17. Valmiki Ramayana - Yudhh Kaand - Sarg 17

ओम् श्री गणेशाय नमः ।।

ओम् श्रीसीतारामचन्द्राभ्यां नमः ।।

श्रीमद्वाल्मीकीय रामायण – युद्ध काण्ड ।।

सत्रहवाँ सर्ग – ६८ श्लोक ।।

सारांश ।।

विभीषण का श्रीराम की शरण में आना और श्रीराम का अपने मन्त्रियों के साथ उन्हें आश्रय देने के विषय में विचार करना ।।

आरम्भ ।।

श्लोक १ से १० ।।

१.
रावण से ऐसे कठोर वचन कह कर उस के छोटे भाई विभीषण दो ही घड़ी में उस स्थान पर आ गये, जहाँ लक्ष्मण सहित श्रीराम विराजमान थे ।।

२.
विभीषण का शरीर सुमेरु पर्वत के शिखर के समान ऊँचा था। वे आकाश में चमकती हुई बिजली के समान जान पड़ते थे। पृथ्वी पर खड़े हुए वानरयूथपतियों ने उन्हें आकाश में स्थित देखा ।।

३.
विभीषण के साथ जो चार अनुचर थे। वे भी बड़ा भयंकर पराक्रम प्रकट करनेवाले थे। उन्होंने भी कवच धारण कर के अस्त्र - शस्त्र ले रखे थे और वे सब - के - सब उत्तम आभूषणों से विभूषित थे ।।

४.
वीर विभीषण भी मेघ और पर्वत के समान जान पड़ते थे। वज्रधारी इन्द्र के समान तेजस्वी , उत्तम आयुध धारी और दिव्य आभूषणों से अलंकृत थे ।।

५.
उन चारों राक्षसों के साथ पाँचवें विभीषण को देख कर दुर्धर्ष एवम् बुद्धिमान् वीर वानरराज सुग्रीव ने वानरों के साथ विचार किया ।।

६.
थोड़ी देर तक सोच कर उन्हों ने हनुमान् आदि सब वानरों से यह उत्तम बात कही — ।।

७.
“देखो, सब प्रकार के अस्त्र – शस्त्रों से सम्पन्न यह राक्षस दूसरे चार निशाचरों के साथ आ रहा है। इस में संदेह नहीं कि यह हमें मारने के लिये ही आया है” ।।

८.
सुग्रीव की यह बात सुन कर वे सभी श्रेष्ठ वानर सालवृक्ष और पर्वत की शिलाएँ उठा कर इस प्रकार बोले— ।।

९.
“राजन्! आप शीघ्र ही हमें इन दुरात्माओं के वध की आज्ञा दीजिये, जिस से ये मन्द मति निशाचर मर कर ही इस पृथ्वी पर गिरें” ।।

१०.
आपस में वे इस प्रकार बात कर ही रहे थे कि विभीषण समुद्र के उत्तर तट पर आ कर आकाश में ही खड़े हो गये ।।

श्लोक ११ से २० ।।

११.
महाबुद्धिमान् महापुरुष विभीषण ने आकाश में ही स्थित रह कर सुग्रीव तथा उन वानरों की ओर देखते हुए उच्च स्वर से कहा – ।।

१२.
“रावण नाम का जो दुराचारी राक्षस निशाचरों का राजा है, उसी का मैं छोटा भाइ हूँ। मेरा नाम विभीषण है” ।।

१३.
“रावण ने जटायु को मार कर जनस्थान से सीता का अपहरण किया था। उसी ने दीन एवम् असहाय सीता को रोक रखा है। इन दिनों सीता राक्षसियों के पहरे में रहती हैं” ।।

१४.
“मैंने भाँति – भाँति के युक्तिसंगत वचनों द्वारा उसे बारंबार समझाया कि तुम श्रीरामचन्द्रजी की सेवा में सीता को सादर लौटा दो – इसी में भलाई है” ।।

१५.
“यद्यपि मैंने यह बात उस के हित के लिये ही कही थी तथापि काल से प्रेरित होने के कारण रावण ने मेरी बात नहीं मानी। ठीक उसी प्रकार, जैसे मरणासन्न पुरुष औषध नहीं लेता है” ।।

