09. Valmiki Ramayana - Sundar Kaand - Sarg 09

ओम् श्री गणेशाय नमः ।।

ओम् श्रीसीतारामचन्द्राभ्याम् नमः ।।

श्रीमद्वाल्मीकीय रामायण – सुन्दरकाण्ड ।।

नवाँ सर्ग- ७३ श्लोक ।।

सारांश ।।

हनुमानजी का रावण के श्रेष्ठ भवन पुष्पक विमान, तथा रावण के रहने के सुन्दर महल को देख कर उस के भीतर सोयी हुई सहस्रों सुन्दर स्त्रियों का अवलोकन करना ।।

आरम्भ ।।

श्लोक १ से १० ।।

१ से २.
लंकावर्ती सर्वश्रेष्ठ महान् गृह के मध्य भाग में पवनपुत्र हनुमान्जी ने देखा कि एक उत्तम भवन शोभा पा रहा है। वह बहुत ही निर्मल एवम् विस्तृत था । उसकी लंबाई एक योजन की और चौड़ाई आधे योजन की थी। राक्षसराज रावण का वह विशाल भवन बहुत सी अट्टालिकाओं से व्याप्त था ।।

३.
विशाल लोचनों वाली विदेहनन्दिनी सीता की खोज करते हुए शत्रुसूदन हनुमान्जी उस भवन में सब ओर चक्कर लगाते हुए घूम रहे थे ।।

४.
बल-वैभव से सम्पन्न हनुमान्जी राक्षसों के उस उत्तम आवास का अवलोकन करते हुए एक ऐसे सुन्दर गृह में जा पहुँचे, जो राक्षसराज रावण का निजी निवास-स्थान था ।।

५.
चार दाँतों तथा तीन दाँतों वाले हाथी इस विस्तृत भवन को चारों ओर से घेर कर खड़े थे, और हाथों में हथियार लिये बहुत से राक्षस उसकी रक्षा कर रहे थे ।।

६.
रावण का वह महल उसकी राक्षसजातीय पत्नियों तथा पराक्रमपूर्वक हर कर लायी हुई राजकन्याओं से भरा हुआ था ।।

७.
इस प्रकार नर-नारियों से भरा हुआ वह कोलाहल पूर्ण भवन मगरमच्छों तथा घड़ियालों से व्याप्त, व्हेल और अनेकों प्रकार की दूसरी मछलीयों से पूर्ण, वायुवेग से विक्षुब्ध तथा सर्पों से आवृत महासागर के समान प्रतीत होता था ।।

८.
जो, लक्ष्मी, कुबेर, चन्द्रमा और इन्द्र के यहां निवास करती हैं, वे ही और भी सुरम्य रूप से रावण के घर में नित्य ही निश्चल होकर रहती थीं ।।

९.
जो समृद्धि, महाराज कुबेर, यम और वरुण के यहाँ दृष्टिगोचर होती है, वही अथवा उससे भी बढ़कर राक्षसों के घरों मे देखी जा सकती थीं ।।

१०.
उस, एक योजन लंबे और आधे योजन चौड़े, महल के मध्य भाग में एक दूसरा भवन, अर्थात पुष्पक विमान, था, जिस का निर्माण बड़े सुन्दर ढंग से किया गया था । वह भवन बहु संख्यक मतवाले हाथियों से युक्त था । पवनकुमार हनुमान्जी ने फिर उसे देखा ।।

श्लोक ११ से २० ।।

११.
वह सब प्रकार के रत्नों से विभूषित पुष्पक नामक दिव्य विमान स्वर्गलोक में विश्वकर्मा ने ब्रह्माजी के लिये बनाया था ।।

१२.
कुबेर ने बड़ी भारी तपस्या कर के उसे ब्रह्माजी से प्राप्त किया और फिर कुबेर को बलपूर्वक परास्त करके राक्षसराज रावण ने उसे अपने हाथ में कर लिया ।।

१३.
उस में भेड़ियों की मूर्तियों से युक्त सोने-चांदी के सुन्दर खम्भे बनाये गये थे, जिन के कारण वह भवन अद्भुत कान्ति से उद्दीप्त-सा हो रहा था ।।

