03. Valmiki Ramayana - Kishkindha Kaand - Sarg 03

ओम् श्री गणेशाय नमः ।।

ओम् श्री सीतारामचन्द्राभ्याम् नमः ।।

श्रीमद्वाल्मीकीय रामायण – किष्किन्धाकाण्ड ।।

तीसरा सर्ग ।।

सारांश ।।

हनुमान्जी का श्रीराम और लक्ष्मण से वन में आने का कारण पूछना और अपना तथा सुग्रीव का परिचय देना , श्रीराम का उन के वचनों की प्रशंसा कर के लक्ष्मण को अपनी ओर से बात करने की आज्ञा देना तथा लक्ष्मण द्वारा अपनी प्रार्थना स्वीकृत होने से हनुमान्जी का प्रसन्न होना ।।

आरम्भ ।।

श्लोक १ से १० ।।

१.
महात्मा सुग्रीव के कथन का तात्पर्य समझ कर हनुमान्जी ऋष्यमूक पर्वत से उस स्थान की ओर उछल्ते हुए चले, जहाँ वे दोनों रघुवंशी बन्धु विराजमान थे। ।

२.
पवनकुमार वानरवीर हनुमान ने यह सोच कर कि मेरे इस कपि रूप पर किसी का विश्वास नहीं जम सकता, अपने उस रूप का परित्याग कर के भिक्षु (सामान्य तपस्वी) का रूप धारण कर लिया। ।।

३ से ५.
तदनन्तर, हनुमान्जी ने विनीत भाव से उन दोनों रघुवंशी वीरों के पास जा कर उन्हें प्रणाम करके मन को अत्यन्त प्रिय लगने वाली मधुर वाणी में उन के साथ वार्तालाप आरम्भ किया। वानरशिरोमणि हनुमान्ने पहले तो उन दोनों वीरों की यथोचित प्रशंसा की। फिर विधिवत् उन का पूजन (आदर) कर के स्वच्छन्द रूप से मधुर वाणी में कहा, “ वीरो! आप दोनों सत्यपराक्रमी, राजर्षियों और देवताओं के समान प्रभावशाली, तपस्वी तथा कठोर व्रत का पालन करनेवाले जान पड़ते हों।”

६ से ८.
“आप के शरीर की कान्ति बड़ी सुन्दर है। आप दोनों इस वन्य प्रदेश में किस लिये आये हैं। वन में विचरने वाले मृग समूहों तथा अन्य जीवों को भी त्रास देते, पम्पा सरोवर के तट वर्ती वृक्षों को सभी ओर से देखते, और इस सुन्दर जल वाली नदी जैसि पम्पा को सुशोभित करते हुए आप दोनों वेगशाली वीर कौन हैं? आपके अङ्गों की कान्ति सुवर्ण के समान प्रकाशित हो रही है। आप दोनों बड़े धैर्यशाली दिखायी देते हैं। आप दोनों के अङ्गों पर चीर वस्त्र शोभा पाता है। आप दोनों लंबी साँसें खींच रहे हैं। आप की भुजाएँ विशाल हैं। आप अपने प्रभाव से इस वन के प्राणियों को पीड़ा दे रहे हैं। बताइये, आप का क्या परिचय है?” ।।

९.
“आप दोनों वीरों की दृष्टि सिंह के समान है। आप के बल और पराक्रम महान् हैं। इन्द्र के धनुष के समान महान् शरासन धारण कर के आप शत्रुओं को नष्ट करने की शक्ति रखते हैं।” ।।

१०.
“आप कान्तिमान तथा रूपवान् हैं। आप विशालकाय साँड़ के समान मन्द गति से चल रहे हैं। आप दोनों की भुजाएँ हाथी की सूँड़ के समान जान पड़ती हैं। आप मनुष्यों में श्रेष्ठ और परम तेजस्वी हैं।” ।।

श्लोक ११ से २० ।।

११.
“आप दोनों की प्रभा से गिरिराज ऋष्यमूक जगमगा रहा है। आपलोग देवताओं के समान पराक्रमी और राज्य भोगने के योग्य हैं। भला, इस दुर्गम वन प्रदेश में आप का आगमन कैसे सम्भव हुआ।” ।।

