17. Valmiki Ramayana - Baal Kaand - Sarg 17
ओम् श्री गणेशाय नमः ।।
ओम् श्रीसीतारामचन्द्राभ्याम् नमः ।।
श्रीमद्वाल्मीकीय रामायण – बालकाण्ड ।।
सत्रहवाँ सर्ग - ३७ श्लोक ।।
सारांश ।।
ब्रह्माजी की प्रेरणा से देवता आदि के द्वारा विभिन्न वानर यूथपतियों की उत्पत्ति ।।
आरम्भ ।।
श्लोक १ से १० ।।
१.
जब भगवान् विष्णु महामनस्वी राजा दशरथ के पुत्र भाव को प्राप्त हो गये, तब भगवान् ब्रह्माजी ने सम्पूर्ण देवताओं से इस प्रकार कहा- ।।
२ से ४.
“देवगणो! भगवान् विष्णु सत्य प्रतिज्ञ, वीर और हम सब लोगों के हितैषी हैं। तुम लोग उनके सहायक रूप से ऐसे पुत्रों की सृष्टि करो, जो बलवान्, इच्छानुसार रूप धारण करने में समर्थ, माया जानने वाले, शूरवीर, वायु के समान वेगशाली, नीतिज्ञ, बुद्धिमान्, विष्णुतुल्य पराक्रमी, किसी से परास्त न होने वाले तरह- तरह के उपायों के जानकार, दिव्य शरीर धारी तथा अमृत भोजी देवताओं के समान सब प्रकार की अस्त्र विद्या के गुणों से सम्पन्न हों।” ।।
५ से ६.
“प्रधान- प्रधान अप्सराओं, गन्धर्वों की स्त्रियों, यक्षों और नागों की कन्याओं, रीछों की स्त्रियों, विद्याधरियों, किन्नरियों तथा वानरियों के गर्भ से वानर रूप में अपने ही तुल्य पराक्रमी पुत्र उत्पन्न करो।” ।।
७.
“मैंने पहले से ही ऋक्षराज जाम्बवान्त की सृष्टि कर रखी है। एक बार मैं जँभाई ले रहा था, उसी समय वह सहसा मेरे मुँह से प्रकट हो गया।” ।।
८.
भगवान् ब्रह्माजी के ऐसा कहने पर देवताओं ने उनकी आज्ञा स्वीकार की और वानर रूप में अनेकानेक पुत्र उत्पन्न किये ।।
९.
महात्मा, ऋषि, सिद्ध, विद्याधर, नाग और चारणों ने भी वन में विचरने वाले वानर – भालुओं के रूप में वीर पुत्रों को जन्म दिया ।।
१०.
देवराज इन्द्र ने वानर राज वाली को पुत्र रूप में उत्पन्न किया, जो महेन्द्र पर्वत के समान विशालकाय और बलिष्ठ था। तपने वालों में श्रेष्ठ भगवान् सूर्य ने सुग्रीव को जन्म दिया ।।
श्लोक ११ से २० ।।
११.
बृहस्पति ने तार नामक महाकाय वानर को उत्पन्न किया, जो समस्त वानर सरदारों में परम बुद्धिमान और श्रेष्ठ था ।।
१२.
तेजस्वी वानर गन्धमादन कुबेर का पुत्र था। विश्वकर्मा ने नल नामक महान् वानर को जन्म दिया ।।
१३.
अग्नि के समान तेजस्वी श्रीमान् नील साक्षात् अग्निदेव का ही पुत्र था। वह पराक्रमी वानर तेज, यश और बल-वीर्य में सब से बढ़ कर था ।।
१४.
रूप-वैभव से सम्पन्न, सुन्दर रूप वाले दोनों अश्विनी कुमारों ने स्वयम् ही मैन्द और द्विविद को जन्म दिया था ।।
१५.
वरुण ने सुषेण नामक वानर को उत्पन्न किया और महा बली पर्जन्य ने शरभ को जन्म दिया ।।
१६.
हनुमान् नाम वाले ऐश्वर्यशाली वानर वायुदेवता के औरस पुत्र थे। उन का शरीर वज्र के समान सुदृढ़ था। वे तेज चलने में गरुड़ के समान थे ।।
१७.
सभी श्रेष्ठ वानरों में वे सबसे अधिक बुद्धिमान् और बलवान् थे। इस प्रकार कई हजार वानरों की उत्पत्ति हुई। वे सभी रावण का वध करने के लिये उद्यत रहते थे ।।
१८.
उनके बल की कोई सीमा नहीं थी। वे वीर, पराक्रमी और इच्छानुसार रूप धारण करने वाले थे। गजराजों और पर्वतों के समान महाकाय तथा महाबली थे ।।
१९ से २०.
रीछ, वानर तथा गोलांगूल ( लंगूर) जाति के वीर शीघ्र ही उत्पन्न हो गये। जिस देवता का जैसा रूप, वेष और पराक्रम था, उस से उसी के समान पृथक्-पृथक् पुत्र उत्पन्न हुआ। लंगूरों में जो देवता उत्पन्न हुए, वे देवावस्था की अपेक्षा भी कुछ अधिक पराक्रमी थे ।।
श्लोक २१ से ३० ।।
२१ से २२.
