55. Valmiki Ramayana - Baal Kaand - Sarg 55
ओम् श्री गणेशाय नमः ।।
ओम् श्रीसीतारामचन्द्राभ्याम् नमः ।।
श्रीमद्वाल्मीकीय रामायण – बालकाण्ड ।।
पचपनवाँ सर्ग – २८ श्लोक ।।
सारांश ।।
अपने सौ पुत्रों और सारी सेना के नष्ट हो जाने पर विश्वामित्र का तपस्या करके महादेवजी से दिव्यास्त्र पाना तथा उनका वसिष्ठजी के आश्रम पर प्रयोग करना एवम् वसिष्ठजी का ब्रह्मदण्ड लेकर उनके सामने खड़ा होना। ।।
आरम्भ ।।
श्लोक १ से १० ।।
१.
“विश्वामित्र के अस्त्रों से घायल होकर उन्हें व्याकुल हुआ देख वसिष्ठजी ने फिर आज्ञा दी – “कामधेनो! अब योगबल से दूसरे सैनिकों की सृष्टि करो।” ।।
२.
“तब उस गौ ने फिर हुंकार किया। उसके हुंकार से सूर्य के समान तेजस्वी काम्बोज उत्पन्न हुए। थन से शस्त्रधारी बर्बर प्रकट हुए।” ।।
३.
“योनिदेश से यवन और शकृद्देश (गोबर के स्थान) से शक उत्पन्न हुए। रोमकू पों से म्लेच्छ, हारीत और किरात प्रकट हुए।” ।।
४.
“रघुनन्दन! उन सब वीरों ने पैदल, हाथी, घोड़े और रथ सहित विश्वामित्र की सारी सेना का तत्काल संहार कर डाला।” ।।
५ से ६.
“महात्मा वसिष्ठ द्वारा अपनी सेना का संहार हुआ देख विश्वामित्र के सौ पुत्र अत्यन्त क्रोध में भर गये और नाना प्रकार के अस्त्र-शस्त्र लेकर जप करने वालों में श्रेष्ठ वसिष्ठमुनि पर टूट पड़े। तब उन महर्षि ने हुंकार मात्र से उन सब को जला कर भस्म कर डाला।” ।।
७.
“महात्मा वसिष्ठ द्वारा विश्वामित्र के वे सभी पुत्र दो ही घड़ी में घोड़े, रथ और पैदल सैनिकों सहित जला कर भस्म कर डाले गये।” ।।
८.
“अपने समस्त पुत्रों तथा सारी सेना का विनाश हुआ देख महायशस्वी विश्वामित्र लज्जित हो बड़ी चिन्ता में पड़ गये।” ।।
९.
“समुद्र के समान उनका सारा वेग शान्त हो गया। जिसके दाँत तोड़ लिये गये हों उस सर्प के समान तथा राहुस्त सूर्य की भाँति वे तत्काल ही निस्तेज हो गये।” ।
१०.
“पुत्र और सेना दोनों के मारे जाने से वे पंख कटे हुए पक्षी के समान दीन हो गये। उनका सारा बल और उत्साह नष्ट हो गया। वे मन-ही-मन बहुत खिन्न हो उठे।” ।।
श्लोक ११ से २० ।।
११.
“उनके एक ही पुत्र बचा था, उसको उन्होंने राजा के पद पर अभिषिक्त करके राज्य की रक्षा के लिये नियुक्त कर दिया और क्षत्रिय धर्म के अनुसार पृथ्वी के पालन की आज्ञा देकर वे वन में चले गये।” ।।
१२.
“हिमालय के पार्श्वभाग में, जो किन्नरों और नागों से सेवित प्रदेश है, वहाँ जाकर महादेवजी की प्रसन्नता के लिये महान् तपस्या का आश्रय ले वे तपमें ही संलग्न हो गये।” ।।
१३.
“कुछ काल के पश्चात् वरदायक देवेश्वर भगवान् वृषभध्वज (शिव) ने महामुनि विश्वामित्र को दर्शन दिया और कहा- ।।
१४.
