12. Valmiki Ramayana - Ayodhya Kaand - Sarg 12

ओम् श्री गणेशाय नमः ।।

ओम् श्रीसीतारामचन्द्राभ्यां नमः ।।

श्रीमद्वाल्मीकीय रामायण – अयोध्या काण्ड ।।

बारहवाँ सर्ग ।।

सारांश ।।

महाराज दशरथ की चिन्ता, विलाप, कैकेयी को फटकारना, समझाना और उस से वैसा वर न माँगने के लिये अनुरोध करना ।।

आरम्भ ।।

श्लोक १ से १० ।।

१.
कैकेयी का यह कठोर वचन सुन कर महाराज दशरथ को बड़ी चिन्ता हुई। वे एक मुहूर्तत तक अत्यन्त संताप करते रहे ।।

२.
उन्हों ने सोचा, “क्या दिन में ही यह मुझे स्वप्न दिखायी दे रहा है? अथवा मेरे चित्त का मोह है? या किसी भूत (ग्रह आदि) के आवेश से चित्त में विकल्ता आ गयी है? या आधि-व्याधि कारण यह कोई मन का ही उपद्रव है?” ।।

३.
यही सोचते हुए उन्हें अपने भ्रम के कारण का पता नहीं लगा। उस समय राजा को मूर्च्छित कर देने वाला महान् दुख प्राप्त हुआ। तत्पश्चात्, होश में आने पर कैकेयी की बात को याद कर के उन्हें पुनः संताप होने लगा ।।

४.
जैसे किसी बाघिन को देख कर मृग व्यथित हो जाता है, उसी प्रकार वे नरेश कैकेयी को देख कर पीड़ित एवम् व्याकुल हो उठे। बिस्तर रहित खाली भूमि पर बैठे हुए राजा लंबी साँस खींचने लगे, मानो कोई महा विषैला सर्प किसी मण्डल में मन्त्रों द्वारा अवरुद्ध हो गया हो ।।

५.
राजा दशरथ रोष में भर कर “अहो! धिक्कार है” यह कह कर पुनः मूर्च्छित हो गये । शोक के कारण उन की चेतना लुप्त सी हो गयी थी ।।

६.
बहुत देर बाद जब उन्हें फिर चेत हुआ, तब वे नरेश अत्यन्त दुखी हो कर कैकेयी को अपने तेज से दग्ध-सी करते हुए क्रोध पूर्वक उस से बोले - ।।

७.
“दयाहीन दुराचारिणी कैकेयि! तू इस कुल का विनाश करने वाली डाइन है। पापिनि! बता, मैंने अथवा श्रीराम ने तेरा क्या बिगाड़ा है?” ।।

८.
“श्रीरामचन्द्र तो तेरे साथ सदा सगी माता का-सा बर्ताव करते आये हैं; फिर तू किस लिये उन का इस तरह अनिष्ट करने पर उतारू हो गयी है?” ।।

९.
“मालूम होता है— मैंने अपने विनाश के लिये ही तुझे अपने घर में ला कर रखा था। मैं नहीं जानता था कि तू राजकन्या के रूप में तीखे विष वाली नागिन है।” ।।

१०.
“जब सारा जीव-जगत् श्रीराम के गुणों की प्रशंसा करता है, तब मैं किस अपराध के कारण अपने उस प्यारे पुत्र को त्याग दूँ?” ।।

श्लोक ११ से २० ।।

११.
“मैं कौसल्या और सुमित्रा को भी छोड़ सकता हूँ, राजलक्ष्मी का भी परित्याग कर सकता हूँ, परंतु अपने प्राणस्वरूप पितृभक्त श्रीराम को नहीं छोड़ सकता।” ।।

१२.
“अपने ज्येष्ठ पुत्र श्रीराम को देखते ही मेरे हृदय में परम प्रेम उमड़ आता है; परंतु जब मैं श्रीराम को नहीं देखता हूँ, तब मेरी चेतना नष्ट होने लगती है।” ।।

१३.
“सम्भव है सूर्य के बिना यह संसार टिक सके, अथवा पानी के बिना खेती उपज सके, परंतु श्रीराम के बिना मेरे शरीर में प्राण नहीं रह सकते।”

१४ से १५.
“अतः, ऐसा वर माँगने से कोई लाभ नहीं। पाप पूर्ण निश्चय वाली कैकेय! तू इस निश्चय अथवा दुरा ग्रह को त्याग दे। यह लो, मैं तेरे पैरों पर अपना मस्तक रखता हूँ, मुझ पर प्रसन्न हो जा। पापनि! तूने ऐसी परम क्रूरता पूर्ण बात किस लिये सोची है?” ।।

