15. Valmiki Ramayana - Yudhh Kaand - Sarg 15

ओम् श्री गणेशाय नमः ।।

ओम् श्रीसीतारामचन्द्राभ्यां नमः ।।

श्रीमद्वाल्मीकीय रामायण – युद्ध काण्ड ।।

पंद्रहवाँ सर्ग – १४ श्लोक ।।

सारांश ।।

इन्द्रजित द्वारा विभीषण का उपहास तथा विभीषण का उसे फटकार कर सभा में अपनी उचित सम्मति देना ।।

आरम्भ ।।

श्लोक १ से १० ।।

१.
विभीषण बृहस्पति के समान बुद्धिमान् थे। उनके वचनों को जैसे - तैसे बड़े कष्ट से सुन कर राक्षस – यूथपतियों में प्रधान महाकाय इन्द्रजित ने वहाँ यह बात कही - ।।

२.
“मेरे छोटे चाचा! आप बहुत डरे हुए की भांति यह कैसी निरर्थक बात कह रहे हैं? जिस ने इस कुल में जन्म न लिया होगा, वह पुरुष भी न तो ऐसी बात कहे गा और न ऐसा काम ही करे गा” ।।

३.
“पिताजी! हमारे इस राक्षस कुल में एकमात्र ये छोटे चाचा विभीषण ही बल, वीर्य, पराक्रम, धैर्य, शौर्य और तेज से रहित हैं” ।।

४.
“वे दोनों मानव राजकुमार क्या हैं? उन्हें तो हमारा एक साधारण - सा राक्षस भी मार सकता है; फिर मेरे डरपोक चाचा! आप हमें क्यों डरा रहे हैं?” ।।

५.
“मैंने तीनों लोकों के स्वामी देवराज इन्द्र को भी स्वर्ग से हटा कर इस भूतल पर ला बिठाया था। उस समय सारे देवताओं ने भयभीत हो भाग कर सम्पूर्ण दिशाओं की शरण ली थी” ।।

६.
“मैंने हठपूर्वक ऐरावत हाथी के दोनों दाँत उखाड़ कर उसे स्वर्ग से पृथ्वी पर गिरा दिया था। उस समय वह जोर - जोर से चिग्घाड़ रहा था। अपने इस पराक्रम द्वारा मैंने सम्पूर्ण देवताओं को आतङ्क में डाल दिया था” ।।

७.
“जो देवताओं के भी दर्प का दलन कर सकता है, बड़े - बड़े दैत्यों को भी शोकमग्न कर देने वाला है तथा जो उत्तम बल – पराक्रम से सम्पन्न है, वही मुझ जैसा वीर मनुष्य – जाति के दो साधारण राजकुमारों का सामना कैसे नहीं कर सकता है?” ।।

८.
इन्द्रतुल्य तेजस्वी महापराक्रमी दुर्जय वीर इन्द्रजित की यह बात सुन कर शस्त्रधारियों में श्रेष्ठ विभीषण ने ये महान् अर्थ से युक्त वचन कहे - ।।

९.
“तात! अभी तुम बालक हो। तुम्हारी बुद्धि कच्ची है। तुम्हारे मन में कर्तव्य और अकर्तव्य का यथार्थ निश्चय नहीं हुआ है। इसीलिये तुम भी अपने ही विनाश के लिये बहुत - सी निरर्थक बातें बक गये हो” ।।

१०.
“इन्द्रजित्! तुम रावण के पुत्र कहला कर भी ऊपर से ही उस के मित्र हो। भीतर से तो तुम पिता के शत्रु ही जान पड़ते हो। यही कारण है कि तुम श्री रघुनाथजी के द्वारा राक्षसराज के विनाश की बातें सुन कर भी मोहवश उन्हीं की हाँ-में-हाँ मिला रहे हो” ।।

श्लोक ११ से १४ ।।

११.
“तुम्हारी बुद्धि बहुत ही खोटी है। तुम स्वयम् तो मार डालने के योग्य हो ही, जो तुम्हें यहाँ बुला लाया है, वह भी वध के ही योग्य है। जिस ने आज तुम-जैसे अत्यन्त दुःसाहसी बालक को इन सलाहकारों के समीप आने दिया है, वह प्राणदण्ड का ही अपराधी है” ।।

१२.
“इन्द्रजित्! तुम अविवेकी हो। तुम्हारी बुद्धि परिपक्व नहीं है। विनय तो तुम्हें छू तक नहीं गयी है। तुम्हारा स्वभाव बड़ा तीखा और बुद्धि बहुत थोड़ी है। तुम अत्यन्त दुर्बुद्धि, दुरात्मा और मूर्ख हो। इसीलिये बालकों की-सी बे-सिर-पैर की बातें करते हो” ।।

१३.
“भगवान् श्रीराम के द्वारा युद्ध के मुहाने पर शत्रुओं के समक्ष छोड़े गये तेजस्वी बाण साक्षात् ब्रह्मदण्ड के समान प्रकाशित होते हैं, काल के समान जान पड़ते हैं और यमदण्ड के समान भयंकर होते हैं। भला, उन्हें कौन सह सकता है?” ।।

१४.
“अतः, राजन्! हमलोग धन, रत्न, सुन्दर आभूषण, दिव्य वस्त्र, विचित्र मणि और देवी सीताजी को श्रीराम की सेवा में समर्पित कर के ही शोक रहित हो कर इस नगर में निवास कर सकते हैं” ।।

इस प्रकार श्रीवाल्मीकि द्वारा निर्मित आर्षरामायण आदिकाव्य के युद्धकाण्ड में पंद्रहवाँ सर्ग पूरा हुआ ।।

Sarg 15 - Yuddh Kaand - Valmiki Ramayana Translated in Hindi and made Screen Readable for Blind and Visually Impaired Individuals by Dr T K Bansal, The Blind Scientist.