१४.
उस में सुमेरु और मन्दराचल के समान ऊँचे अनेकानेक गुप्त गृह और मङ्गल भवन बने हुए थे, जो अपनी ऊँचाइ से आकाश में रेखा -सी खींचते हुए जान पड़ते थे। उनके द्वारा वह विमान सब ओर से सुशोभित होता था ।।

१५.
उन का प्रकाश अग्निरु और सूर्य के समान था । विश्वकर्मा ने बड़ी कारी-गरी से उस का निर्माण किया था। उस में सोने की सीढ़ियाँ और अत्यन्त मनोहर उत्तम वेदियां बनायी गयी थीं ।।

१६.
सोने और स्फटिक के झरोखे और खिड़कियां लगायी गयी थीं । इन्द्रनील और महानील मणियों की श्रेष्ठतम वेदियां रची गयी थीं ।।

१७.
उस का फर्श विचित्र मूंगे, बहुमूल्य मणियों, तथा अनुपम गोल-गोल मोतियों से जड़ी थी, जिस से उस विमान की बड़ी शोभा हो रही थी ।।

१८.
सुवर्ण के समान लाल रंग के सुगन्ध युक्त चन्दन से संयुक्त होने के कारण वह बाल सूर्य के समान जान पड़ता था ।।

१९.
महां कपि हनुमानजी उस दिव्य पुष्पक विमान पर चढ़ गये, जो नाना प्रकार के सुन्दर अट्टालिकाओं से अलंकृत था । वहां बैठ कर वे सब ओर फैली हुई नाना प्रकार के पेय, भक्ष्य, और अन्न की दिव्य गन्ध सूंघने लगे। वह गन्ध मूर्तिमान् पवन-सी प्रतीत होती थी ।।

२०.
जैसे कोई बन्धु-बान्धव अपने उत्तम बन्धु को अपने पास बुलाता है, उसी प्रकार वह सुगन्ध उन महाँबली हनुमान्जी को मानो यह कह कर कि 'इधर चले आओ' जहां रावण था, वहां बुला रही थी ।।

श्लोक २१ से ३० ।।

२१.
तदनन्तर, हनुमान्जी उस ओर प्रस्थित हुए। आगे बढ़ने पर उन्हों ने एक बहुत बड़ी हवेली देखी, जो बहुत ही सुन्दर और सुखद थी। वह हवेली रावण को बहुत ही प्रियः थी, ठीक वैसे ही जैसे पति को कान्तिमयी सुन्दर पत्नी अधिक प्रिय होती है ।।

२२ से २३.
उस में मणियों की सीढ़ियां बनी थीं और सोने की खिड़कियां उसकी शोभा बढ़ाती थीं । उस के फर्श स्फटिक मणियों से बनाये गये थे, जहाँ बीच-बीचमें हाथीके दाँतके द्वारा विभिन्न प्रकारकी आकृतियाँ बनी हुइ थीं। मोती, हीरे, मूंगे, चांदी और सोने के द्वारा भी उस में अनेक प्रकार के आकार अङ्कित किये गये थे ।।

२४.
मणियों के बने हुए बहुत-से खम्भे, जो समान, सीधे, बहुत ही ऊँचे और सब ओर से विभूषित थे, आभूषण की भांति उस हवेली की शोभा बढ़ा रहे थे ।।

२५.
अपने अत्यन्त ऊंचे स्तम्भ रूपी पंखों से मानो वह आकाश में उड़ती हुई-सी जान पड़ती थी। उस के भीतर पृथ्वी के वन पर्वत आदि चिह्नों से अङ्कित एक बहुत बड़ा कालीन बिछा हुआ था ।।

२६.
राष्ट्र और गृह आदि के चित्रों से सुशोभित वह शाला पृथ्वी के समान विस्तीर्ण जान पड़ती थी। वहां मतवाले विहङ्गमों के कलरव गूंज्ते रहते थे तथा वह दिव्य सुगन्ध से सुवासित थी ।।

२७.
उस हवेली में बहुमूल्य बिछौने बिछे हुए थे तथा स्वयम् राक्षसराज रावण उस में निवास करता था। वह अगुरु नामक धूप के धूऍसे धूमिल दिखायी देती थी, किंतु वास्तव में हंस के समान श्वेत एवम् निर्मल थी ।।

