16. Valmiki Ramayana - Yudhh Kaand - Sarg 16
ओम् श्री गणेशाय नमः ।।
ओम् श्रीसीतारामचन्द्राभ्यां नमः ।।
श्रीमद्वाल्मीकीय रामायण – युद्ध काण्ड ।।
सोलहवाँ सर्ग – २६ श्लोक ।।
सारांश ।।
रावण के द्वारा विभीषण का तिरस्कार और विभीषण का भी उसे फटकार कर चल देना ।।
आरम्भ ।।
श्लोक १ से १० ।।
१.
रावण के सिर पर काल मँडरा रहा था, इसलिये उस ने सुन्दर अर्थ से युक्त और हितकर बात कहने पर भी विभीषण से कठोर वाणी में कहा- ।।
२.
“भाई! शत्रु और कुपित विषधर सर्प के साथ रहना पड़े तो रह ले; परंतु जो मित्र कहला कर भी शत्रु की सेवा कर रहा हो, उस के साथ कदापि न रहे” ।।
३.
“राक्षस! सम्पूर्ण लोकों में सजातीय बन्धुओं का जो स्वभाव होता है, उसे मैं अच्छी तरह जानता हूँ। जाति वाले सर्वदा अपने अन्य सजातीयों की आपत्तियों में ही हर्ष मानते हैं” ।।
४.
“निशाचर! जो ज्येष्ठ होने के कारण राज्य पा कर सब में प्रधान हो गया हो, राज्य कार्य को अच्छी तरह चला रहा हो और विद्वान्, धर्मशील तथा शूरवीर हो, उसे भी कुटुम्बीजन अपमानित करते हैं और अवसर पा कर उसे नीचा दिखाने की भी चेष्टा करते हैं” ।।
५.
“जातिवाले सदा एक-दूसरे पर संकट आने पर हर्ष का अनुभव करते हैं। वे बड़े आततायी होते हैं- मौका पड़ने पर आग लगाने, जहर देने, शस्त्र चलाने, धन हड़पने और क्षेत्र तथा स्त्री का अपहरण करने में भी नहीं हिचकते हैं। अपना मनोभाव छिपाये रहते हैं; अतएव क्रूर और भयंकर होते हैं” ।।
६.
“पूर्वकाल की बात है, पद्म वन में हाथियों ने अपने हृदय के उद्धार प्रकट किये थे, जो अब भी श्लोकों के रूप में गाये और सुने जाते हैं। एक बार कुछ लोगों को हाथ में फंदा लिये आते देख हाथियों ने जो बातें कही थीं, उन्हें बता रहा हूँ, मुझ से सुनो” ।।
७.
“हमें अग्नि, दूसरे-दूसरे शस्त्र तथा पाश भय नहीं दे सकते। हमारे लिये तो अपने स्वार्थी जाति-भाइ ही भयानक और खतरे की वस्तु हैं” ।।
८.
“ये ही हमारे पकड़े जाने का उपाय बता देंगे, इस में संशय नहीं; अतः सम्पूर्ण भयोंकी अपेक्षा हमें अपने जाति-भाइयों से प्राप्त होने वाला भय ही अधिक कष्टदायक जान पड़ता है” ।।
९.
“जैसे गौओं में हव्य-कव्य की सम्पत्ति दूध होता है, स्त्रियों में चपलता होती है और ब्राह्मण में तपस्या रहा करती है, उसी प्रकार जाति-भाइयों से भय अवश्य प्राप्त होता है” ।।
१०.
“अतः सौम्य! आज जो सारा संसार मेरा सम्मान करता है और मैं जो ऐश्वर्यवान, कुलीन और शत्रुओं के सिर पर स्थित हूँ, यह सब तुम्हें अभीष्ट नहीं है” ।।
श्लोक ११ से २० ।।
११.
“जैसे कमल के पत्ते पर गिरी हुइ पानी की बूँदें उस में सटती नहीं हैं, उसी प्रकार अनार्यों के हृदय में सौहार्द नहीं टिकता है” ।।
१२.
“जैसे शरद-ऋतु में गर्जते और बरसते हुए मेघों के जल से धरती गीली नहीं होती है, उसी प्रकार अनार्यों के हृदय में स्नेहजनित आर्द्रता नहीं होती है” ।।
१३.
“जैसे भौंरा बड़ी चाह से फूलों का रस पीता हुआ भी वहाँ ठहरता नहीं है, उसी प्रकार अनार्यों में सुहज्जनोचित स्नेह नहीं टिक पाता है। तुम भी ऐसे ही अनार्य हो” ।
१४.
