51. Valmiki Ramayana - Baal Kaand - Sarg 51

ओम् श्री गणेशाय नमः ।।

ओम् श्रीसीतारामचन्द्राभ्याम् नमः ।।

श्रीमद्वाल्मीकीय रामायण – बालकाण्ड ।।

इक्यावनवाँ सर्ग- २८ श्लोक ।।

सारांश ।।

शतानन्द के पूछने पर विश्वामित्रजी का उन्हें श्रीराम के द्वारा अहल्या के उद्धार का समाचार बताना तथा शतानन्द द्वारा श्रीराम का अभिनन्दन करते हुए विश्वामित्रजी के पूर्व चरित्र का वर्णन करना। ।।

आरम्भ ।।

श्लोक १ से १० ।।

१.
परमबुद्धिमान् विश्वामित्रजी की वह बात सुनकर महातेजस्वी महातपस्वी शतानन्दजी के शरीर में रोमाञ्च हो आया। ।।

२.
वे गौतम मुनि के ज्येष्ठ पुत्र थे। तपस्या से उन की कान्ति प्रकाशित हो रही थी। वे श्रीरामचन्द्रजी के दर्शनमात्र से ही बड़े विस्मित हुए। ।।

३.
उन दोनों राजकुमारों को सुखपूर्वक बैठे देख शतानन्द ने मुनिश्रेष्ठ विश्वामित्रजी से पूछा- ।।

४.
“मुनिप्रवर! मेरी यशस्विनी माता अहल्या बहुत दिनों से तपस्या कर रही थी। क्या आपने राजकुमार श्रीराम को उनका दर्शन कराया?” ।।

५.
“क्या मेरी महातेजस्विनी एवम् यशस्विनी माता अहल्या ने वन में होने वाले फल-फूल आदि से समस्त देहधारियों के लिये पूजनीय श्रीरामचन्द्रजी का पूजन (आदर-सत्कार किया था?” ।।

६.
“महातेजस्वी मुने! क्या आपने श्रीराम से वह प्राचीन वृत्तान्त कहा था, जो मेरी माता के प्रति देवराज इन्द्र द्वारा किये गये छल-कपट एवम् दुराचार द्वारा घटित हुआ था ?” ।।

७.
“मुनिश्रेष्ठ कौशिक! आपका कल्याण हो। क्या श्रीरामचन्द्रजी के दर्शन आदि के प्रभाव से मेरी माता शाप मुक्त हो पिताजी से जा मिलीं?” ।।

८.
“कुशिकनन्दन! क्या मेरे पिता ने श्रीराम का पूजन किया था? क्या उन महात्मा की पूजा ग्रहण करके ये महातेजस्वी श्रीराम यहाँ पधारे हैं?” ।।

९.
“विश्वामित्रजी! क्या यहाँ आकर मेरे माता- पिता द्वारा सम्मानित हुए श्रीराम ने मेरे पूज्य पिता का शान्त चित्त से अभिवादन किया था?” ।।

१०.
शतानन्द के ये प्रश्न सुन कर बोलने की कला जानने वाले महामुनि विश्वामित्र ने बातचीत करने में कुशल शतानन्द को इस प्रकार उत्तर दिया- ।।

श्लोक ११ से २० ।।

११.
“मुनिश्रेष्ठ! मैंने कुछ उठा नहीं रखा है। मेरा जो कर्तव्य था, उसे मैंने पूरा किया है। महर्षि गौतम से उनकी पत्नी अहल्या उसी प्रकार जा मिली हैं, जैसे भृगु वंशी जमदग्नि से रेणुका मिली है।” ।।

१२.
बुद्धिमान् विश्वामित्र की यह बात सुनकर महातेजस्वी शतानन्द ने श्रीरामचन्द्रजी से यह बात कही - ।।

१३.
“नरश्रेष्ठ! आपका स्वागत है। रघुनन्दन ! मेरा अहोभाग्य जो आपने किसी से पराजित न होने वाले महर्षि विश्वामित्र को आगे करके यहाँ तक पधारने का कष्ट उठाया” ।।