१६.
“यही नहीं, उसने मुझे बहुत - सी कठोर बातें सुनायीं और दास की भाँति मेरा अपमान किया। इसलिये मैं अपने स्त्री – पुत्रों को वहीं छोड़ कर श्री रघुनाथजी की शरण में आया हूँ” ।।

१७.
“वानरो! जो समस्त लोकों को शरण देनेवाले हैं, उन महात्मा श्रीरामचन्द्रजी के पास जा कर शीघ्र मेरे आगमन की सूचना दो और उन से कहो – “शरणार्थी विभीषण सेवा में उपस्थित हुआ है” ।।

१८.
विभीषण की यह बात सुन कर शीघ्रगामी सुग्रीव ने तुरंत ही भगवान् श्रीराम के पास जा कर लक्ष्मण के सामने ही कुछ आवेश के साथ इस प्रकार कहा— ।।

१९.
“प्रभो! आज कोई वैरी , जो राक्षस होने के कारण पहले हमारे शत्रु रावण की सेना में सम्मिलित हुआ था, अब अकस्मात् हमारी सेना में प्रवेश पाने के लिये आ गया है। वह अवसर पा कर हमें उसी तरह मार डालेगा, जैसे उल्लू कौओं का काम तमाम कर देता है” ।।

२०.
“शत्रुओं को संताप देनेवाले रघुनन्दन! अतः आप को अपने वानर सैनिकों पर अनुग्रह और शत्रुओं का निग्रह करने के लिये कार्याकार्य के विचार, सेना की मोर्चेबंदी, नीतियुक्त उपायों के प्रयोग तथा गुप्तचरों की नियुक्ति आदि के विषय में सतत सावधान रहना चाहिये। ऐसा करने से ही आप का भला होगा” ।।

श्लोक २१ से ३० ।।

२१.
“ये राक्षसलोग मनमाना रूप धारण कर सकते हैं। इनमें अन्तर्धान होने की भी शक्ति होती है। शूरवीर और मायावी तो ये होते ही हैं। इसलिये इन का कभी विश्वास नहीं करना चाहिये” ।।

२२.
“सम्भव है कि यह राक्षसराज रावण का कोई गुप्तचर हो। यदि ऐसा हुआ तो हमलोगों में घुस कर यह फूट पैदा कर देगा, इस में संदेह नहीं है” ।।

२३.
“अथवा यह बुद्धिमान् राक्षस छिद्र पा कर हमारी विश्वस्त सेना के भीतर घुस कर कभी स्वयम् ही हमलोगों पर प्रहार कर बैठेगा, इस बात की भी सम्भावना है” ।।

२४.
“मित्रों की, जंगली जातियों की तथा परम्परागत भृत्यों की जो सेनाएँ हैं, इन सब का संग्रह तो किया जा सकता है; किंतु जो शत्रुपक्ष से मिले हुए हों, ऐसे सैनिकों का संग्रह कदापि नहीं करना चाहिये” ।।

२५.
“प्रभो! यह स्वभाव से तो राक्षस है ही, अपने को शत्रु का भाइ भी बता रहा है। इस दृष्टि से यह साक्षात् हमारा शत्रु ही यहाँ आ पहुँचा है; फिर इस पर कैसे विश्वास किया जा सकता है” ।।

२६.
“रावण का छोटा भाइ, जो विभीषण के नाम से प्रसिद्ध है, चार राक्षसों के साथ आप की शरण में आया है” ।।

२७.
“आप उस विभीषण को रावण का भेजा हुआ ही समझें। उचित व्यापार करनेवालों में श्रेष्ठ रघुनन्दन! मैं तो उस को कैद कर लेना ही उचित समझता हूँ” ।।

२८.
“निष्पाप श्रीराम! मुझे तो ऐसा जान पड़ता है कि यह राक्षस रावण के कहने से ही यहाँ आया है। इसकी बुद्धि में कुटिलता भरी है। यह माया से छिपा रहे गा तथा जब आप इस पर पूरा विश्वास कर के इस की ओर से निश्चिन्त हो जायँगे, तब यह आपही पर चोट कर बैठेगा। इसी उद्देश्य से इस का यहाँ आना हुआ है” ।।