२८.
पत्र-पुष्प के उपहार से वह शाला चितकबरी - सी जान पड़ती थी । अथवा वसिष्ठ मुनि की शबला गौ की भांति सम्पूर्ण कामनाओं की देने वाली थी । उस की कान्ति बड़ी ही सुन्दर थी। वह मन को आनन्द देने वाली तथा शोभा को भी सुशोभित करने वाली थी ।।

२९.
वह दिव्य शाला शोक का नाश करने वाली तथा सम्पत्ति की जननी - सी जान पड़ती थी । हनुमान्जी ने उसे देखा। उस रावण पालित शाला ने उस समय माता की भांति शब्द, स्पर्श आदि पाँच विषयोंसे हनुमान्जी की श्रोत्र आदि पाँचों इन्द्रियों को तृप्त कर दिया ।।

३०.
उसे देख कर हनुमान्जी यह तर्क-वितर्क करने लगे कि सम्भव है, यही स्वर्गलोक या देवलोक हो । यह इन्द्र की पुरी भी हो सकती है अथवा यह परम सिद्धि (ब्रह्मलोक की प्राप्ति) है ।।

श्लोक ३१ से ४० ।।

३१.
हनुमानजी ने उस शाला सुवर्णमय दीपकों को एकतार जलते देखा, मानो वे ध्यान मग्न रु हो रहे हों; ठीक उसी तरह जैसे किसी बड़े जुआरी से जुए में हारे हुए छोटे जुआरी धन नाश की चिन्ता के कारण ध्यान में डूबे हुए से दिखायी देते हैं ।।

३२.
दीपकों के प्रकाश, रावण के तेज और आभूषणों की कान्ति से वह सारी हवेली जलती हुइ सी जान पड़ती थी ।।

३३.
तदनन्तर, हनुमान्जी ने कालीन पर बैठी हुई सहस्रों सुन्दर स्त्रियाँ देखीं, जो रंग-बिरंगे वस्त्र और पुष्पमाला धारण किये अनेक प्रकार की वेश-भूषाओं से विभूषित थीं ।।

३४.
आधी रात बीत जाने पर वे क्रीड़ा से उपरत हो मधुपान के मद और निद्रा के वशीभूत हो उस समय गाढ़ी नींद सो गयी थीं ।।

३५.
उन सोयी हुई सहस्रों नारियों के कटिभाग में अब करधनी की खनखनाहट का शब्द नहीं हो रहा था। हंसों के कलरव तथा भ्रमरों के गुंजारव से रहित विशाल कमल – वन के समान उन सुप्त सुन्दरियों का समुदाय बड़ी शोभा पा रहा था ।।

३६.
पवनकुमार हनुमान्जी ने उन सुन्दर युवतियों के मुख देखे, जिन से कमलों की-सी सुगन्ध फैल रही थी । उन के दांत ढँके हुए थे और आँखें मूंद गयी थीं ।।

३७.
रात्रि के अन्त में खिले हुए कमलों के समान उन सुन्दरियों के जो मुखारविन्द हर्ष से उत्फुल्ल दिखायी देते थे, वे ही फिर रात आने पर सो जाने के कारण मुंदे हुए दल वाले कमलों के समान शोभा पा रहे थे ।।

३८ से ३९.
उन्हें देख कर श्रीमान् महा कपि हनुमान् यह सम्भावना करने लगे कि 'मतवाले भ्रमर प्रफुल्ल कमलों के समान इन मुखारविन्दों की प्राप्ति के लिये नित्य ही बारंबार प्रार्थना करते होंगे - उनपर सदा स्थान पाने के लिये तरसते होंगे'; क्योंकि वे गुण की दृष्टि से उन मुखारविन्दों को पानी उत्पन्न होनेवाले कमलों के समान ही समझते थे ।।

४०.
रावण की वह हवेली उन स्त्रियों से प्रकाशित हो कर वैसी ही शोभा पा रही थी, जैसे शर त्काल में निर्मल आकाश तारों से प्रकाशित एवम् सुशोभित होता है ।।

