01. Valmiki Ramayana - Kishkindha Kaand - Sarg 01
ओम् श्री गणेशाय नमः ।।
ओम् श्री सीतारामचन्द्राभ्याम् नमः ।।
श्रीमद्वाल्मीकीय रामायण – किष्किन्धाकाण्ड ।।
पहला सर्ग ।।
सारांश ।
पम्पा सरोवर के दर्शन से श्रीराम की व्याकुलता , श्रीराम का लक्ष्मण से पम्पा की शोभा तथा वहाँ की उद्दीपन सामग्री का वर्णन करना , लक्ष्मण का श्रीराम को समझाना तथा दोनों भाइयों को ऋष्यमूक की ओर आते देख सुग्रीव तथा अन्य वानरों का भयभीत होना। ।।
आरम्भ ।।
श्लोक १ से १० ।।
१.
कमल , उत्पल तथा मत्स्यों से भरी हुई उस पम्पा नामक पुष्करिणी के पास पहुँच कर सीता की सुधि आ जाने के कारण श्रीराम की इन्द्रियाँ शोक से व्याकुल हो उठीं। वे विलाप करने लगे। उस समय सुमित्राकुमार लक्ष्मण उन के साथ थे ।।
२.
वहाँ पम्पा पर दृष्टि पड़ते ही ( कमल - पुष्पों में सीता नेत्रमुख आदि का किञ्चित् सादृश्य पा कर ) हर्षोल्लास से श्रीराम की सारी इन्द्रियाँ चञ्चल हो उठीं । उन के मन में सीता के दर्शन की प्रबल इच्छा जाग उठी । उस इच्छा के अधीन से हो कर वे सुमित्राकुमार लक्ष्मण से इस प्रकार बोले— ।।
३.
“सुमित्रानन्दन! यह पम्पा कैसी शोभा पा रही है? इस का जल वैदूर्यमणि के समान स्वच्छ एवम् श्याम है। इस में बहुतसे पद्म और उत्पल खिले हुए हैं। तट पर उत्पन्न हुए नाना प्रकार के वृक्षों से इस की शोभा और भी बढ़ गयी है।” ।।
४.
“सुमित्राकुमार! देखो तो सही , पम्पा के किनारे का वन कितना सुन्दर दिखायी दे रहा है। यहाँ के ऊँचे ऊँचे वृक्ष अपनी फैली हुई शाखाओं के कारण अनेक शिखरों से युक्त पर्वतों के समान सुशोभित हो रहे हैं।” ।।
५.
“परंतु मैं इस समय भरत के दुख और सीता हरण की चिन्ता के शोक से संतप्त हो रहा हूँ। मानसिक वेदनाएँ मुझे बहुत कष्ट पहुँचा रही हैं।” ।।
६.
“यद्यपि मैं शोक से पीड़ित हूँ, तो भी मुझे यह पम्पा बड़ी सुहावनी लग रही है। इस के निकटवर्ती वन बड़े विचित्र दिखायी दे रहे हैं। यह नाना प्रकार के फूलों से व्याप्त है। इसका जल बहुत शीतल है और यह बहुत सुख दायिनी प्रतीत हो रही है।” ।।
७.
“कमलों से यह सारी पुष्करिणी ढकी हुई है। इस लिये बड़ी सुन्दर दिखायी दे रही है। इस के आस पास सर्प तथा हिंसक जन्तु विचर रहे हैं। मृग आदि पशु और पक्षी भी सब ओर छा रहे हैं।” ।।
८.
“नयी नयी घासों से ढका हुआ यह स्थान अपनी नीली पीली आभा के कारण अधिक शोभा पा रहा है। यहाँ वृक्षों के नाना प्रकार के पुष्प सब ओर बिखरे हुए हैं। इस से ऐसा जान पड़ता है, मानो यहाँ बहुतसे गलीचे बिछा दिये गये हों।” ।।
९.
“चारों ओर वृक्षों के अग्रभाग फूलों के भार से लदे होने के कारण समृद्धि शाली प्रतीत हो रहे हैं। ऊपर से खिली हुई लताएँ उनमें सब ओर से लिपटी हुई हैं।”
१०.