१६.
“यदि यह जानना चाहती है कि भरत मुझे प्रिय हैं या अप्रिय, तो रघुनन्दन भरत के सम्बन्ध में तू पहले जो कुछ कह चुकी है, वह पूर्ण हो, अर्थात् तेरे प्रथम वर के अनुसार मैं भरत का राज्याभिषेक स्वीकार करता हूँ।” ।।

१७.
“तू पहले कहा करती थी कि “श्रीराम मेरे बड़े बेटे हैं, वे धर्माचरण में भी सब से बड़े हैं!” परंतु अब मालूम हुआ कि तू ऊपर-ऊपर से चिकनी-चुपड़ी बातें किया करती थी और वह बात तूने श्रीराम से अपनी सेवा कराने के लिये ही कही होगी।” ।।

१८.
“आज श्रीराम के अभिषेक की बात सुन कर तू शोक से संतप्त हो उठी है और मुझे भी बहुत संताप दे रही है; इस से जान पड़ता है कि इस सूने घर में तुझ पर भूत आदि का आवेश हो गया है, अतः, तू पर वश हो कर ऐसी बातें कह रही है।” ।।

१९.
“देवि! न्यायशील इक्ष्वाकुवंश में यह बड़ा भारी अन्याय आ कर उपस्थित हुआ है, जहाँ तेरी बुद्धि इस प्रकार विकृत हो गयी है।” ।।

२०.
“विशाललोचने! आज से पहले तूने कभी कोई ऐसा आचरण नहीं किया है, जो अनुचित अथवा मेरे लिये अप्रिय हो; इसी लिये तेरी आज की बात पर भी मुझे विश्वास नहीं हो रहा है।” ।।

श्लोक २१ से ३० ।।

२१.
“तेरे लिये तो श्रीराम भी महात्मा भरत के ही तुल्य हैं। बाले! तू बहुत बार बातचीत के प्रसंग में स्वयम् ही यह बात मुझ से कहती रही है।” ।।

२२.
“भीरु स्वभाववाली देवि! उन्हीं धर्मात्मा और यशस्वी श्रीराम का चौदह वर्षों के लिये वनवास तुझे कैसे अच्छा लग रहा है?” ।।

२३.
“जो अत्यन्त सुकुमार और धर्म में दृढ़ता पूर्वक मन लगाये रखनेवाले हैं, उन्हीं श्रीराम को वनवास देना तुझे कैसे रुचिकर जान पड़ता है? अहो ! तेरा हृदय बड़ा कठोर है।” ।।

२४.
“सुन्दर नेत्रों वाली कैकेयि! जो सदा तेरी सेवा – शुश्रूषा में लगे रहते हैं, उन नयनाभिराम श्रीराम को देश निकाला दे देने की इच्छा तुझे किस लिये हो रही है ?” ।।

२५.
“मैं देख रहा हूँ, भरत से अधिक श्रीराम ही सदा तेरी सेवा करते हैं। भरत उन से अधिक तेरी सेवा में रहते हों, ऐसा मैंने कभी नहीं देखा है"।” ।।

२६.
“नरश्रेष्ठ श्रीराम से बढ़ कर दूसरा कौन है, जो गुरु जनों की सेवा करने, उन्हें गौरव देने, उन की को मान्यता देने और उन की आज्ञा का तुरंत पालन करने में अधिक तत्परता दिखाता हो।” ।।

२७.
“मेरे यहाँ कई सहस्र स्त्रियाँ हैं और बहुत से उपजीवी भृत्य जन हैं, परंतु किसी के मुँह से श्रीराम के सम्बन्ध में सच्ची या झूठी किसी प्रकार की शिकायत नहीं सुनी जाती।” ।।

२८.
“पुरुषसिंह श्रीराम समस्त प्राणियों को शुद्ध हृदय से सान्त्वना देते हुए प्रिय आचरणों द्वारा राज्य की समस्त प्रजाओं को अपने वश में किये रहते हैं।” ।।

२९.
“वीर श्रीरामचन्द्र अपने सात्त्विक भाव से समस्त लोकों को, दान के द्वारा द्विजों को, सेवा से गुरु जनों को, और धनुष बाण द्वारा युद्ध स्थल में शत्रु सैनिकों को जीत कर अपने अधीन कर लेते हैं।” ।।