१४.
“महर्षि विश्वामित्र के कर्म अचिन्त्य हैं। ये तपस्या से ब्रह्मर्षि पद को प्राप्त हुए हैं। इनकी कान्ति असीम है और ये महातेजस्वी हैं। मैं इनको जानता हूँ। ये जगत्के परम आश्रय (हितैषी) हैं” ।।

१५.
“श्रीराम! इस पृथ्वी पर आपसे बढ़कर धन्याति धन्य पुरुष दूसरा कोइ नहीं है; क्योंकि कुशिकनन्दन विश्वामित्र आपके रक्षक हैं, जिन्होंने बड़ी भारी तपस्या की है।” ।।

१६.
“मैं महात्मा कौशिक के बल और स्वरूप का यथार्थ वर्णन करता हूँ। आप ध्यान देकर मुझसे यह सब सुनिये।” ।।

१७.
“ये विश्वामित्र पहले एक धर्मात्मा राजा थे। इन्होंने शत्रुओं के दमन पूर्वक दीर्घ काल तक राज्य किया था। ये धर्मज्ञ और विद्वान् होने के साथ ही प्रजा वर्ग के हित साधन में तत्पर रहते थे।” ।।

१८.
“प्राचीन काल में कुश नाम से प्रसिद्ध एक राजा हो गये हैं। वे प्रजापति के पुत्र थे। कुश के बलवान् पुत्र का नाम कुशनाभ हुआ। वह बड़ा ही धर्मात्मा था।” ।।

१९.
“कुशनाभ के पुत्र गाधि नाम से विख्यात थे। उन्हीं गाधि के महातेजस्वी पुत्र ये महामुनि विश्वामित्र हैं।” ।।

२०.
“महातेजस्वी राजा विश्वामित्र ने कई हजार वर्षों तक इस पृथ्वी का पालन तथा राज्य का शासन किया है।” ।।

श्लोक २१ से २८ ।।

२१.
“एक समय की बात है महातेजस्वी राजा विश्वामित्र सेना एकत्र करके एक अक्षौहिणी सेना के साथ पृथ्वी पर विचरने लगे।” ।।

२२ से २३.
“वे अनेकानेक नगरों, राष्ट्रों, नदियों, बड़े-बड़े पर्वतों और आश्रमों में क्रमशः विचरते हुए महर्षि वसिष्ठ के आश्रम पर आ पहुँचे, जो नाना प्रकार के फूलों, लताओं और वृक्षों से शोभा पा रहा था। नाना प्रकार के मृग (वन्यपशु) वहाँ सब ओर फैले हुए थे तथा सिद्ध और चारण उस आश्रम में निवास करते थे।” ।।

२४.
“देवता, दानव, गन्धर्व और किन्नर उसकी शोभा बढ़ाते थे। शान्त मृग वहाँ भरे रहते थे। बहुत-से ब्राह्मणों, ब्रह्मर्षियों और देवर्षियों के समुदाय उसका सेवन करते थे।” ।।

२५ से २८.
“ तपस्या से सिद्ध हुए अग्नि के समान तेजस्वी महात्मा तथा ब्रह्मा के समान महामहिम महात्मा सदा उस आश्रम में भरे रहते थे। उनमें से कोई जल पीकर रहता था तो कोई हवा पीकर। कितने ही महात्मा फल- मूल खाकर अथवा सूखे पत्ते चबा कर रहते थे। राग आदि दोषों को जीत कर मन और इन्द्रियों पर सयम रखने वाले बहुत-से ऋषि जप-होम में लगे रहते थे। वालखिल्य मुनि गण तथा अन्यान्य वैखानस महात्मा सब ओर से उस आश्रम की शोभा बढ़ाते थे। इन सब विशेषताओं के कारण महर्षि वसिष्ठ का वह आश्रम दूसरे ब्रह्मलोक के समान जान पड़ता था। विजयी वीरों में श्रेष्ठ महाबली विश्वामित्र ने उसका दर्शन किया।” ।।

इस प्रकार श्रीवाल्मीकि द्वारा निर्मित आर्षरामायण आदिकाव्य के बालकाण्ड में इक्यावनवाँ सर्ग पूरा हुआ। ॥।

Sarg 51- Baal Kaand - Valmiki Ramayana Translated in Hindi and made Screen Readable for Blind and Visually Impaired Individuals by Dr T K Bansal, The Blind Scientist.