05. Valmiki Ramayana - Sundar Kaand - Sarg 05
ओम् श्री गणेशाय नमः ।।
ओम् श्रीसीतारामचन्द्राभ्याम् नमः ।।
श्रीमद्वाल्मीकीय रामायण – सुन्दरकाण्ड ।।
पाँचवाँ सर्ग – २७ श्लोक ।।
सारांश ।।
हनुमान्जी का रावण के अन्तःपुर में घरघर में सीताजी को ढूँढ़ना और उन्हें ना देख कर दुखी होना ।।
आरम्भ ।।
श्लोक १ से १०
१.
तत्पश्चात्, बुद्धिमान् हनुमानजी ने देखा, जिस प्रकार गोशाला के भीतर गौओं के झुंड में मतवाला सांढ विचरता है, उसी प्रकार पृथ्वी के ऊपर बारम्बार अपनी चांद्नी का चंदोवा ताने हुए चन्द्रदेव आकाश के मध्यभाग में तारिकाओं के बीच विचरण कर रहे हैं ।।
२.
वे शीतरश्मि चन्द्रमा जगत के पाप ताप का नाश कर रहे हैं, महासागर में ज्वार उठा रहे हैं, समस्त प्राणियों को नयी दीप्ति एवम् प्रकाश दे रहे हैं और आकाश में क्रमशः ऊपर की ओर उठ रहे हैं ।।
३.
भूतल पर मन्दराचल में, संध्या के समय महासागर में और जल के भीतर कमलों में जो लक्ष्मी जिस प्रकार सुशोभित होती हैं, वे ही उसी प्रकार मनोहर चन्द्रमा में शोभा पा रही थीं ।।
४.
जैसे चांदी के पिंजरे में हंस, मन्दराचल की कन्दरा में सिंह तथा मदमत्त हाथी की पीठ पर वीर पुरुष शोभा पाते हैं, उसी प्रकार आकाश में चन्द्रदेव सुशोभित हो रहे थे ।।
५.
जैसे तीखे सींग वाला बैल खड़ा हो, जैसे ऊपर को उठे शिखर वाला महान् पर्वत श्वेत (हिमालय) शोभा पाता हो और जैसे सुवर्ण जटित दाँतों से युक्त गजराज सुशोभित होता हो, उसी प्रकार हरिणके श्रृङ्गरूपी चिह्न से युक्त परिपूर्ण चन्द्रमा छबि पा रहे थे ।।
६.
जिनका शीतल जल और हिमरूपी पङ्क से संसर्ग का दोष नष्ट हो गया है, अर्थात् जो इनके संसर्ग बहुत दूर है, सूर्य की किरणों को ग्रहण करने के कारण जिन्हों ने अपने अन्धकार रूपी पङ्क को भी नष्ट कर दिया है तथा प्रकाश रूप लक्ष्मी का आश्रय स्थान होने के कारण जिन की कालिमा भी निर्मल प्रतीत होती है, वे भगवान् शशलाञ्छन चन्द्रदेव आकाश में प्रकाशित हो रहे थे ।।
७.
जैसे गुफा के बाहर शिला के तल पर बैठा हुआ मृग राज (सिंह) शोभा पाता है, जैसे विशाल वन में पहुँच कर गजराज सुशोभित होता है तथा जैसे राज्य पा कर राजा अधिक शोभा से सम्पन्न हो जाता है, उसी प्रकार निर्मल प्रकाश से युक्त होकर चन्द्रदेव सुशोभित हो रहे थे ।।
८.
प्रकाशयुक्त चन्द्रमा के उदय से जिसका अन्धकार रूपी दोष दूर हो गया है, जिसमें राक्षसों के जीव हिंसा और मांस भक्षण रूपी दोष बढ़ गये हैं तथा रमणियों के रमणवि षयक चित्तदोष (प्रणय- कलह) निवृत्त हो गये हैं, वह पूजनीय प्रदोषकाल स्वर्ग सदृश सुखका प्रकाश करने लगा ।।
९.
वीणा के श्रवण सुखद शब्द झङ्कृत हो रहे थे, सदाचारिणी स्त्रियाँ पतियों के साथ सो रही थीं तथा अत्यन्त अद्भुत और भयंकर शील स्वभाव वाले निशाचर निशीथ काल में विहार कर रहे थे ।।
१०.