३०.
“सत्य, दान, तप, त्याग, मित्रता, पवित्रता, सरलता, विद्या और गुरु-शुश्रूषा- ये सभी सद्गुण श्रीराममें स्थिर रूप से रहते हैं।” ।।

श्लोक ३१ से ४० ।।

३१.
“देवि! महर्षियों के समान तेजस्वी उन सीधे-सादे देव तुल्य श्रीराम का तू क्यों अनिष्ट करना चाहती है?” ॥

३२.
“श्रीराम सब लोगों से प्रिय बोलते हैं। उन्हों ने कभी किसी को अप्रिय वचन कहा हो, ऐसा मुझे याद नहीं पड़ता। ऐसे सर्वप्रिय राम से मैं तेरे लिये अप्रिय बात कैसे कहूँगा?” ।।

३३.
“जिन में क्षमा, तप, त्याग, सत्य, धर्म, कृतज्ञता और समस्त जीवों के प्रति दया भरी हुई है, उन श्रीराम के बिना मेरी क्या गति होगी?” ।।

३४.
“कैकेयि! मैं बूढ़ा हूँ। मौत के किनारे बैठा हूँ। मेरी अवस्था शोचनीय हो रही है और मैं दीन भाव से तेरे सामने गिड़गिड़ा रहा हूँ। तुझे मुझ पर दया करनी चाहिये।” ॥

३५.
“समुद्र पर्यन्त पृथ्वी पर जो कुछ मिल सकता है, वह सब मैं तुझे दे दूँगा, परंतु तू ऐसे दुरा ग्रह में न पड़, जो मुझे मौत के मुँह में ढकेलने वाला हो।” ।।

३६.
“केकयनन्दिनि! मैं हाथ जोड़ता हूँ और तेरे पैरों पड़ता हूँ। तू श्रीराम को शरण दे, जिस से यहाँ मुझे पाप न लगे।” ।।

३७ से ३८.
महाराज दशरथ इस प्रकार दुख से संतप्त हो कर विलाप कर रहे थे। उनकी चेतना बार- बार लुप्त हो जा रही थी। उन के मस्तिष्क में चक्कर आ रहा था और वे शोक मग्न हो उस शोक सागर शीघ्र पार होने के लिये बारंबार अनुनय-विनय कर रहे थे, तो भी कैकेयी का हृदय नहीं पिघला। वह और भी भीषण रूप धारण कर के अत्यन्त कठोर वाणी में उन्हें इस प्रकार उत्तर देने लगी- ।।

३९.
“राजन्! यदि दो वरदान दे कर आप फिर उन के लिये पश्चात्ताप कर रहै हैं तो वीर नरेश्वर ! इस भूमण्डल में आप अपनी धार्मिकता का ढिंढोरा कैसे पीट सकेंगे?” ॥

४०.
“धर्म के ज्ञाता महाराज! जब बहुत-से राज र्षि एकत्र हो कर आप के साथ मुझे दिये हुए वरदानो के विषय में बातचीत करेंगे, उस समय वहाँ आप उन्हें क्या उत्तर देंगे ?” ।।

श्लोक ४१ से ५० ।।

४१.
“यही कहें गे न, कि जिस के प्रसाद से मैं जीवित हूँ, जिस ने (बहुत बड़े संकट से) मेरी रक्षा की, उसी कैकेयी को वर देने के लिये की हुइ प्रतिज्ञा मैंने झूठी कर दी” ।।

४२.
“महाराज! आज ही वरदान दे कर यदि आप फिर उस से विपरीत बात कहें गे तो अपने कुल के राजाओं के माथे पर कलंक का टीका लगायें गे।” ।।

४३.
“राजा शैब्य ने बाज और कबूतर के झगड़े में (कबूतर के प्राण बचाने की प्रतिज्ञा को पूर्ण करने के लिये) बाज नामक पक्षी को अपने शरीर का मांस काट कर दे दिया था। इसी तरह राजा अलर्क ने (एक अंधे ब्राह्मण को) अपने दोनों नेत्रों का दान कर के परम उत्तम गति प्राप्त की थी।” ।।

४४.
“समुद्र ने (देवताओं के समक्ष) अपनी नियत सीमा को न लाँघने की प्रतिज्ञा की थी, सो अब तक वह उस का उल्लङ्घन नहीं करता है। आप भी पूर्व वर्ती महापुरुषों के बर्ताव को सदा ध्यान में रख कर अपनी प्रतिज्ञा झूठी न करें।” ।।