“सुमित्रानन्दन! इस समय मन्द मन्द सुखदायिनी हवा चल रही है, जिस से कामना का उद्दीपन हो रहा है (सीता को देखने की इच्छा प्रबल हो उठी है)। यह चैत्र का महीना है। वृक्षों में फूल और फल लग गये हैं और सब ओर मनोहर सुगन्ध छा रही है।” ।।
श्लोक ११ से २० ।।
११.
“लक्ष्मण! फूलों से सुशोभित होने वाले इन वनों के रूप तो देखो। ये उसी तरह फूलों की वर्षा कर रहे हैं जैसे मेघ जल की वृष्टि करते हैं।” ।।
१२.
“वन के ये विविध वृक्ष, वायु के वेग से, झूम झूम कर रमणीय शिलाओं पर फूल बरसा रहे हैं, और यहाँ की भूमि को ढक रहे हैं।” ।।
१३.
“सुमित्राकुमार! उधर तो देखो, जो वृक्षों से झड़ गये हैं, झड़ रहे हैं, तथा जो अभी डालियों में ही लगे हुए हैं, उन सभी फूलों के साथ सब ओर वायु खेलसा कर रही है।” ।।
१४.
“फूलों से भरी हुइ वृक्षों की विभिन्न शाखाओं को झकझोरती हुई वायु जब आगे को बढ़ती है, तब अपने अपने स्थान से विचलित हुए भ्रमर मानो उस का यशोगान करते हुए उसके पीछे पीछे चलने लगते हैं।” ।।
१५.
“पर्वत की कन्दराओं से विशेष ध्वनि के साथ निकली हुई वायु मानो उच्च स्वर से गीत गा रही है। मतवाले कोकिलों के कलनाद वाद्य का काम देते हैं, और उन वाद्यों की ध्वनि के साथ वह वायु इन झूमते हुए वृक्षों को मानो नृत्य की शिक्षा सी दे रही है।” ।।
१६.
“वायु के वेग पूर्वक हिलाने से जिन की शाखाओं के अग्र भाग सब ओर से परस्पर सट गये हैं, वे वृक्ष एक दूसरे से गुँथे हुए की भाँति जान पड़ते हैं।” ।।
१७.
“मलय चन्दन का स्पर्श करके बहने वाली यह शीतल वायु शरीर से छू जाने पर कितनी सुखद जान पड़ती है। यह थकावट दूर करती हुइ बह रही है, और सर्वत्र पवित्र सुगन्ध फैला रही है।” ।।
१८.
“मधुर मकरन्द और सुगन्ध से भरे हुए इन वनों में गुनगुनाते हुए भ्रमरों के व्याज से ये वायु द्वारा हिलाये गये वृक्ष मानो नृत्य के साथ गान भी कर रहे हैं।” ।।
१९.
“अपने रमणीय पृष्ठ भागों पर उत्पन्न हुए फूलों से सम्पन्न तथा मन को लुभाने वाले विशाल वृक्षों से सटे हुए शिखर वाले पर्वत अद्भुत शोभा पा रहे हैं।” ।।
२०.
“जिन की शाखाओं के अग्र भाग फूलों से ढके हैं, जो वायु के झोंके से हिल रहे हैं, तथा भ्रमरों को पगड़ी के रूप में सिर पर धारण किये हुए हैं, वे वृक्ष ऐसे जान पड़ते हैं मानो इन्हों ने नाचना गाना आरम्भ कर दिया है।” ।।
श्लोक २१ से ३० ।।
२१.
“देखो! सब ओर सुन्दर फूलों से भरे हुए ये कनेर सोने के आभूषणों से विभूषित पीताम्बर धारी मनुष्यों के समान शोभा पा रहे हैं।” ।।
२२.
“सुमित्रानन्दन! नाना प्रकार के विहङ्गमों के कलरवों से गूँजता हुआ यह वसन्त का समय सीता से बिछुड़े हुए मेरे लिये शोक को बढ़ाने वाला हो गया है।” ।।
२३.