बुद्धिमान् वानर हनुमानजी ने वहां बहुत से घर देखे। किन्हीं में ऐश्वर्य मदसे मत्त निशाचर निवास कर रहे थे, किन्हीं में मदिरापान से मतवाले राक्षस भरे हुए थे। कितने ही घर रथ, घोड़े आदि वाहनों और भद्रासनों से सम्पन्न थे तथा कितने ही वीर लक्ष्मी से व्याप्त दिखायी देते थे। वे सभी गृह एक-दूसरे से मिले हुए थे ।।
श्लोक ११ से २० ।।
११.
राक्षस लोग आपस में एक दूसरे पर अधिक आक्षेप करते थे। अपनी मोटी मोटी भुजाओं को भी हिलाते और चलाते रहते थे। मतवालों की-सी बहकी-बहकी बातें कर रहे थे और मदिरा से उन्मत्त होकर परस्पर कटु वचन बोल रहे थे ।।
१२.
इतना ही नहीं, वे मतवाले राक्षस अपनी छाती भी पीट रहे थे। अपने हाथ आदि अंगों को अपनी प्यारी पत्नियों पर रख देते थे। सुन्दर रूप वाले चित्रों का निर्माण करते थे और अपने सुदृढ़ धनुषों को कान तक खींचा करते थे ।।
१३.
हनुमान्जी ने यह भी देखा कि नायिकाएँ अपने अंगों में चन्दन आदि का अनुलेपन करती हैं। दूसरी वहीं सोती हैं। तीसरी सुन्दर रूप और मनोहर मुखवाली ललनाएँ हँसती हैं तथा अन्य वनिताएँ प्रणय-कलह से कुपित हो लंबी साँसें खींच रही हैं ।।
१४.
चिग्घाड़ते हुए महान् गजराजों, अत्यन्त सम्मानित श्रेष्ठ सभासदों तथा लंबी साँसें छोड़नेवाले वीरों के कारण वह लंकापुरी फुफकारते हुए सर्पों से युक्त सरोवरों के समान शोभा पा रही थी ।।
१५.
हनुमान्जी ने उस पुरी में बहुत-से उत्कृष्ट बुद्धिवाले, सुन्दर बोलनेवाले, सम्यक् श्रद्धा रखनेवाले, अनेक प्रकार के रूप-रंगवाले और मनोहर नाम धारण करनेवाले विश्वविख्यात राक्षस भी देखे ।।
१६.
वे सुन्दर रूपवाले, नाना प्रकार के गुणों से सम्पन्न, अपने गुणों के अनुरूप व्यवहार करनेवाले और तेजस्वी थे। उन्हें देखकर हनुमान्जी बड़े प्रसन्न हुए। उन्हों ने बहुतेरे राक्षसों को सुन्दर रूप से सम्पन्न देखा और कोइ कोइ उन्हें बड़े कुरूप दिखायी दिये ।।
१७.
तदनन्तर वहाँ उन्होंने सुन्दर वस्त्राभूषण धारण करने के योग्य सुन्दर राक्षस- रमणियों को देखा, जिनका भाव अत्यन्त विशुद्ध था। वे बड़ी प्रभावशालिनी थीं। उनका मन प्रियतम में तथा मधुपान में आसक्त था। वे तारिकाओं की भांति कान्ति मती और सुन्दर स्वभाववाली थीं ।।
१८.
हनुमान्जी की दृष्टि में कुछ ऐसी स्त्रियाँ भी आयीं, जो अपने रूप-सौन्दर्य से प्रकाशित हो रही थीं। वे बड़ी लजीली थीं और आधी रात के समय अपने प्रियतम के आलिङ्गन पाश में इस प्रकार बंधी हुई थीं जैसे पक्षिणी पक्षी के द्वारा आलिङ्गित होती है। वे सब-के-सब आनन्द में मग्नरु थीं ।।
१९.
दूसरी बहुत-सी स्त्रियाँ महलों की छतों पर बैठी थीं। वे पति की सेवा में तत्पर रहनेवाली, धर्मपरायणा, विवाहिता और काम भावना से भावित थीं। हनुमान्जी ने उन सब को अपने प्रियतमअ में सुखपूर्वक बैठी देखा ।।
२०.