४५.
“(परंतु आप मेरी बात क्यों सुनें गे?) दुर्बुद्धि नरेश ! आप तो धर्म को तिलाञ्जलि दे कर श्रीराम को राज्य पर अभिषिक्त कर के रानी कौसल्या के साथ सदा मौज उड़ाना चाहते हैं।” ।।

४६.
“अब धर्म हो या अधर्म, झूठ हो या सच, जिस बात के लिये आप ने मुझ से प्रतिज्ञा कर ली है, उस में कोई परिवर्तन नहीं हो सकता।” ।।

४७.
“यदि श्रीराम का राज्याभिषेक होगा तो मैं आप के सामने आप के देखते-देखते आज ही बहुत-सा विष पी कर मर जाऊँगी।” ।।

४८.
“यदि मैं एक दिन भी राम माता कौसल्या को राजमाता होने के नाते दूसरे लोगों से अपने को हाथ जोड़वाती देख लूँगी तो उस समय मैं अपने लिये मर जाना ही अच्छा समझुं गी।” ।।

४९.
“नरेश्वर! मैं आप के सामने अपनी और भरत की शपथ खा कर कहती हूँ कि श्रीराम को इस देश से निकाल देने के सिवा दूसरे किसी वर से मुझे संतोष नहीं होगा।” ॥

५०.
इतना कह कर कैकेयी चुप हो गयी। राजा बहुत रोये गिड़गिड़ाये; किंतु उस ने उन की किसी बात का उत्तर नहीं दिया ।।

श्लोक ५१ से ६० ।।

५१ से ५२
“श्रीराम का वनवास हो और भरत का राज्याभिषेक” कैकेयी के मुख से यह परम अमंगलकारी वचन सुन कर राजा की सारी इन्द्रियाँ व्याकुल हो उठीं। वे एक मुहूरत तक कैकेयी से कुछ न बोले । उस अप्रिय वचन बोलने वाली प्यारी रानी की ओर केवल एक टक दृष्टि से देखते रहे ।।

५३.
मन को अप्रिय लगने वाली कैकेयी की वह वज्र के समान कठोर तथा दुख-शोकमयी वाणी सुन कर राजाको बड़ा दुखी हुआ। उन की सुख-शान्ति छिन गयी ।।

५४.
देवी कैकेयी के उस घोर निश्चय और किये हुए शपथ की ओर ध्यान जाते ही वे “हा राम !” कह कर लंबी साँस खींचते हुए कटे हुए वृक्ष की भाँति गिर पड़े ।।

५५.
उन की चेतना लुप्त सी हो गयी। वे उन्माद ग्रस्त से प्रतीत होने लगे। उन की प्रकृति विपरीत - सी हो गयी। वे रोगी से जान पड़ रहे थे। इस प्रकार भूपाल दशरथ मन्त्र से जिस का तेज हर लिया गया हो उस सर्प के समान निश्चेष्ट हो गये ।।

५६.
तदनन्तर उन्हों ने दीन और आतुर वाणी में कैकेयी से इस प्रकार कहा – “अरी ! तुझे अनर्थ ही अर्थ-सा प्रतीत हो रहा है, किस ने तुझे इस का उपदेश दिया है?” ।।

५७.
“जान पड़ता है, तेरा चित्त किसी भूत के आवेश से दूषित हो गया है। पिशाच ग्रस्त नारी की भाँति मेरे सामने ऐसी बातें कहती हुइ तू लज्जित क्यों नहीं होती? मुझे पहले इस बात का पता नहीं था कि तेरा यह कुलाङ्गनोचित शील इस तरह नष्ट हो गया है।” ।।

५८ से ५९.
“बालावस्था में जो तेरा शील था, उसे इस समय मैं विपरीत-सा देख रहा हूँ। तुझे किस बात का भय हो गया है जो इस प्रकार का वर माँग रही है? भरत राज्यसिंहासन पर बैठें और श्रीराम वन में रहें - यही तू माँग रही है। यह बड़ा असत्य तथा ओछा विचार है। तू अब भी इस से विरत हो जा।” ।।

६०.
“क्रूर स्वभाव और पाप पूर्ण विचार वाली नीच दुराचारिणि! यदि अपने पति का, सारे जगत का और भरत का भी प्रिय करना चाहती है तो इस दूषित संकल्प को त्याग दे।” ।।