“राजन्! किस लिये तप करते हो? बताओ क्या कहना चाहते हो? मैं तुम्हें वर देने के लिये आया हूँ। तुम्हें जो वर पाना अभीष्ट हो, उसे कहो।” ।।
१५.
“महादेवजी के ऐसा कहने पर महातपस्वी विश्वामित्र ने उन्हें प्रणाम करके इस प्रकार कहा – ।।
१६.
“निष्पाप महादेव! यदि आप संतुष्ट हों तो अंग, उपांग, उपनिषद् और रहस्यों सहित धनुर्वेद मुझे प्रदान कीजिये।” ॥
१७.
“अनघ! देवताओं, दानवों, महर्षियों, गन्धवों, यक्षों तथा राक्षसों के पास जो-जो अस्त्र हों, वे सब आप की कृपा से मेरे हृदय में स्फुरित हो जायँ। देवदेव ! यही मेरा मनोरथ है, जो मुझे प्राप्त होना चाहिये।” ।।
१८ से १९.
“तब “एवमस्तु” कहकर देवेश्वर भगवान् शङ्कर वहाँ से चले गये। देवेश्वर महादेव से वे अस्त्र पाकर महाबली विश्वामित्र को बड़ा घमंड हो गया। वे अभिमान में भर गये।” ।।
२०.
“जैसे पूर्णिमा को समुद्र बढ़ने लगता है, उसी प्रकार वे पराक्रम द्वारा अपने को बहुत बढ़ा- चढ़ा मानने लगे। श्रीराम! उन्होंने मुनिश्रेष्ठ वसिष्ठ को उस समय मरा हुआ ही समझा।” ।।
श्लोक २१ से २८ ।।
२१.
“फिरतो वे पृथ्वी पति विश्वामित्र वसिष्ठ के आश्रम पर जाकर भाँति-भाँति के अस्त्रों का प्रयोग करने लगे। जिन के तेज से वह सारा तपोवन दग्ध होने लगा।” ।।
२२.
“बुद्धिमान् विश्वामित्र के उस बढ़ते हुए अस्त्रतेज को देख कर वहाँ रहने वाले सैकड़ों मुनि भयभीत हो सम्पूर्ण दिशाओं में भाग चले।” ।।
२३.
“वसिष्ठजी के जो शिष्य थे, जो वहाँके पशु और पक्षी थे, वे सहस्रों प्राणी भयभीत हो नाना दिशाओं की ओर भाग गये।” ।।
२४.
“महात्मा वसिष्ठ का वह आश्रम सूना हो गया। दो ही घड़ी में ऊसर भूमि के समान उस स्थान पर सन्नाटा छा गया।” ।।
२५.
“वसिष्ठजी बार-बार कहने लगे – “डरो मत, मैं अभी इस गाधिपुत्र को नष्ट किये देता हूँ। ठीक उसी तरह, जैसे सूर्य कुहासे को मिटा देता है।” ।।
२६.
“जपने वालों में श्रेष्ठ महातेजस्वी वसिष्ठ ऐसा कहकर उस समय विश्वामित्रजी से रोष पूर्वक बोले—
२७.
“अरे! तूने चिरकाल से पाले-पोसे तथा हरे-भरे किये हुए इस आश्रम को नष्ट कर दिया- उजाड़ डाला, इसलिये तू दुराचारी और विवेकशून्य है और इस पाप के कारण तू कुशल से नहीं रह सकता।” ।।
२८.
“ऐसा कहकर वे अत्यन्त क्रुद्ध हो धूमरहित कालाग्नि के समान उद्दीप्त हो उठे और दूसरे यमदण्ड के समान भयंकर डंडा हाथ में उठा कर तुरंत उनका सामना करने के लिये तैयार हो गये । “।।
इस प्रकार श्रीवाल्मीकि द्वारा निर्मित आर्षरामायण आदिकाव्य के बालकाण्ड में पचपनवाँ सर्ग पूरा हुआ। ।।
Sarg 55- Baal Kaand - Valmiki Ramayana Translated in Hindi and made Screen Readable for Blind and Visually Impaired Individuals by Dr T K Bansal, The Blind Scientist.
