73. Valmiki Ramayana - Baal Kaand - Sarg 73

ओम् श्री गणेशाय नमः ।।

ओम् श्रीसीतारामचन्द्राभ्याम् नमः ।।

श्रीमद्वाल्मीकीय रामायण – बालकाण्ड ।।

तिहत्तरवाँ सर्ग ।।

सारांश ।

श्रीराम आदि चारों भाइयों का विवाह ।।

आरम्भ ।।

श्लोक १ से १० ।।

१ से २.
राजा दशरथ ने जिस दिन अपने पुत्रों के विवाह के निमित्त उत्तम गोदान किया, उसी दिन भरत के सगे मामा, केकय राजकुमार वीर युधाजित्, वहाँ आ पहुँचे। उन्हों ने महाराज का दर्शन कर के कुशल-मंगल पूछा और इस प्रकार कहा- ।।

३ से ४.
“रघुनन्दन! केकय देश के महाराज ने बड़े स्नेह के साथ आप का कुशल- समाचार पूछा है और आप भी हमारे यहाँ के जिन-जिन लोगों की कुशल वार्ता जानना चाहते होंगे, वे सब इस समय स्वस्थ और सानन्द हैं। राजेन्द्र ! केकय नरेश मेरे भान्जे भरत को देखना चाहते हैं। अतः इन्हें लेने के लिये ही मैं अयोध्या आया था ।।

५.
“परंतु पृथ्वी नाथ! अयोध्या में यह सुन कर कि “आप के सभी पुत्र विवाह के लिये आप के साथ मिथिला पधारे हैं, मैं तुरंत यहाँ चला आया; क्यों कि मेरे मन में अपनी बहिन के बेटे को देखने की बड़ी लालसा थी” ।।

६.
महाराज दशरथ ने अपने प्रिय अतिथि को उपस्थित देख बड़े सत्कार के साथ उन की आवभगत की; क्यों कि वे सम्मान पाने के ही योग्य थे ।।

७ से ८.
तदनन्तर अपने महामनस्वी पुत्रों के साथ वह रात व्यतीत कर के वे तत्त्वज्ञ नरेश प्रातः काल उठे और नित्यकर्म कर के ऋषियों को आगे किये जनक की यज्ञ शाला में जा पहुँचे ।।

९ से १०.
तत्पश्चात् विवाह के योग्य विजय नामक मुहूर्त आने पर दूल्हे के अनुरूप समस्त वेश-भूषा से अलंकृत हुए भाइयों के साथ श्रीरामचन्द्रजी भी वहाँ आ गए । वे विवाह कालोचित मंगलाचार पूर्ण कर चुके थे, तथा वसिष्ठ मुनि एवम् अन्यान्य महर्षियों को आगे कर के उस मण्डप में पधारे थे। उस समय भगवान् वसिष्ठ ने विदेहराज जनक के पास जा कर इस प्रकार कहा- ।।

श्लोक ११ से २० ।।

११.
“राजन्! नरेशों में श्रेष्ठ महाराज दशरथ अपने पुत्रों का वैवाहिकसूत्र - बन्धनरूप मंगलाचार सम्पन्न कर के उन सब के साथ पधार गए हैं और भीतर आने के लिये दाता के आदेश की प्रतीक्षा कर रहे हैं ।।

१२.
“क्योंकि दाता और प्रतिग्रहीता, अर्थात दान ग्रहण करनेवाले, का संयोग होने पर ही समस्त दान- धर्मों का सम्पादन सम्भव होता है; अतः आप विवाह कालोपयोगी शुभ कर्मों का अनुष्ठान कर के उन्हें बुलाइये और कन्यादानरूप स्वधर्म का पालन कीजिये ।।

१३.
महात्मा वसिष्ठ के ऐसा कहने पर परम उदार, परम धर्मज्ञ और महातेजस्वी राजा जनक ने इस प्रकार उत्तर दिया- ।।

१४ से १५.
“मुनिश्रेष्ठ! महाराज के लिये मेरे यहाँ कौन-सा पहरेदार खड़ा है। वे किस के आदेश की प्रतीक्षा कर रहे हैं। अपने घर में आने के लिये कैसा सोच-विचार है? यह जैसे मेरा राज्य है, वैसे ही आप का है। मेरी कन्याओं का वैवाहिक सूत्र- बन्धनरूप मंगलकृत्य सम्पन्न हो चुका है। अब वे यज्ञ वेदी के पास आ कर बैठी हैं और अग्नि की प्रज्वलित शिखाओं के समान प्रकाशित हो रही हैं ।।

१६.
“इस समय तो मैं आप की ही प्रतीक्षा में वेदी पर बैठा हूँ। आप निर्विघ्नता पूर्वक सब कार्य पूर्ण कीजिये । विलम्ब किस लिये करते हैं?" ।।

१७.
वसिष्ठजी के मुख से राजा जनक की कही हुई बात सुन कर महाराज दशरथ उस समय अपने पुत्रों और सम्पूर्ण महर्षियों को महल के भीतर ले आये ।।

१८.
तदनन्तर विदेहराज ने वसिष्ठजी से इस प्रकार कहा – “धर्मात्मा महर्षे! प्रभो! आप ऋषियों को साथ ले कर लोकाभिराम श्रीराम के विवाह की सम्पूर्ण क्रिया कराइये ।।