श्लोक ६१ से ७० ।।

६१.
“तू मुझ में या श्रीराम में कौन-सा दुखदायक या अप्रिय बर्ताव देख रही है (कि ऐसा नीच कर्म करने पर उतारू हो गयी है); श्रीराम के बिना भरत किसी भी प्रकार राज्य लेना स्वीकार नहीं करेंगे।” ।।

६२.
“क्योंकि मेरी समझ में धर्म पालन की दृष्टि से भरत श्रीराम से भी बढ़े- चढ़े हैं। श्रीराम से यह कह देने पर कि तुम वन को जाओ; जब उन के मुख की कान्ति राहु ग्रस्त चन्द्रमा की भाँति फीकी पड़ जायगी, उस समय मैं कैसे उन के उस उदास मुख की ओर देख सकूँगा?” ।।

६३.
“मैंने श्रीराम के अभिषेक का निश्चय सुहृदों के साथ विचार कर के किया है, मेरी यह बुद्धि शुभ कर्म में प्रवृत्त हुई है; अब मैं इसे शत्रुओं द्वारा पराजित हुई सेना की भाँति पलटी हुई कैसे देखूँ गा?” ।।

६४.
“नाना दिशाओं से आये हुए राजा लोग मुझे लक्ष्य कर के खेद पूर्वक कहें गे कि इस मूढ इक्ष्वाकुवंशी राजा ने कैसे दीर्घ काल तक इस राज्य का पालन किया है?” ।।

६५ से ६६.
“जब बहुत-से बहुश्रुत गुणवान् एवम् वृद्ध पुरुष आ कर मुझ से पूछें गे कि श्रीराम कहाँ हैं? तब मैं उन से कैसे यह कहूँ गा कि कैकेयी के दबाव देने पर मैंने अपने बेटे को घर से निकाल दिया” ।।

६७.
“यदि कहूँ कि श्रीराम को वनवास दे कर मैंने सत्य का पालन किया है तो इस के पहले जो उन्हें राज्य देने की बात कह चुका हूँ, वह असत्य हो जाय गी। यदि राम वन को चले गये तो कौसल्या मुझे क्या कहे गी? उस का ऐसा महान् अपकार कर के मैं उसे क्या उत्तर दूँगा।” ।।

६८ से ६९.
“हाय! जिस का पुत्र मुझे सब से अधिक प्रिय है, वह प्रिय वचन बोलने वाली कौसल्या जब-जब दासी, सखी, पत्नी, बहिन और माता की भाँति मेरा प्रिय करने की इच्छा से मेरी सेवा में उपस्थित होती थी, तब-तब उस सत्कार पाने योग्य देवी का भी मैंने तेरे ही कारण कभी सत्कार नहीं किया।” ।।

७०.
“तेरे साथ जो मैंने इतना अच्छा बर्ताव किया, वह याद आ कर इस समय मुझे उसी प्रकार संताप दे रहा है, जैसे अपथ्य (हानिकारक) व्यञ्जनों से युक्त खाया हुआ अन्न किसी रोगी को कष्ट देता है।” ।।

श्लोक ७१ से ८० ।।

७१.
“श्रीराम के अभिषेक का निवारण और उन का वन की ओर प्रस्थान देख कर निश्चय ही सुमित्रा भयभीत हो जायगी, फिर वह कैसे मेरा विश्वास करेगी?” ।।

७२.
“हाय! बेचारी सीता को एक ही साथ दो दुखद एवम् अप्रिय समाचार सुनने पड़ेंगे- श्रीराम का वनवास और मेरी मृत्यु।” ।।

७३.
“जब वह श्रीराम के लिये शोक करने लगे गी, उस समय मेरे प्राणों का नाश कर डालेगी- उस का शोक देख कर मेरे प्राण इस शरीर में नहीं रह सकेंगे। उस की दशा हिमालय के पार्श्व भाग में अपने स्वामी किन्नर से बिछुड़ी हुई किन्नरी के समान हो जायगी।” ।।

७४ से ७५.
“मैं श्रीराम को विशाल वन में निवास करते और मिथिलेशकुमारी सीता को रोती देख अधिक काल तक जीवित रहना नहीं चाहता। ऐसी दशा में तू निश्चय ही विधवा हो कर बेटे के साथ अयोध्या का राज्य करना।” ॥