श्लोक ४१ से ५० ।।

४१.
उन स्त्रियों से घिरा हुआ राक्षसराज रावण तारों से घिरे हुए कान्तिमान् नक्षत्र पति चन्द्रमा के समान शोभा पा रहा था ।।

४२.
उस समय हनुमान्जी को ऐसा मालूम हुआ कि आकाश (स्वर्ग) से भोगा वशिष्ट पुण्य के साथ जो तारे नीचे गिरते हैं, वे सब के सब मानो यहाँ इन सुन्दरियों के रूप में एकत्र हो गए हैं ।।

४३.
क्योंकि वहां उन युवतियों के तेज, वर्ण और प्रसाद स्पष्टतः सुन्दर प्रभा वाले महान् तारों के समान ही सुशोभित होते थे ।।

४४.
मधुपान के अनन्तर व्यायाम (नृत्य, गान, क्रीड़ा आदि)- के समय जिनके केश खुल कर बिखर गये थे, पुष्प मालाएँ मर्दित हो कर छिन्न-भिन्न हो गयी थीं और सुन्दर आभूषण भी शिथिल हो कर इधर-उधर खिसक गये थे, वे सभी सुन्दरियाँ वहां निद्रा से अचेत सी हो कर सो रही थीं ।।

४५.
किन्हीं के मस्तक की (सिंदूर- कस्तूरी आदि की) बिंदियाँ पुछ गयी थीं, किन्हीं के नूपुर पैरों से निकल कर दूर जा पड़े थे तथा किन्हीं सुन्दर युवतियों के हार टूट कर उन के बगल में ही पड़े थे ।।

४६.
मोतियों के हार टूट जाने से उन के बिखरे दानों से आवृत थीं, किन्हीं के वस्त्र खिसक गये थे और किन्हीं की करधनी की लड़ें टूट गयी थीं। वे युवतियाँ बोझ ढो कर थकी हुई अश्व जाति की नयी बछड़ियों के समान जान पड़ती थीं ।।

४७.
किन्हीं के कानों के कुण्डल गिर गये थे, किन्हीं की पुष्पमालाएँ मसली जा कर छिन्न-भिन्न हो गयी थीं। इस से वे महान् वनमें गजराज द्वारा दली मली गयी फूल लताओं के समान प्रतीत होती थीं ।।

४८.
किन्हीं के चन्द्रमा और सूर्य की किरणों के समान प्रकाशमान हार उन के वक्षः स्थल पर पड़ कर उभरे हुए प्रतीत होते थे। वे उन युवतियों के स्तन मण्डल पर ऐसे जान पड़ते थे मानो वहाँ हंस सो रहे हों ।।

४९.
दूसरी स्त्रियों के स्तनों पर नीलम के हार पड़े थे, जो कादम्ब (जलकाक ) नामक पक्षी के समान शोभा पाते थे तथा अन्य स्त्रियों के उरोजों पर जो सोने के हार थे, वे चक्रवाक (पुरखाव ) नामक पक्षियों के समान जान पड़ते थे ।।

५०.
इस प्रकार वे हंस, कारण्डव (जलकाक ) तथा चक्रवाकों से सुशोभित नदियों के समान शोभा पाती थीं । उन के जघन प्रदेश उन नदियों के तटों के समान जान पड़ते थे ।।

श्लोक ५१ से ६० ।।

५१.
वे सोयी हुई सुन्दरियाँ वहाँ सरिताओं के समान सुशोभित होती थीं। किङ्किणियों (घुँघुरुओं) के समूह उनमें मुकुल के समान प्रतीत होते थे। सोने के विभिन्न आभूषण ही वहाँ बहु संख्यक स्वर्ण कमलों की शोभा धारण करते थे। भाव (सुप्तावस्थामें भी वासनावश होनेवाली श्रृंगार चेष्टाएँ ही मानो ग्राह थे तथा यश (कान्ति) ही तटके समान जान पड़ते थे ।।

५२.
किन्हीं सुन्दरियों के कोमल अंगों में तथा कुछों के अग्र भाग पर उभरी हुई आभूषणों की सुन्दर रेखाएँ नये गहनों के समान ही शोभा पाती थीं ।।