कितनी ही कामिनियाँ सुवर्ण रेखा के समान कान्ति मती दिखायी देती थीं। उन्हों ने अपनी ओढ़नी उतार दी थी। कितनी ही उत्तम वनिताएँ तपाये हुए सुवर्ण के समान रंगवाली थीं तथा कितनी ही पतिवियोगिनी बालाएँ चन्द्रमा के समान श्वेतवर्ण की दिखायी देती थीं। उन की अंग कान्ति बड़ी ही सुन्दर थी ।।
श्लोक २१ से २७ ।।
२१.
तदनन्तर वानरों के प्रमुख वीर हनुमान्जी ने विभिन्न गृहों में ऐसी परम सुन्दर रमणियों का अवलोकन किया, जो मनो भिराम प्रियतम का संयोग पा कर अत्यन्त प्रसन्न हो रही थीं। फूलों के हार से विभूषित होने के कारण उन की रमणीयता और भी बढ़ गयी थी और वे सब की सब हर्ष से उत्फुल्ल दिखायी देती थीं ।।
२२.
उन्होंने चन्द्रमा के समान प्रकाशमान मुखों की पंक्तियाँ, सुन्दर पलकों वाले तिरछे नेत्रों की पंक्तियाँ और चमचमाती हुई विद्युल्लेखाओं के समान आभूषणों की भी मनोहर पंक्तियाँ देखीं ।।
२३.
किंतु जो परमात्मा के मानसिक संकल्प से धर्म मार्ग पर स्थिर रहने वाले राजकुल में प्रकट हुइ थीं, जिनका प्रादुर्भाव परम ऐश्वर्य की प्राप्ति कराने वाला है, जो परम सुन्दर रूप में उत्पन्न हुई प्रफुल्ल लता के समान शोभा पाती थीं, उन कृशाङ्गी सीताजी को उन्हों ने वहां कहीं नहीं देखा था ।।
२४ से २७.
जो सदा सनातन मार्ग पर स्थित रहने वाली, श्रीराम पर ही दृष्टि रखने वाली, श्रीराम विषयक काम या प्रेम से परिपूर्ण, अपने पति के तेजस्वी मन में बसी हुइ तथा दूसरी सभी स्त्रियों से सदा ही श्रेष्ठ थीं; जिन्हें विरह जनित ताप सदा पीड़ा देता रहता था, जिनके नेत्रों से निरन्तर आँसुओं की झड़ी लगी रहती थी और कण्ठ उन आँसुओं से गद्गद रहता था, पहले संयोग-काल में जिन का कण्ठ श्रेष्ठ एवम् बहुमूल्य निष्क (पदक) - से विभूषित रहा करता था, जिनकी पलकें बहुत ही सुन्दर थीं और कण्ठ स्वर अत्यन्त मधुर था तथा जो वन में नृत्य करने वाली मयूरी के समान मनोहर लगती थीं, जो मेघ आदि से आच्छादित होने के कारण अव्यक्त रेखा वाली चन्द्रलेखा के समान दिखायी देती थीं, धूलि - धूसर सुवर्ण-रेखा - सी प्रतीत होती थीं, बाण के आघात से उत्पन्न हुई रेखा (चिह्न)-सी जान पड़ती थीं तथा वायु के द्वारा उड़ायी जाती हुई बादलों की रेखा -सी दृष्टिगोचर होती थीं। वक्ताओं में श्रेष्ठ नरेश्वर श्रीरामचन्द्रजी की पत्नी उन सीताजी को बहुत देर तक ढूँढ़ने पर भी जब हनुमान्जी ना देख सके, तब वे ततत्क्षण अत्यन्त दुखी और शिथिल हो गये ।।
इस प्रकार श्रीवाल्मीकि द्वारा निर्मित आर्षरामायण आदिकाव्य के सुन्दरकाण्ड में पाँचवाँ सर्ग पूरा हुआ॥ ॥
Sarg 05 - Sundar Kaand - Valmiki Ramayana Translated in Hindi and made Screen Readable for Blind and Visually Impaired Individuals by Dr T K Bansal, The Blind Scientist.