“जैसे भ्रमर रस की इच्छा से काश के फूल का पान करे तो उस में रस नहीं पा सकता, उसी प्रकार अनार्यों में जो स्नेह होता है, वह किसी के लिये लाभदायक नहीं होता” ।।
१५.
“जैसे हाथी पहले स्नान कर के फिर सूँड़ से धूल उछाल कर अपने शरीर को गँदला कर लेता है, उसी प्रकार दुर्जनों की मैत्री दूषित होती है” ।।
१६.
“कुलकलङ्क निशाचर! तुझे धिक्कार है। यदि तेरे सिवा दूसरा कोइ ऐसी बातें कहता तो उसे इसी मुहूर्त में अपने प्राणों से हाथ धोना पड़ता” ।।
१७.
विभीषण न्यायानुकूल बातें कह रहे थे तो भी रावण ने जब उन से ऐसे कठोर वचन कहे, तब वे हाथ में गदा ले कर अन्य चार राक्षसों के साथ उसी समय उछल कर आकाश में चले गये ।।
१८.
उस समय अन्तरिक्ष में खड़े हुए तेजस्वी भ्राता विभीषण ने कुपित हो कर राक्षसराज रावण से कहा- ।।
१९.
“राजन्! तुम्हारी बुद्धि भ्रम में पड़ी हुई है। तुम धर्म के मार्ग पर नहीं हो। यों तो मेरे बड़े भाई होने के कारण तुम पिता के समान आदरणीय हो। इसलिये मुझे जो-जो चाहो, कह लो; परंतु अग्रज होने पर भी तुम्हारे इस कठोर वचन को कदापि नहीं सह सकता” ।।
२०.
“दशानन! जो अजितेन्द्रिय पुरुष काल के वशीभूत हो जाते हैं, वे हित की कामना से कहे हुए सुन्दर नीति युक्त वचनों को भी नहीं ग्रहण करते हैं” ।।
श्लोक २१ से २६ ।।
२१.
“राजन्! सदा प्रिय लगने वाली मीठी-मीठी बातें कहनेवाले लोग तो सुगमता से मिल सकते हैं; परंतु जो सुनने में अप्रिय किंतु परिणाम में हितकर हो, ऐसी बात कहने और सुनने वाले दुर्लभ होते हैं” ।।
२२.
“तुम समस्त प्राणियों का संहार करने वाले काल के पाश में बँध चुके हो। जिस में आग लग गयी हो, उस घर की भाँति नष्ट हो रहे हो। ऐसी दशा में मैं तुम्हारी उपेक्षा नहीं कर सकता था, इसीलिये तुम्हें हित की बात सुझा दी थी” ।।
२३.
“श्रीराम के सुवर्णभूषित बाण प्रज्वलित अग्नि के समान तेजस्वी और तीखे हैं। मैं श्रीराम के द्वारा उन बाणों से तुम्हारी मृत्यु नहीं देखना चाहता था, इसीलिये तुम्हें समझाने की चेष्टा की थी” ।।
२४.
“काल के वशीभूत होने पर बड़े-बड़े शूरवीर, बलवान् और अस्त्रवेत्ता भी बालू की भीति या बाँध के समान नष्ट हो जाते हैं” ।।
२५.
“राक्षसराज! मैं तुम्हारा हित चाहता हूँ। इसीलिये जो कुछ भी कहा है, वह यदि तुम्हें अच्छा नहीं लगा तो उस के लिये मुझे क्षमा कर दो; क्योंकि तुम मेरे बड़े भाई हो। अब तुम अपनी तथा राक्षसों सहित इस समस्त लंकापुरी की सब प्रकार से रक्षा करो। तुम्हारा कल्याण हो। अब मैं यहाँ से चला जाऊँगा। तुम मेरे बिना सुखी हो जाओ” ।।
२६.
“निशाचरराज! मैं तुम्हारा हितैषी हूँ। इसीलिये मैंने तुम्हें बार-बार अनुचित मार्ग पर चलने से रोका है, किंतु तुम्हें मेरी बात अच्छी नहीं लगती है। वास्तव में जिन लोगों की आयु समाप्त हो जाती है, वे जीवन के अन्त काल में अपने सुहृदों की कही हुइ हितकर बात भी नहीं मानते हैं” ।।
इस प्रकार श्रीवाल्मीकि द्वारा निर्मित आर्षरामायण आदिकाव्य के युद्धकाण्ड में सोलहवाँ सर्ग पूरा हुआ ।।
Sarg 16 - Yuddh Kaand - Valmiki Ramayana Translated in Hindi and made Screen Readable for Blind and Visually Impaired Individuals by Dr T K Bansal, The Blind Scientist.