७६.
“ओह! मैं तुझे अत्यन्त सती- साध्वी समझता था, परंतु तू बड़ी दुष्टा निकली; ठीक उसी तरह जैसे कोई मनुष्य देखने में सुन्दर मदिरा को पी कर पीछे उस के द्वारा किये गये विकार से यह समझ पाता है कि इस में विष मिला हुआ था।” ।।

७७.
“अब तक जो तू सान्त्वना पूर्ण मीठे वचन बोल कर मुझे आश्वासन देती हुई बातें किया करती थी, वे तेरी कही हुइ सारी बातें झूठी थीं। जैसे व्याध हरिण को मधुर संगीत से आकृष्ट कर के उसे मार डालता है, उसी प्रकार तू भी पहले मुझे लुभा कर अब मेरे प्राण ले रही है।” ।।

७८.
“श्रेष्ठ पुरुष निश्चय ही मुझे नीच और एक नारी के मोह में पड़ कर बेटे को बेच देने वाला कह कर शराबी ब्राह्मण की भाँति मेरी राह बाट और गली-कूचों में निन्दा करें गे।” ।।

७९.
“अहो! कितना दुख है! कितना कष्ट है !! जहाँ मुझे तेरी ये बातें सहन करनी पड़ रही हैं। मानो यह मेरे पूर्व जन्म के किये हुए पाप का ही अशुभ फल है, जो मुझ पर ऐसा महान् दुख आ पड़ा है।”।।

८०.
“पापिनि! मुझ पापी ने बहुत दिनों से तेरी रक्षा की और अज्ञान वश तुझे गले लगाया; किंतु तू आज मेरे गले में पड़ी हुई फाँसी की रस्सी बन गयी है।”।।

श्लोक ८१ से ९० ।।

८१.
“जैसे बालक एकान्त में खेलता-खेलता काले नाग को हाथ में पकड़ ले, उसी प्रकार मैंने एकान्त में तेरे साथ क्रीड़ा करते हुए तेरा आलिङ्गन किया है; परंतु उस समय मुझे यह न सूझा कि तू ही एक दिन मेरी मृत्यु का कारण बनेगी।” ।।

८२.
“हाय! मुझ दुरात्मा ने जीते-जी ही अपने महात्मा पुत्र को पितृहीन बना दिया। मुझे यह सारा संसार निश्चय ही धिक्कारेगा – गालियाँ देगा, जो उचित ही होगा।” ।।

८३.
“लोग मेरी निन्दा करते हुए कहें गे कि राजा दशरथ बड़ा ही मूर्ख और कामी है, जो एक स्त्री को संतुष्ट करने के लिये अपने प्यारे पुत्र को वन में भेज रहा है।” ।।

८४.
“हाय! अब तक तो श्रीराम वेदों का अध्ययन करने, ब्रह्मचर्य व्रत का पालन करने तथा अनेकानेक गुरु जनों की सेवा में संलग्न रहने के कारण दुबले होते चले आये हैं। अब जब इन के लिये सुख भोग का समय आया है, तब ये वन में जा कर महान् कष्ट में पड़ें गे।” ।।

८५.
“अपने पुत्र श्रीराम से यदि मैं कह दूँ कि तुम वन को चले जाओ तो वे तुरंत “बहुत अच्छा” कह कर मेरी आज्ञा को स्वीकार कर लेंगे। मेरे पुत्र राम दूसरी कोई बात कह कर मुझे प्रतिकूल उत्तर नहीं दे सकते।” ॥

८६.
“यदि मेरे वन जाने की आज्ञा दे देने पर भी श्रीरामचन्द्र उस के विपरीत करते – वन में नहीं जाते तो वही मेरे लिये प्रिय कार्य होगा; किंतु मेरा बेटा ऐसा नहीं कर सकता।” ।।

८७.
“यदि रघुनन्दन राम वन को चले गये तो सब लोगों के धिक्कार पात्र बने हुए मुझ अक्षम्य अपराधी को मृत्यु अवश्य यमलोक में पहुँचा देगी।” ।।

८८.
“यदि नरश्रेष्ठ श्रीराम के वन में चले जाने पर मेरी मृत्यु हो गयी तो शेष जो मेरे प्रियजन (कौसल्या आदि) यहाँ रह जाएं गे, उन पर तू कौन-सा अत्याचार करेगी?” ।।