२९.
“यह महाक्रूर रावण का भाइ है, इसलिये इसे कठोर दण्ड दे कर इस के मन्त्रियों सहित मार डालना चाहिये” ।।

३०.
बातचीत की कला जानने वाले एवम् रोष में भरे हुए सेनापति सुग्रीव प्रवचन कुशल श्रीराम से ऐसी बातें कह कर चुप हो गये ।।

श्लोक ३१ से ४० ।।

३१.
सुग्रीव का वह वचन सुन कर महाबली श्रीराम अपने निकट बैठे हुए हनुमान् आदि वानरों से इस प्रकार बोले – ।।

३२.
“वानरो! वानरराज सुग्रीव ने रावण के छोटे भाई विभीषण के विषय में जो अत्यन्त युक्तियुक्त बातें कही हैं, वे तुमलोगों ने भी सुनी हैं” ।।

३३.
“मित्रों की स्थायी उन्नति चाहनेवाले बुद्धिमान् एवम् समर्थ पुरुष को कर्तव्याकर्तव्य के विषय में संशय उपस्थित होने पर सदा ही अपनी सम्मति देनी चाहिये” ।।

३४.
इस प्रकार सलाह पूछी जानेपर श्रीराम का प्रिय करने की इच्छा रखनेवाले वे सब वानर आलस्य छोड़ उत्साहित हो सादर अपना-अपना मत प्रकट करने लगे- ।।

३५.
“रघुनन्दन! तीनों लोकों में कोइ ऐसी बात नहीं है, जो आप को ज्ञात न हो, तथापि हम आप के अपने ही अङ्ग हैं, अतः आप मित्रभाव से हमारा सम्मान बढ़ाते हुए हम से सलाह पूछते हैं” ।।

३६.
“आप सत्यव्रती, शूरवीर, धर्मात्मा, सुदृढ़ पराक्रमी, जाँच-बूझ कर काम करनेवाले, स्मरणशक्ति से सम्पन्न और मित्रों पर विश्वास कर के उन्हीं के हाथोंमें अपने-आप को सौंप देनेवाले हैं” ।।

३७.
“इसलिये आप के सभी बुद्धिमान् एवम् सामर्थ्यशाली सचिव एक-एक कर के बारी-बारी से अपने युक्तियुक्त विचार प्रकट करें” ।।

३८.
वानरों के ऐसा कहने पर सब से पहले बुद्धिमान् वानर अङ्गद विभीषण की परीक्षा के लिये सुझाव देते हुए श्री रघुनाथजी से बोले- ।।

३९.
“भगवन्! विभीषण शत्रु के पास से आया है, इसलिये उस पर अभी शङ्का ही करनी चाहिये। उसे सहसा विश्वासपात्र नहीं बना लेना चाहिये” ।।

४०.
“बहुत-से शठता पूर्ण विचार रखने वाले लोग अपने मनो भाव को छिपा कर विचरते रहते हैं और अवसर पाते ही प्रहार कर बैठते हैं। इस से बहुत बड़ा अनर्थ हो जाता है” ।।

श्लोक ४१ से ५० ।।

४१.
“अतः गुण-दोष का विचार कर के पहले यह निश्चय कर लेना चाहिये कि इस व्यक्ति से अर्थ की प्राप्ति होगी या अनर्थ की (यह हित का साधन करेगा या अहित का) । यदि उस में गुण हों तो उसे स्वीकार करे और यदि दोष दिखायी दें तो त्याग दे” ।।

४२.
“महाराज! यदि उस में महान् दोष हो तो निःसंदेह उस का त्याग कर देना ही उचित है। गुणों की दृष्टि से यदि उस में बहुत-से सद्गुणों के होने का पता लगे, तभी उस व्यक्ति को अपनाना चाहिये” ।।

४३.
तदनन्तर ऋषभ ने सोच – विचार कर यह सार्थक बात कही – “ पुरुषसिंह ! इस विभीषण के ऊपर शीघ्र ही कोई गुप्तचर नियुक्त कर दिया जाय” ।।