१२.
“आप के नेत्र प्रफुल्ल कमल दल के समान शोभा पा रहे हैं। आप में वीरता भरी है। आप दोनों अपने मस्तक पर जटामण्डल धारण करते हैं और दोनों ही एक दूसरे के समान हैं। वीरो! क्या आप देवलोक से यहाँ पधारे हैं?” ।।

१३.
“आप दोनों को देख कर ऐसा जान पड़ता है, मानो चन्द्रमा और सूर्य स्वेच्छा से ही इस भूतल पर उतर आये हैं। आप के वक्षः स्थल विशाल हैं। मनुष्य हो कर भी आप के रूप देवताओं के तुल्य हैं।” ।।

१४ से १५.
“आप के कंधे सिंह के समान हैं। आप में महान् उत्साह भरा हुआ है। आप दोनों मदमत्त साँड़ों के समान प्रतीत होते हैं। आप की भुजाएँ विशाल, सुन्दर, गोल गोल और परिघ के समान सुदृढ़ हैं। ये समस्त आभूषणों को धारण करने के योग्य हैं, तो भी आप ने इन्हें विभूषित क्यों नहीं किया है? मैं तो समझ्ता हूँ कि आप दोनों समुद्रों और वनों से युक्त तथा विन्ध्य और मेरु आदि पर्वतों से विभूषित इस सारी पृथ्वी की रक्षा करने के योग्य हैं।” ।।

१६.
“आपके ये दोनों धनुष विचित्र, चिकने तथा अद्भुत अनुलेपन से चित्रित हैं। इन्हें सुवर्न से विभूषित किया गया है; अतः ये इन्द्र के वज्र के समान प्रकाशित हो रहे हैं।” ।।

१७.
“प्राणों का अन्त कर देने वाले सर्पों के समान भयंकर तथा प्रकाशमान तीखे बाणों से भरे हुए आप दोनों के यह तूणीर बड़े सुन्दर दिखायी देते हैं।” ।।

१८.
“आपके ये दोनों खड्ग बहुत बड़े और विस्तृत हैं। इन्हें पक्के सोने से विभूषित किया गया है। ये दोनों केंचुल छोड़ कर निकले हुए सर्पों के समान शोभा पा रहे हैं।” ।।

१९ से २०.
“वीरो! इस तरह मैं बारम्बार आप का परिचय पूछ रहा हूँ, फिर भी आपलोग मुझे उत्तर क्यों नहीं दे रहे हैं? यहाँ सुग्रीव नामक एक श्रेष्ठ वानर रहते हैं, जो बड़े धर्मात्मा और वीर हैं। उनके भाइ वाली ने उन्हें घर से निकाल दिया है ; इस लिये वे अत्यन्त दुखी हो कर सारे जगत में मारे मारे फिरते हैं।” ।।

श्लोक २१ से ३० ।।

२१.
“उन्हीं वानरशिरोमणियों के राजा महात्मा सुग्रीव के भेजने से मैं यहाँ आया हूँ । मेरा नाम हनुमान् है । मैं भी वानर जाति का ही हूँ।” ।।

२२ से २३.
“धर्मात्मा सुग्रीव आप दोनों से मित्रता करना चाहते हैं । मुझे आपलोग उन्हीं का मन्त्री समझें । मैं वायुदेवता का वानर जातीय पुत्र हूँ । मेरी जहाँ इच्छा हो, जा सकता हूँ और जैसा चाहूँ, बैसा रूप धारण कर सकता हूँ । इस समय सुग्रीव का प्रिय करने के लिये भिक्षु के रूप में अपने को छिपा कर मैं ऋष्यमूक पर्वत से यहाँ पर आया हूँ” ।।

२४.
उन दोनों भाई वीरवर श्रीराम और लक्ष्मण से ऐसा कह कर बातचीत करने में कुशल तथा बात का मर्म समझने में निपुण हनुमान् चुप हो गये ; फिर कुछ न बोले। ।।

२५.
उनकी यह बात सुन कर श्रीरामचन्द्रजी का मुख प्रसन्नता से खिल उठा । वे अपने बगल में खड़े हुए छोटे भाई लक्ष्मण से इस प्रकार कहने लगे— ।।

२६.
“सुमित्रानन्दन! ये महा मनस्वी वानरराज सुग्रीव के सचिव हैं और उन्हीं के हित की इच्छा से यहाँ मेरे पास आये हैं।” ।।