८९.
“देवी कौसल्या को यदि मुझ से, श्रीराम से तथा शेष दोनों पुत्र लक्ष्मण और शत्रुघ्न से विछोह हो जाय गा तो वह इतने बड़े दुख को सहन नहीं कर सकेगी अतः मेरे ही पीछे वह भी परलोक सिधार जायगी। (सुमित्रा का भी यही हाल होगा)” ।।

९०.
“कैकेय! इस प्रकार कौसल्या को, सुमित्रा को और तीनों पुत्रों के साथ मुझे भी नरक - तुल्य महान शोक में डाल कर तू स्वयम् सुखी होना।” ।।

श्लोक ९१ से १०० ।।

९१.
“अनेकानेक गुणों से सत्कृत, शाश्वत तथा क्षोभ रहित यह इक्ष्वाकु कुल जब मुझ से और श्रीराम से परित्यक्त हो कर शोक से व्याकुल हो जाय गा, तब उस अवस्था में तू इस का पालन करेगी।” ।।

९२.
“यदि भरत को भी श्रीराम का यह वन में भेजा जाना प्रिय लगता हो तो मेरी मृत्यु के बाद वे मेरे शरीर का दाह संस्कार न करें।” ।।

९३.
“पुरुषशिरोमणि श्रीराम के वन-गमन के पश्चात् मेरी मृत्यु हो जाने पर अब विधवा हो कर तू बेटे के साथ अयोध्या का राज्य करे गी।” ।।

९४.
“राजकुमारी! तू मेरे दुर्भाग्य से मेरे घर में आ कर बस गयी। तेरे कारण संसार में पापाचारी की भाँति मुझे निश्चय ही अनुपम अपयश, तिरस्कार और समस्त प्राणियों से अवहेलना प्राप्त होगी।” ।।

९५.
“मेरे पुत्र सामर्थ्य शाली राम बारंबार रथों, हाथियों और घोड़ों से यात्रा किया करते थे। वे ही अब उस विशाल वन में पैदल कैसे चलें गे?” ।।

९६ से ९७.
“भोजन के समय जिन के लिये कुण्डल धारी रसोइये प्रसन्न हो कर “पहले मैं बनाऊँगा” ऐसा कहते हुए खाने-पीने की वस्तुएँ तैयार करते थे, वे ही मेरे पुत्र रामचन्द्र वन में कसैले, तिक्त और कड़वे फलों का आहार करते हुए किस तरह निर्वाह करें गे।” ।।

९८.
“जो सदा बहुमूल्य वस्त्र पहना करते थे और जिन का चिर काल से सुख में ही समय बीता है, वे ही श्रीराम वन में गेरुए वस्त्र पहन कर कैसे रह सकेंगे?” ।।

९९.
“श्रीराम का वन गमन और भरत का अभिषेक — ऐसा कठोर वाक्य तूने किस की प्रेरणा से अपने मुँह से निकाला है?” ।।

१००.
“स्त्रियों को धिक्कार है; क्यों कि वे शठ और स्वार्थ परायण होती हैं; परंतु मैं सारी स्त्रियों के लिये ऐसा नहीं कह सकता, केवल भरत की माता की ही निन्दा करता हूँ।” ।।

श्लोक १०१ से ११० ।।

१०१.
“अनर्थ में ही अर्थ बुद्धि रखने वाली क्रूर कैकेयि! तू मुझे संताप देने के लिये ही इस घर में बसायी गयी है। अरी! मेरे कारण तू अपना कौन-सा अप्रिय होता देख रही है ? अथवा सब का निरन्तर हित करने वाले श्रीराम में ही तुझे कौन-सी बुराई दिखायी देती है?” ।।

१०२.
“श्रीराम को संकट के समुद्र में डूबा हुआ देख कर तो पिता अपने पुत्रों को त्याग देंगे। अनुरागिणी स्त्रियाँ भी अपने पतियों को त्याग देंगी। इस प्रकार यह सारा जगत् ही कुपित- विपरीत व्यवहार करने वाला हो जाय गा।” ।।

१०३.
“देवकुमार के समान कमनीय रूप वाले अपने पुत्र श्रीराम को जब वस्त्र और आभूषणों से विभूषित हो कर सामने आते देखता हूँ तो नेत्रों से उन की शोभा निहार कर निहाल हो जाता हूँ। उन्हें देख कर ऐसा जान पड़ता है मानो मैं फिर जवान हो गया हूं।” ।।