४४.
“सूक्ष्म बुद्धिवाले गुप्तचर को भेज कर उस के द्वारा यथावत्रूप से उस की परीक्षा कर ली जाय। इस के बाद यथोचित रीति से उस का संग्रह करना चाहिये” ।।

४५.
इस के बाद परम चतुर जाम्बवान्ने शास्त्रीय बुद्धि से विचार कर के ये गुणयुक्त दोषरहित वचन कहे – ॥

४६.
“राक्षसराज रावण बड़ा पापी है। उसने हमारे साथ वैर बाँध रखा है और यह विभीषण उसी के पास से आ रहा है। वास्तव में न तो इस के आने का यह समय ही है और न स्थान ही । इसलिये इस के विषय में सब प्रकार से सशङ्क ही रहना चाहिये” ।।

४७.
तदनन्तर नीति और अनीति के ज्ञाता तथा वाग्वैभव से सम्पन्न मैन्द ने सोच – विचार कर यह युक्तियुक्त उत्तम बात कही – ।।

४८.
“महाराज! यह विभीषण रावण का छोटा भाई ही तो है, इसलिये इस से मधुर व्यवहार के साथ धीरे - धीरे सब बातें पूछनी चाहिये” ।।

४९.
“नरश्रेष्ठ! फिर इस के भाव को समझ कर आप बुद्धि पूर्वक यह ठीक - ठीक निश्चय करें कि यह दुष्ट है या नहीं। उसके बाद जैसा उचित हो , वैसा करना चाहिये” ।।

५०.
तत्पश्चात् सचिवों में श्रेष्ठ और सम्पूर्ण शास्त्रों के ज्ञानजनित संस्कार से युक्त हनुमान्जी ने ये श्रवणमधुर , सार्थक , सुन्दर और संक्षिप्त वचन कहे— ।।

श्लोक ५१ से ६० ।।

५१.
“प्रभो! आप बुद्धिमानों में उत्तम, सामर्थ्यशाली और वक्ताओं में श्रेष्ठ हैं। यदि बृहस्पति भी भाषण दें तो वे अपने को आप से बढ़ कर वक्ता नहीं सिद्ध कर सकते” ।।

५२.
“महाराज श्रीराम! मैं जो कुछ निवेदन करूँगा, वह वाद - विवाद या तर्क, स्पर्धा, अधिक बुद्धिमत्ता के अभिमान अथवा किसी प्रकार की कामना से नहीं करूँगा। मैं तो कार्य की गुरुता पर दृष्टि रख कर जो यथार्थ समझुं गा, वही बात कहूँगा” ।।

५३.
“आप के मन्त्रियों ने जो अर्थ और अनर्थ के निर्णय के लिये गुण – दोष की परीक्षा करने का सुझाव दिया है, उस में मुझे दोष दिखायी देता है; क्योंकि इस समय परीक्षा लेना कदापि सम्भव नहीं है” ।।

५४.
“विभीषण आश्रय देने के योग्य हैं या नहीं-इस का निर्णय उसे किसी काम में नियुक्त किये बिना नहीं हो सकता और सहसा उसे किसी काम में लगा देना भी मुझे सदोष ही प्रतीत होता है” ।।

५५.
“आप के मन्त्रियों ने जो गुप्तचर नियुक्त करने की बात कही है, उस का कोई प्रयोजन न होने से वैसा करने का कोइ युक्तियुक्त कारण नहीं दिखायी देता। (जो दूर रहता हो और जिस का वृत्तान्त ज्ञात न हो, उसी के लिये गुप्तचर की नियुक्ति की जाती है। जो सामने खड़ा है और स्पष्ट रूप से अपना वृत्तान्त बता रहा है, उस के लिये गुप्तचर भेजने की क्या आवश्यकता है)” ।।

५६.
“इस के सिवा जो यह कहा गया है कि विभीषण का इस समय यहाँ आना देश-काल के अनुरूप नहीं है। उस के विषय में भी मैं अपनी बुद्धि के अनुसार कुछ कहना चाहता हूँ। आप सुनें” ।।