कुछ वानर रीछ जाति की माताओं से तथा कुछ किन्नरियों से उत्पन्न हुए। देवता, महर्षि, गन्धर्व, गरुड़, यशस्वी यक्ष, नाग, किम्पुरुष, सिद्ध, विद्याधर तथा सर्प जाति के बहु संख्यक व्यक्तियों ने अत्यन्त हर्ष में भरकर सहस्रों पुत्र उत्पन्न किये ।।
२३.
देवताओं का गुण गाने वाले वनवासी चारणों ने बहुत से वीर, विशालकाय वानर पुत्र उत्पन्न किये। वे सब जंगली फल- मूल खाने वाले थे ।।
२४.
मुख्य-मुख्य अप्सराओं, विद्याधरियों, नागकन्याओं तथा गन्धर्व-पत्नियों के गर्भ से भी इच्छानुसार रूप और बल से युक्त तथा स्वेच्छानुसार सर्वत्र विचरण करने में समर्थ वानर पुत्र उत्पन्न हुए ।।
२५.
वे दर्प और बल में सिंह और व्याघ्रों के समान थे। पत्थर की चट्टानों से प्रहार करते और पर्वत उठा कर लड़ते थे ।।
२६.
वे सभी नख और दाँतों से भी शस्त्रों का काम लेते थे। उन सब को सब प्रकार के अस्त्र- शस्त्रों का ज्ञान था। वे पर्वतों को भी हिला सकते थे और स्थिर भाव से खड़े हुए वृक्षों को भी तोड़ने की शक्ति रखते थे ।।
२७.
अपने वेग से सरिताओं के स्वामी समुद्र को भी क्षुब्ध कर सकते थे। उन में पैरों से पृथ्वी को विदीर्ण कर डालने की शक्ति थी। वे महा सागरों को भी लांघ सकते थे ।।
२८.
वे चाहें तो आकाश में घुस जायँ, बादलों को हाथों से पकड़ लें तथा वन में वेग से चलते हुए मतवाले गजराजों को भी बन्दी बना लें ।।
२९ से ३०.
घोर शब्द करते हुए आकाश में उड़ने वाले पक्षियों को भी वे अपने सिंहनाद से गिरा सकते थे। ऐसे बलशाली और इच्छानुसार रूप धारण करनेवाले महाकाय वानर यूथपति करोड़ों की संख्या में उत्पन्न हुए थे। वे वानरों के प्रधान यूथों के भी यूथपति थे ।।
श्लोक ३१ से ३७ ।।
३१.
उन यूथपतियों ने भी ऐसे वीर वानरों को उत्पन्न किया था, जो यूथपों से भी श्रेष्ठ थे। वे और ही प्रकार के वानर थे – इन प्राकृत वानरों से विलक्षण थे। उन में से सहस्रों वानर यूथपति ऋक्षवान् पर्वत के शिखरों पर निवास करने लगे।।
३२ से ३४.
दूसरों ने नाना प्रकार के पर्वतों और जंगलों का आश्रय लिया । इन्द्रकुमार वाली और सूर्यनन्दन सुग्रीव ये दोनों भाई थे। समस्त वानर यूथपति उन दोनों भाइयों की सेवा में उपस्थित रहते थे। इसी प्रकार वे नल-नील, हनुमान् तथा अन्य वानर सरदारों का आश्रय लेते थे। वे सभी गरुड़ के समान बलशाली तथा युद्ध की कला में निपुण थे। वे वन में विचरते समय सिंह, व्याघ्र और बड़े-बड़े नाग आदि समस्त वन जन्तुओं को रौंद डालते थे ।।
३५.
महाबाहु वाली महान् बल से सम्पन्न तथा विशेष पराक्रमी थे। उन्हों ने अपने बाहु बल से छों, लंगूरों तथा अन्य वानरों की रक्षा की थी ।।
३६.
उन सब के शरीर और पार्थक्य सूचक लक्षण नाना प्रकार के थे। वे शूरवीर वानर पर्वत, वन और समुद्र सहित समस्त भू मण्डल में फैल गये ।।
३७.
वानर यूथपति मेघसमूह तथा पर्वतशिखर के समान विशालकाय थे। उन का बल महान् था। उन के शरीर और रूप भयंकर थे। भगवान् श्रीराम की सहायता के लिये प्रकट हुए उन वानर वीरों से यह सारी पृथ्वी भर गयी थी ।।
इस प्रकार श्रीवाल्मीकि द्वारा निर्मित आर्षरामायण आदिकाव्य के बालकाण्ड में सत्रहवाँ सर्ग पूरा हुआ ॥ १७ ॥
Sarg 17- Baal Kaand - Valmiki Ramayana Translated in Hindi and made Screen Readable for Blind and Visually Impaired Individuals by Dr T K Bansal