५३.
किन्हीं के मुख पर पड़े हुए उन की झीनी साड़ी के अञ्चल उन की नासिका से निकली हुई साँस से कम्पित हो बारंबार हिल रहे थे ।।

५४.
नाना प्रकार के सुन्दर रूप-रंग वाली उन रावण की पत्नियों के मुखों पर हिलते हुए वे अञ्चल सुन्दर कान्तिवाली फहराती हुई पताकाओं के समान शोभा पा रहे थे ।।

५५.
वहाँ किन्हीं - किन्हीं सुन्दर कान्ति मती कामिनियों के कानों के कुण्डल उन के निःश्वास जनित कम्पन से धीरेधीरे हिल रहे थे ।।

५६.
उन सुन्दरियों के मुख से निकली हुई स्वभाव से ही सुगन्धित श्वास वायु शर्करा निर्मित आसव की मनोहर गन्ध से युक्त हो और भी सुखद बनकर उस समय रावण की सेवा करती थी ।।

५७.
रावण की कितनी ही तरुणी पत्नियाँ रावण का ही मुख समझ कर बारंबार अपनी सौतों के ही मुखों को सूँघ रही थीं ।।

५८.
उन सुन्दरियों का मन रावण में अत्यन्त आसक्त था, इस लिये वे आसक्ति तथा मदिरा के मद से परवश हो उस समय रावण के मुख के भ्रम से अपनी सौतों का मुख सूँघ कर उनका प्रिय ही करती थीं (अर्थात् वे भी उस समय अपने मुख- संलग्नरु हुए उन सौतों के मुखों को रावण का ही मुख समझ कर उसे सूँघने का सुख उठाती थीं ) ।।

५९.
अन्य मदमत्त युवतियाँ अपनी वलयविभूषित भुजाओं का ही तकिया लगा कर तथा कोइ- कोई सिर के नीचे अपने सुरम्य वस्त्रोंको ही रख कर वहाँ सो रही थीं ।।

६०.
एक स्त्री दूसरी की छाती पर सिर रख कर सोयी थी तो कोई दूसरी स्त्री उसकी भी एक हो बाँह को ही तकिया बना कर सो गयी थी। इसी तरह एक अन्य स्त्री दूसरी की गोद में सिर रख कर सोयी थी तो कोई दूसरी उसके भी कुचों का ही तकिया लगा कर सो गयी थी ।।

श्लोक ६१ से ७० ।।

६१.
इस तरह रावण विषयक स्नेह और मदिरा जनित मद के वशीभूत हुई वे सुन्दरियाँ एक- दूसरी के ऊरु, पार्श्वभाग, कटिप्रदेश तथा पृष्ठ भाग का सहारा ले आपस में अंगों से अंग मिलाये वहाँ बेसुध पड़ी थीं ।।

६२.
वे सुन्दर कटिप्रदेश वाली समस्त युवतियाँ एक दूसरी के अंग स्पर्श को प्रियतम का स्पर्श मान कर उससे मन-ही-मन आनन्द का अनुभव करती हुई परस्पर बाँह से बाँह मिलाये सो रही थीं ।।

६३.
एक-दूसरी के बाहुरुपी सूत्रमें गुँथी हुई काले-काले केशों वाली स्त्रियों की वह माला सूतमें पिरोयी हुइ मतवाले भ्रमरों से युक्त पुष्प माला की भाँति शोभा पा रही थी ।।

६४-६५.
माधवमास (वसन्त) में मलयानिल के सेवन से जैसे खिली हुई लताओं का वन कम्पित होता रहता है, उसी प्रकार रावण की स्त्रियों का वह समुदाय निःश्वास वायु के चलने से अञ्चलों के हिलने के कारण कम्पित होता-सा जान पड़ता था । जैसे लताएँ परस्पर मिलकर माला की भाँति आबद्ध हो जाती हैं, उन की सुन्दर शाखाएँ परस्पर लिपट जाती हैं और इसी लिये उनके पुष्पसमूह भी आपस में मिले हुए-से प्रतीत होते हैं तथा उनपर बैठे हुए भ्रमर भी परस्पर मिल जाते हैं, उसी प्रकार वे सुन्दरियाँ एक-दूसरीसे मिलकर मालाकी भाँति गुँथ गयी थीं। उनकी भुजाएँ और कंधे परस्पर सटे हुए थे। उनकी वेणीमें गुँथे हुए फूल भी आपसमें मिल गये थे तथा उन सबके केशकलाप भी एक-दूसरेसे जुड़ गये थे ।।