५७ से ५८.
“उस के यहाँ आने का यही उत्तम देश और काल है, यह बात जिस तरह सिद्ध होती है, वैसा बता रहा हूँ। विभीषण एक नीच पुरुष के पास से चल कर एक श्रेष्ठ पुरुष के पास आया है। उस ने दोनों के दोषों और गुणों का भी विवेचन किया है। तत्पश्चात् रावण में दुष्टता और आप में पराक्रम देख वह रावण को छोड़ कर आप के पास आ गया है। इसलिये उस का यहाँ आगमन सर्वथा उचित और उस की उत्तम बुद्धि के अनुरूप है” ।।

५९.
“राजन्! किसी मन्त्री के द्वारा जो यह कहा गया है कि अपरिचित पुरुषों द्वारा इस से सारी बातें पूछी जायँ। उस के विषय में मेरा जाँच-बूझ कर निश्चित किया हुआ विचार है, जिसे आप के सामने रखता हूँ” ।।

६०.
“यदि कोई अपरिचित व्यक्ति यह पूछे गा कि तुम कौन हो, कहाँ से आये हो? किसलिये आये हो? इत्यादि, तब कोई बुद्धिमान् पुरुष सहसा उस पूछनेवाले पर संदेह करने लगेगा और यदि उसे यह मालूम हो जाय गा कि सब कुछ जानते हुए भी मुझ से झूठे ही पूछा जा रहा है, तब सुख के लिये आये हुए उस नवागत मित्र का हृदय कलुषित हो जायगा (इस प्रकार हमें एक मित्र के लाभ से वञ्चित होना पड़ेगा)” ।।

श्लोक ६१ से ६८ ।।

६१.
“इस के सिवा महाराज! किसी दूसरे के मन की बात को सहसा समझ लेना असम्भव है। बीच-बीच में स्वरभेदसे आप अच्छी तरह यह निश्चय कर लें कि यह साधुभाव से आया है या असाधुभाव से” ।।

६२.
इस की बात चीत से भी कभी इस का दुर्भाव नहीं लक्षित होता। इस का मुख भी प्रसन्न है। इसलिये मेरे मन में इस के प्रति कोइ संदेह नहीं है” ।।

६३.
“दुष्ट पुरुष कभी निःशङ्क एवं स्वस्थचित्त हो कर सामने नहीं आ सकता। इसके सिवा इस की वाणी भी दोषयुक्त नहीं है । अतः मुझे इस के विषय में कोई संदेह नहीं है” ॥

६४.
“कोइ अपने आकार को कितना ही क्यों न छिपाये, उस के भीतर का भाव कभी छिप नहीं सकता। बाहर का आकार पुरुषों के आन्तरिक भाव को बलात् प्रकट कर देता है” ।।

६५.
“कार्यवेत्ताओं में श्रेष्ठ रघुनन्दन! विभीषण का यहाँ आगमन जो कार्य है , वह देश और काल के अनुरूप ही है। ऐसा कार्य यदि योग्य पुरुष के द्वारा सम्पादित हो तो अपने – आप को शीघ्र सफल बनाता है” ।।

६६ से ६७.
“आप के उद्योग, रावण के मिथ्याचार, वाली के वध और सुग्रीव के राज्याभिषेक का समाचार जान – सुन कर राज्य पाने की इच्छा से यह समझ – बूझ कर ही यहाँ आप के पास आया है (इस के मन में यह विश्वास है कि शरणागत वत्सल दयालु श्रीराम अवश्य ही मेरी रक्षा करेंगे और राज्य भी दे देंगे) । इन्हीं सब बातों को दृष्टि में रख कर विभीषण का संग्रह करना - उसे अपना लेना मुझे उचित जान पड़ता है” ।।

६८.
“बुद्धिमानों में श्रेष्ठ रघुनाथ! इस प्रकार इस राक्षस की सरलता और निर्दोषता के विषय में मैंने यथाशक्ति निवेदन किया। इसे सुन कर आगे आप जैसा उचित समझें, वैसा करें” ।।

इस प्रकार श्रीवाल्मीकि द्वारा निर्मित आर्षरामायण आदिकाव्य के युद्धकाण्ड में सत्रहवाँ सर्ग पूरा हुआ ।।

Sarg 17 - Yuddh Kaand - Valmiki Ramayana Translated in Hindi and made Screen Readable for Blind and Visually Impaired Individuals by Dr T K Bansal, The Blind Scientist.