१९ से २४.
तब जनकजी से “बहुत अच्छा” कह कर महातपस्वी भगवान् वसिष्ठ मुनि ने विश्वामित्र और धर्मात्मा शतानन्दजी को आगे कर के विवाह मण्डप के मध्य भाग में विधि पूर्वक वेदी बनायी और गन्ध तथा फूलों के द्वारा उसे चारों ओर से सुन्दर रूप में सजाया। साथ ही बहुत-सी सुवर्ण- पालिकाएँ, यवके अंकुरोंसे युक्त चित्रित कलश, अंकुर जमाये हुए सकोरे, धूपयुक्त धूपपात्र, शङ्खपात्र, स्रुवा, स्रुक्, अर्घ्य आदि पूजनपात्र, खीलों से भरे हुए पात्र तथा धोये हुए अक्षत आदि समस्त सामग्रियों को भी यथास्थान रख दिया। तत्पश्चात् महातेजस्वी मुनिवर वसिष्ठजी ने बराबर-बराबर कुशों को वेदी के चारों ओर बिछाकर मन्त्रोच्चारण करते हुए विधिपूर्वक अग्नि स्थापन किया और विधि को प्रधानता देते हुए मन्त्र पाठ पूर्वक प्रज्वलित अग्नि में हवन किया ।।

श्लोक २५ से ३० ।।

२५ से २७.
तदनन्तर राजा जनक ने सब प्रकार के आभूषणों से विभूषित सीताजी को साथ ला कर अग्नि के समक्ष श्रीरामचन्द्रजी के सामने बिठा दिया और माता कौसल्या का आनन्द बढ़ाने वाले उन श्रीराम से कहा – “ रघुनन्दन ! तुम्हारा कल्याण हो। यह मेरी पुत्री सीता तुम्हारी सहधर्मिणी के रूप में उपस्थित है; इसे स्वीकार करो और इस का हाथ अपने हाथ में लो। यह परम पतिव्रता, महान् सौभाग्यवती और छाया की भाँति सदा तुम्हारे पीछे चलने वाली होगी” ।।

२८.
यह कह कर राजा ने श्रीराम के हाथ में मन्त्र से पवित्र हुआ संकल्प का जल छोड़ दिया। उस समय देवताओं और ऋषियों के मुख से राजा जनक के लिये साधुवाद सुनायी देने लगा ।।

२९ से ३०.
देवताओं के नगाड़े बजने लगे और आकाश से फूलों की बड़ी भारी वर्षा होने लगी । इस प्रकार मन्त्र और संकल्प के जल के साथ अपनी पुत्री सीता का दान कर के हर्ष मग्न हुए राजा जनक ने लक्ष्मण से कहा - “लक्ष्मण ! तुम्हारा कल्याण हो । आओ, मैं ऊर्मिला को तुम्हारी सेवा में दे रहा हूँ। इसे स्वीकार करो। इस का हाथ अपने हाथ में लो। इस में विलम्ब नहीं होना चाहिये ।।

श्लोक ३१ से ४० ।।

३१.
लक्ष्मणजी से ऐसा कह कर राजा जनक ने भरतजी से कहा - “ रघुनन्दन ! माण्डवी का हाथ अपने हाथ में लो” ।।

३२ से ३३.
फिर धर्मात्मा मिथिलेश ने शत्रुघ्न को सम्बोधित कर के कहा - “महाबाहो ! तुम अपने हाथ से श्रुतकीर्ति का पाणिग्रहण करो। तुम चारों भाइ शान्तस्वभाव हो । तुम सब ने उत्तम व्रत का भलीभाँति आचरण किया है। ककुत्स्थ कुल के भूषणरूप तुम चारों भाइ पत्नियों से संयुक्त हो जाओ। इस कार्य में विलम्ब नहीं होना चाहिये । ।।

३४ से ३६.
राजा जनक का यह वचन सुन कर उन चारों राजकुमारों ने चारों राजकुमारियों के हाथ अपने हाथ में लिये। फिर वसिष्ठजी की सम्मति से उन रघु कुल रत्न महामनस्वी राजकुमारों ने अपनी-अपनी पत्नियों के साथ अग्नि, वेदी, राजा दशरथ तथा ऋषि-मुनियों की परिक्रमा की और वेदोक्त विधि के अनुसार वैवाहिक कार्य पूर्ण किया ।।

३७ से ३८.
उस समय आकाश से फूलों की बड़ी भारी वर्षा हुई, जो बड़ी सुहावनी लग रही थी । दिव्य दुन्दुभियों की गम्भीर ध्वनि, दिव्य गीतों के मनोहर शब्द, और दिव्य वाद्यों के मधुर घोष के साथ झुंड-की-झुंड अप्सराएँ नृत्य करने लगीं और गन्धर्व मधुर गीत गाने लगे। उन रघुवंश शिरोमणि राजकुमारों के विवाह में वह अद्भुत दृश्य दिखायी दिया ।।

३९.
शहनाइ आदि बाजों के मधुर घोष से गूँजते हुए उस वर्तमान विवाहोत्सव में उन महातेजस्वी राजकुमारों ने अग्नि की तीन बार परिक्रमा कर के पत्नियों को स्वीकार करते हुए विवाह कर्म सम्पन्न किया ।।

४०.
तदनन्तर रघुकुल को आनन्द प्रदान करने वाले वे चारों भाई अपनी - अपनी पत्नियों के साथ जनवासे में चले गये। राजा दशरथ भी ऋषियों और बन्धु बान्धवों के साथ पुत्रों और पुत्र- वधुओं को देखते हुए उन के पीछे-पीछे गये ।।

इस प्रकार श्रीवाल्मीकिनिर्मित आर्षरामायण आदिकाव्य के बालकाण्ड में तिहत्तरवाँ सर्ग पूरा हुआ ।। ७३ ।।