१०४.
“कदाचित् सूर्य के बिना भी संसार का काम चल जाय, वज्रधारी इन्द्र के वर्षा न करने पर भी प्राणियों का जीवन सुरक्षित रह जाय, परंतु राम को यहाँ से वन की ओर जाते देख कर कोई भी जीवित नहीं रह सकता- मेरी ऐसी धारणा है।” ।।

१०५.
“अरी! तू मेरा विनाश चाहने वाली, अहित करने वाली और शत्रु रूप है। जैसे कोई अपनी ही मृत्यु को घर में स्थान दे दे, उसी प्रकार मैंने तुझे घर में बसा लिया है। खेद की बात है कि मैंने मोह वश तुझ महाविषैली नागिन को चिर काल से अपने अमें धारण कर रखा है; इसी लिये आज मैं मारा गया।” ।।

१०६.
“मुझ से, श्रीराम और लक्ष्मण से हीन हो कर भरत समस्त बान्धवों का विनाश कर के तेरे साथ इस नगर तथा राष्ट्र का शासन करें तथा तू मेरे शत्रुओं का हर्ष बढ़ाने वाली ।हो” ।।

१०७.
“क्रूरता पूर्ण बर्ताव करने वाली कैकेयी! तू संकट में पड़े हुए पर प्रहार कर रही है। अरी! जब तू दुरा ग्रह पूर्वक आज ऐसी कठोर बातें मुँह से निकालती है, उस समय तेरे दाँतों के हजारों टुकड़े हो कर मुँह से नीचे क्यों नहीं गिर जाते ?” ।।

१०८.
“श्रीराम कभी भी किसी से कोई अहित कारक या अप्रिय वचन नहीं करते हैं। वे कटु वचन बोलना जानते ही नहीं हैं। उनका अपने गुणों के कारण सदा-सर्वदा सम्मान होता है। उन्हीं मनोहर वचन बोलने वाले श्रीराम में तू दोष कैसे बता रही है? क्योंकि वनवास उसी को दिया जाता है, जिस के बहुत से दोष सिद्ध हो चुके हों।” ।।

१०९.
“ओ केकय राज के कुल की जीती-जागती कलङ्क! तू चाहे ग्लानि में डूब जा अथवा आग में जल कर खाक हो जा या विष खा कर प्राण दे दे अथवा पृथ्वी में हजारों दरारें बना कर उसी में समा जा; परंतु मेरा अहित करने वाली तेरी यह अत्यन्त कठोर बात मैं कदापि नहीं मानूँ गा।” ।।

११०.
“तू छुरे के समान घात करने वाली है। बातें तो मीठी-मीठी करती है, परंतु वे सदा झूठी और सद्भा वना से रहित होती हैं। तेरे हृदय का भाव अत्यन्त दूषित है तथा तू अपने कुल का भी नाश करने वाली है। इतना ही नहीं, तू प्राणों सहित मेरे हृदय को भी जला कर भस्म कर डालना चाहती है; इसी लिये मेरे मन को नहीं भाती है। तुझ पापिनी का जीवित रहना मैं नहीं सह सकता।” ।।

श्लोक १११ से ११२ ।।

१११.
“देवि! अपने बेटे श्रीराम के बिना मेरा जीवन नहीं रह सकता, फिर कहाँ से सुख हो सकता है? आत्मज्ञ पुरुषों को भी अपने पुत्र से बिछोह हो जाने पर कैसे चैन मिल सकता है? अतः तू मेरा अहित न कर। मैं तेरे पैर छूता हूँ, तू मुझ पर प्रसन्न हो जा।” ।।

११२.
इस प्रकार महाराज दशरथ मर्यादा का उल्लङ्घन करने वाली उस हठीली स्त्री के वश में पड़ कर अनाथ की भाँति विलाप कर रहे थे। वे देवी कैकेयी के फैलाये हुए दोनों चरणों को छूना चाहते थे; परंतु उन्हें न पा कर बीच में ही मूर्च्छित हो कर गिर पड़े। ठीक उसी तरह, जैसे कोई रोगी किसी वस्तु को छूना चाहता है; किंतु दुर्बलता के कारण वहाँ तक न पहुँच कर बीच में ही अचेत हो कर गिर जाता है ॥

इस प्रकार श्रीवाल्मीकि निर्मित आर्षरामायण आदिकाव्य के अयोध्याकाण्ड में बारहवाँ सर्ग पूरा हुआ।।

Sarg 12 - Ayodhya Kaand - Valmiki Ramayana Translated in Hindi and made Screen Readable for Blind and Visually Impaired Individuals by Dr T K Bansal.