५.
“तात सुग्रीव! संसार में सब भाई भरत के ही समान नहीं होते। पिता के सब बेटे मेरे ही जैसे नहीं होते और सभी मित्र तुम्हारे ही समान नहीं हुआ करते हैं” ।।
१६.
श्रीराम के ऐसा कहने पर लक्ष्मण सहित महाबुद्धिमान् सुग्रीव ने उठ कर उन्हें प्रणाम किया और इस प्रकार कहा- ।।
१७.
“उचित कार्य करने वालों में श्रेष्ठ रघुनन्दन! आप उस राक्षस को रावण का भेजा हुआ ही समझें। मैं तो उसे कैद कर लेना ही ठीक समझता हूँ” ।।
१८ से १९.
“निष्पाप श्रीराम! यह निशाचर रावण के कहने से मन में कुटिल विचार ले कर ही यहाँ आया है। जब हमलोग इस पर विश्वास कर के इस की ओर से निश्चिन्त हो जायँगे, उस समय यह आप पर, मुझ पर अथवा लक्ष्मण पर भी प्रहार कर सकता है। इसलिये महाबाहो! क्रूर रावण के भाई इस विभीषण का मन्त्रियों सहित वध कर देना ही उचित है” ।।
२०.
प्रवचन कुशल रघुकुलतिलक श्रीराम से ऐसा कह कर बातचीत की कला जानने वाले सेनापति सुग्रीव मौन हो गये ।।
श्लोक २१ से ३० ।।
२१.
सुग्रीव का वह वचन सुन कर और उस पर भलीभाँति विचार कर के श्रीराम ने उन वानरशिरोमणि से यह परम मङ्गलमयी बात कही- ।।
२२.
“वानरराज! विभीषण दुष्ट हो या साधु। क्या यह निशाचर किसी तरह भी मेरा सूक्ष्म-से- सूक्ष्म रूप में भी अहित कर सकता है?” ।।
२३.
“वानरयूथपते! यदि मैं चाहूँ तो पृथ्वी पर जितने भी पिशाच, दानव, यक्ष और राक्षस हैं, उन सब को एक अंगुलि के अग्रभाग से मार सकता हूँ” ।।
२४.
“सुना जाता है कि एक कबूतर ने अपनी शरण में आये हुए अपने ही शत्रु एक व्याध का यथोचित आतिथ्य-सत्कार किया था और उसे निमन्त्रण दे अपने शरीर के मांस का भोजन कराया था” ।।
२५.
“उस व्याध ने उस कबूतर की भार्या कबूतरी को पकड़ लिया था तो भी अपने घर आने पर कबूतर ने उस का आदर किया; फिर मेरे-जैसा मनुष्य शरणा गत पर अनुग्रह करे, इस के लिये तो कहना ही क्या है?” ।।
२६.
“पूर्वकाल में कण्व मुनि के पुत्र सत्यवादी महर्षि कण्डु ने एक धर्म विषयक गाथा का गान किया था। उसे बताता हूँ, सुनो” ।।
२७.
“परंतप! यदि शत्रु भी शरण में आये और दीनभाव से हाथ जोड़ कर दया की याचना करे तो उस पर प्रहार नहीं करना चाहिये” ।।
२८.
“शत्रु दुखी हो या अभिमानी, यदि वह अपने विपक्षी की शरण में जाय तो शुद्ध हृदय वाले श्रेष्ठ पुरुष को अपने प्राणों का मोह छोड़ कर उस की रक्षा करनी चाहिये” ।
२९.
“यदि वह भय, मोह अथवा किसी कामना से न्यायानुसार यथाशक्ति उस की रक्षा नहीं करता तो उस के उस पाप-कर्म की लोक में बड़ी निन्दा होती है” ।।
३०.
“यदि शरण में आया हुआ पुरुष संरक्षण न पा कर उस रक्षक के देखते-देखते नष्ट हो जाय तो वह उस के सारे पुण्य को अपने साथ ले जाता है” ।।
श्लोक ३१ से ३९ ।।
३१.
“इस प्रकार शरणा गत की रक्षा न करने में महान् दोष बताया गया है। शरणा गत का त्याग स्वर्ग और सुयश की प्राप्ति को मिटा देता है और मनुष्य के बल और वीर्य का नाश करता है” ।।
३२.
“इस लिये मैं तो महर्षि कण्डु के उस यथार्थ और उत्तम वचन का ही पालन करूँ गा; क्योंकि वह परिणाम में धर्म, यश और स्वर्ग की प्राप्ति करानेवाला है” ।।
३३.
“जो एक बार भी शरण में आ कर “मैं तुम्हारा हूँ” ऐसा कह कर मुझ से रक्षा की प्रार्थना करता है, उसे मैं समस्त प्राणियों से अभय कर देता हूँ। यह मेरा सदा के लिये व्रत है” ।।
३४.
“अतः, कपिश्रेष्ठ सुग्रीव! वह विभीषण हो या स्वयम् रावण आ गया हो। तुम उसे ले आओ। मैंने उसे अभयदान दे दिया” ।।
३५.
भगवान् श्रीराम का यह वचन सुन कर वानरराज सुग्रीव ने सौहार्द से भर कर उन से कहा- ।।
३६.
“धर्मज्ञ! लोकेश्वरशिरोमणे! आप ने जो यह श्रेष्ठ धर्म की बात कही है, इस में क्या आश्चर्य है? क्योंकि आप महान् शक्तिशाली और सन्मार्गपर स्थित हैं” ।।
३७.
“यह मेरी अन्तरात्मा भी विभीषण को शुद्ध समझती है। हनुमान्जी ने भी अनुमान और भाव से उन की भीतर-बाहर सब ओर से भलीभाँति परीक्षा कर ली हैं” ।।
३८.
“अतः, रघुनन्दन! अब विभीषण शीघ्र ही यहाँ हमारे-जैसे हो कर रहें और हमारी मित्रता प्राप्त करें” ।।
३९.
तदनन्तर वानरराज सुग्रीव की कही हुइ वह बात सुन कर राजा श्रीराम शीघ्र आगे बढ़ कर विभीषण से मिले, मानो देवराज इन्द्र पक्षिराज गरुड़ से मिल रहे हों ।।
इस प्रकार श्रीवाल्मीकि द्वारा निर्मित आर्षरामायण आदिकाव्य के युद्धकाण्ड में अठारहवाँ सर्ग पूरा हुआ ।।
Sarg 18 - Yuddh Kaand - Valmiki Ramayana Translated in Hindi and made Screen Readable for Blind and Visually Impaired Individuals by Dr T K Bansal, The Blind Scientist.