२७.
“लक्ष्मण! इन शत्रु दमन सुग्रीव सचिव कपिवर हनुमान् से, जो बात के मर्म को समझने वाले हैं , तुम स्नेह पूर्वक मधुर वाणी में बातचीत करो” ।।

२८.
“जिसे ऋग्वेद की शिक्षा नहीं मिली, जिस ने यजुर्वेद का अभ्यास नहीं किया तथा जो सामवेद का विद्वान् नहीं है, वह इस प्रकार सुन्दर भाषा में वार्तालाप नहीं कर सकता!” ।।

२९.
“निश्चय ही इन्हों ने समूचे व्याकरण का कई बार स्वाध्याय किया है; क्योंकि बहुत सी बातें बोलजाने पर भी इनके मुँह से कोई अशुद्धि नहीं निकली।” ।।

३०.
“सम्भाषण के समय इन के मुख, नेत्र, ललाट, भौंह तथा अन्य सभी अङ्गों से भी कोई दोष प्रकट हुआ हो, ऐसा कहीं ज्ञात नहीं हुआ।” ।।

श्लोक ३१ से ३९ ।।

३१.
“इन्होंने थोड़े में ही बड़ी स्पष्टता के साथ अपना अभिप्राय निवेदन किया है । उसे समझने में कहीं कोई संदेह नहीं हुआ है । रुकरुककर अथवा शब्दों या अक्षरों को तोड़ मरोड़ कर किसी ऐसे वाक्य का उच्चारण नहीं किया है, जो सुनने में कर्णकटु हो । इनकी वाणी हृदय में मध्यमारूप से स्थित है और कण्ठ से बैखरीरूप में प्रकट होती है, अतः बोलते समय इन की आवाज न बहुत धीमी रही है न बहुत ऊँची । मध्यम स्वर में ही इन्हों ने सब बातें कही हैं।” ।।

३२.
“ये संस्कार और क्रमसेर सम्पन्न, अद्भुत, अविलम्बित तथा हृदय को आनन्द प्रदान करनेवाली कल्याणमयी वाणी का उच्चारण करते हैं।” ।।

३३.
“हृदय, कण्ठ और मूर्धा - इन तीनों स्थानों द्वारा स्पष्ट रूप से अभिव्यक्त होने वाली इन की इस विचित्र वाणी को सुन कर किसका चित्त प्रसन्न न होगा? वध करने के लिये तलवार उठाये हुए शत्रु का हृदय भी इस अद्भुत वाणी से बदल सकता है।” ।।

३४.
“निष्पाप लक्ष्मण! जिस राजा के पास इन के समान दूत न हो , उस के कार्यों की सिद्धि कैसे हो सकती है?” ॥

३५.
“जिस के कार्यसाधक दूत ऐसे उत्तम गुणों से युक्त हों, उस राजा के सभी मनोरथ दूतों की बातचीत से ही सिद्ध हो जाते हैं।” ।।

३६.
श्रीरामचन्द्रजी के ऐसा कहने पर बातचीत की कला जानने वाले सुमित्रानन्दन लक्ष्मण बात का मर्म समझने वाले पवनकुमार सुग्रीवसचिव कपिवर हनुमान्से इस प्रकार बोले – ।।

३७.
“विद्वन्! महामना सुग्रीव के गुण हमें ज्ञात हो चुके हैं । हम दोनों भाई वानर राज सुग्रीव की ही खोज में यहाँ आये हैं” ।।

३८.
“साधुशिरोमणि हनुमान्जी! आप सुग्रीव के कथनानुसार यहाँ आ कर जो मैत्री की बात चला रहे हैं , वह हमें स्वीकार है । हम आप के कहने से ऐसा कर सकते हैं।” ।।

३९.
लक्ष्मण के यह स्वीकृतिसूचक निपुणतायुक्त वचन सुन कर पवनकुमार कपिवर हनुमान् बड़े प्रसन्न हुए । उन्हों ने सुग्रीव की विजय सिद्धि में मन लगा कर उस समय उन दोनों भाइयों के साथ उन की मित्रता करने की इच्छा की। ।।

इस प्रकार श्रीवाल्मीकि निर्मित आर्षरामायण आदिकाव्य के किष्किन्धाकाण्ड में तीसरा सर्ग पूरा हुआ ॥॥

Sarg 3 - Kishkindha Kaand - Valmiki Ramayana Translated in Hindi and made Screen Readable for Blind and Visually Impaired Individuals by Dr T K Bansal.