६६.
यद्यपि उन युवतियों के वस्त्र, अंग, आभूषण और हार उचित स्थानों पर ही प्रतिष्ठित थे, यह बात स्पष्ट दिखायी दे रही थी, तथापि उन सब के परस्पर गुँथ जाने के कारण यह विवेक होना असम्भव हो गया था कि कौन वस्त्र, आभूषण, अंग अथवा हार किस के हैं ।।

६७.
रावण के सुखपूर्वक सो जाने पर वहाँ जलते हुए सुवर्णमय प्रदीप उन अनेक प्रकार की कान्तिवाली कामिनियों को मानो एक टक दृष्टि से देख रहे थे ।।

६८.
राज र्षियों, ब्रह्म र्षियों, दैत्यों, गन्धवों तथा राक्षसों की कन्याएँ काम के वशीभूत हो कर रावण की पत्नियाँ बन गयी थीं ।।

६९.
उन सब स्त्रियों का रावण ने युद्ध की इच्छा से अपहरण किया था और कुछ मदमत्त रमणियाँ कामदेव मोहित हो कर स्वयम् ही उस की सेवा में उपस्थित हो गयी थीं ।।

७०.
वहां ऐसी कोई स्त्रियाँ नहीं थीं, जिन्हें बल पराक्रम से सम्पन्न होने पर भी रावण उन की इच्छा के विरुद्ध बलात् हर लाया हो। वे सब की सब उसे अपने अलौकिक गुण से ही उपलब्ध हुई थीं। जो श्रेष्ठतम पुरुषोत्तम श्री रामचन्द्रजी के ही योग्य थीं, उन जनक किशोरी सीता को छोड़ कर दूसरी कोई ऐसी स्त्री वहाँ नहीं थी, जो रावण के सिवा किसी दूसरे की इच्छा रखनेवाली हो अथवा जिस का पहले कोई दूसरा पति रहा हो ।।

श्लोक ७१ से ७३ ।।

७१.
रावण की कोई भार्या ऐसी नहीं थी, जो उत्तम कुल में उत्पन्न न हुइ हो अथवा जो कुरूप, अनुदार या कौशल रहित, उत्तम वस्त्राभूषण एवम् माला आदि से वञ्चित, शक्तिहीन तथा प्रियतम को अप्रिय हो ।।

७२.
उस समय श्रेष्ठ बुद्धिवाले वानरराज हनुमान्जी के मन में यह विचार उत्पन्न हुआ कि ये महान् राक्षसराज रावण की भार्याएँ जिस तरह अपने पति के साथ रह कर सुखी हैं, उसी प्रकार यदि रघुनाथजी की धर्मपत्नी सीताजी भी इन्हीं की भाँति अपने पति के साथ रह कर सुख का अनुभव करतीं अर्थात् यदि रावण शीघ्र ही उन्हें श्री रामचन्द्रजी की सेवा में समर्पित कर देता तो यह इस के लिये परम मंगलकारी होता ।।

७३.
फिर उन्होंने सोचा, निश्चय ही सीताजी गुणों की दृष्टि से इन सब की अपेक्षा बहुत ही बढ़- चढ़ कर हैं। इस महा बली लंका पति ने मायामय रूप धारण कर के सीताजी को धोखा दे कर इन के प्रति यह अपहरणरूप महान् कष्टप्रद नीच कर्म किया है ।।

इस प्रकार श्रीवाल्मीकिनिर्मित आर्षरामायण आदि काव्य के सुन्दरकाण्ड में नवाँ सर्ग पूरा हुआ ॥

Sarg 09 - Sundar Kaand - Valmiki Ramayana Translated in Hindi and made Screen Readable for Blind and Visually Impaired Individuals by Dr T K Bansal, The Blind Scientist.