53. Valmiki Ramayana - Baal Kaand - Sarg 53
ओम् श्री गणेशाय नमः ।।
ओम् श्रीसीतारामचन्द्राभ्याम् नमः ।।
श्रीमद्वाल्मीकीय रामायण – बालकाण्ड ।।
तिरपनवाँ सर्ग – २५ श्लोक ।।
सारांश ।।
कामधेनु की सहायता से उत्तम अन्न-पान द्वारा सेना सहित तृप्त हुए विश्वामित्र का वसिष्ठ से उन की कामधेनु को मांगना और उनका देने से अस्वीकार करना। ।।
आरम्भ ।।
श्लोक १ से १० ।।
१.
शतानन्दजी ने आगे कहा-) “ शत्रुसूदन! महर्षि वसिष्ठ के ऐसा कहने पर चितकबरे रंग की उस कामधेनु ने जिसकी जैसी इच्छा थी, उसके लिये वैसी ही सामग्री जुटा दी।” ।।
२.
“इख, मधु, लावा, मैरेय, श्रेष्ठ आसव, पानक रस आदि नाना प्रकार के बहुमूल्य भक्ष्य- पदार्थ प्रस्तुत कर दिये।” ।।
३.
“गरम-गरम भात के पर्वत के सदृश ढेर लग गये। मिष्टान्न (खीर) और दाल भी तैयार हो गयी। दूध, दही और घी की तो नहरें ही बह चलीं।” ।।
४.
“भाँति-भाँति के सुस्वादु रस, खाण्डव तथा नाना प्रकार के भोजनों से भरी हुई चाँदी की सहस्रों थालियाँ सज गयीं।” ।।
५.
“श्रीराम! महर्षि वसिष्ठ ने विश्वामित्रजी की सारी सेना के लोगों को भलीभाँति तृप्त किया। उस सेना में बहुत-से हृष्ट-पुष्ट सैनिक थे। उन सब को वह दिव्य भोजन पाकर बड़ा संतोष हुआ।” ।।
६.
“राजर्षि विश्वामित्र भी उस समय अन्तःपुर की रानियों, ब्राह्मणों और पुरोहितों के साथ बहुत ही हृष्ट-पुष्ट हो गये।” ।।
७.
“अमात्य, मन्त्री और भृत्यों सहित पूजित हो वे बहुत प्रसन्न हुए और वसिष्ठजी से इस प्रकार बोले –
८.
“ब्रह्मन्! आप स्वयम् मेरे पूजनीय हैं तो भी आपने मेरा पूजन किया, भलीभाँति स्वागत- सत्कार किया। बातचीत करने में कुशल महर्षे! अब मैं एक बात कहता हूँ, उसे सुनिये।” ।।
९.
“भगवन्! आप मुझ से एक लाख गौएँ लेकर यह चितकबरी गाय मुझे दे दीजिये; क्योंकि यह गौ रत्नरूप है और रत्न लेने का अधिकारी राजा ही होता है। ब्रह्मन् ! मेरे इस कथन पर ध्यान देकर मुझे यह शबला गौ दे दीजिये; क्योंकि यह धर्मतः मेरी ही वस्तु है।” ।।
१०.
“विश्वामित्र के ऐसा कहने पर धर्मात्मा मुनिवर भगवान् वसिष्ठ राजा को उत्तर देते हुए बोले - ।।
श्लोक ११ से २० ।।
११ से १२.
“शत्रुओं का दमन करनेवाले नरेश्वर! मैं एक लाख या सौ करोड़ अथवा चाँदी के ढेर लेकर भी बदले में इस शबला गौ को नहीं दूँ सकता। यह मेरे पास से अलग होने योग्य नहीं है।” ।।
१३.
“जैसे मनस्वी पुरुष की अक्षय कीर्ति कभी उस से अलग नहीं रह सकती, उसी प्रकार यह सदा मेरे साथ सम्बन्ध रखनेवाली शबला गौ मुझसे पृथक् नहीं रह सकती। मेरा हव्यकव्य और जीवन निर्वाह इसी पर निर्भर करता है।” ।।
१४.
“मेरे अग्निहोत्र, बलि, होम, स्वाहा, वषट्कार और भाँति-भाँति की विद्याएँ इस कामधेनु के ही अधीन हैं।” ।।
१५.
“राजर्षे! मेरा यह सबकुछ इस गौ के ही अधीन है, इसमें संशय नहीं है। मैं सच कहता हूँ - यह गौ ही मेरा सर्वस्व है और यही मुझे सब प्रकार से संतुष्ट करनेवाली है। राजन् ! बहुत-से ऐसे कारण हैं, जिनसे बाध्य होकर मैं यह शबला गौ आपको नहीं दे सकता।” ।।
१६.
“वसिष्ठजी के ऐसा कहने पर बोलने में कुशल विश्वामित्र अत्यन्त क्रोधपूर्वक इस प्रकार बोले - ।।
१७.
“मुने! मैं आपको चौदह हजार ऐसे हाथी दे रहा हूँ, जिनके कसनेवाले रस्से, गलेके आभूषण और अंकुश भी सोने के बने होंगे और उन सब से वे हाथी विभूषित होंगे।” ।।
१८ से २०.
“उत्तम व्रतका पालन करनेवाले मुनीश्वर! इनके सिवा मैं आठ सौ सुवर्णमय रथ प्रदान करूँगा; जिनमें शोभा के लिये सोने के घुँघुरु लगे होंगे और हर एक रथ में चारचार सफेद रंग के घोड़े जुते हुए होंगे तथा अच्छी जाति और उत्तम देश में उत्पन्न महातेजस्वी ग्यारह हजार घोड़े भी आपकी सेवा में अर्पित करूँगा। इतना ही नहीं, नाना प्रकार के रंग वाली नयी अवस्था की एक करोड़ गौएँ भी दूँगा, परंतु यह शबला गौ मुझे दे दीजिये।” ।।
श्लोक २१ से २५ ।।
२१.
“द्विजश्रेष्ठ! इनके अतिरिक्त भी आप जितने रत्न या सुवर्ण लेना चाहें, वह सब आपको देने के लिये मैं तैयार हूँ; किंतु यह चितकबरी गाय मुझे दे दीजिये।” ।।
२२.
“बुद्धिमान् विश्वामित्र के ऐसा कहने पर भगवान् वसिष्ठ बोले – “राजन्! मैं यह चितकबरी गाय तुम्हें किसी तरह भी नहीं दूँगा।” ।।
२३.
“यही मेरा रत्न है, यही मेरा धन है, यही मेरा सर्वस्व है और यही मेरा जीवन है।” ।।
२४.
“राजन्! मेरे दर्श, पौर्णमास, प्रचुर दक्षिणावाले यज्ञ तथा भाँति-भाँति के पुण्यकर्म—यह गौ ही है। इसी पर ही मेरा सब कुछ निर्भर है।” ।।
२५.
“नरेश्वर! मेरे सारे शुभ कर्मों का मूल यही है, इसमें संशय नहीं है। बहुत व्यर्थ बात करने से क्या लाभ? मैं इस कामधेनु को कदापि नहीं दूँगा।” ।।
इस प्रकार श्रीवाल्मीकि द्वारा निर्मित आर्षरामायण आदिकाव्य के बालकाण्ड में तिरपनवाँ सर्ग पूरा हुआ। ।।
Sarg 53- Baal Kaand - Valmiki Ramayana Translated in Hindi and made Screen Readable for Blind and Visually Impaired Individuals by Dr T K Bansal, The Blind Scientist.