“वियोग के शोक से तो मैं पीड़ित हूँ ही, यह कामदेव (सीता - विषयक अनुराग) मुझे और भी संताप दे रहा है । कोकिल बड़े हर्ष के साथ कलनाद करता हुआ मानो मुझे ललकार रहा है।” ।।
२४.
“लक्ष्मण! वन के रमणीय झरने के निकट बड़े हर्ष के साथ बोलता हुआ यह जल कुक्कुट सीता से मिलने की इच्छा वाले मुझ राम को शोक मग्न किये देता है।” ।।
२५.
“पहले मेरी प्रिया जब आश्रम में रहती थी, उन दिनों इस का शब्द सुन कर आनन्द मग्न हो जाती थी और मुझे भी निकट बुला कर अत्यन्त आनन्दित कर देती थी।” ।।
२६.
“देखो, इस प्रकार भाँति – भाँति की बोली बोलने वाले विचित्र पक्षी चारों ओर वृक्षों, झारियों और लताओं की ओर उड़ रहे हैं।” ।।
२७.
“सुमित्रानन्दन! देखो , ये पक्षिणियाँ नर पक्षियों से संयुक्त हो अपने झुंड में आनन्द का अनुभव कर रही हैं, भौंरों का गुञ्जारव सुन कर प्रसन्न हो रही हैं और स्वयम् भी मीठी बोली बोल रही हैं।” ।।
२८.
“इस पम्पा के तट पर यहाँ झुंड के झुंड पक्षी आनन्द मग्न हो कर चहक रहे हैं । जल कुक्कुटों के रति सम्बन्धी कूजन तथा नर कोकिलों के कलनाद के व्याज से मानो ये वृक्ष ही मधुर बोली बोलते हैं और मेरी अनङ्ग वेदना को उद्दीप्त कर रहे हैं।” ।।
२९.
“जान पड़ता है, यह वसन्त रूपी आग मुझे जला कर भस्म कर देगी । अशोक पुष्प के लाल- लाल गुच्छे ही इस अग्नि के अङ्गार हैं, नूतन पल्लव ही इस की लाल - लाल लपटें हैं तथा भ्रमरों का गुञ्जारव ही इस जलती आग का ' चट - चट ' शब्द है।” ।।
३०.
“सुमित्रानन्दन! यदि मैं सूक्ष्म बरौनियों और सुन्दर केशों वाली मधुर भाषिणी सीता को ना देख सका तो मुझे इस जीवन से कोई प्रयोजन नहीं है।” ।।
श्लोक ३१ से ४० ।।
३१.
“निष्पाप लक्ष्मण! वसन्त ऋतु में वन की शोभा बड़ी मनोहर हो जाती है, इस की सीमा में सब ओर कोयल की मधुर कूक सुनायी पड़ती है । मेरी प्रिया सीता को यह समय बड़ा ही प्रिय लगता था।” ।।
३२.
“अनङ्ग वेदना से उत्पन्न हुई शोकाग्नि वसन्त ऋतु के गुणों का* इंधन पा कर बढ़ गयी है; जान पड़ता है, यह मुझे शीघ्र ही अविलम्ब जला देगी।” ।।
३३.
“अपनी उस प्रियतमा पत्नी को मैं नहीं देख पाता हूँ और इन मनोहर वृक्षों को देख रहा हूँ, इसलिये मेरा यह अनङ्ग ज्वर अब और बढ़ जाय गा।” ।।
३४.
“विदेहनन्दिनी सीता यहाँ मुझे नहीं दिखायी दे रही है, इसलिये मेरा शोक बढ़ाती है तथा मन्द मलया निलके द्वारा स्वेदसंसर्गका निवारण करनेवाला यह वसन्त भी मेरे शोक की वृद्धि कर रहा है।“ ।।
३५.
“सुमित्राकुमार! मृगनयनी सीता चिन्ता और शोक से बल पूर्वक पीडित किये गये मुझ राम को और भी संताप दे रही है । साथ ही यह वन में बहने वाली चैत्र मास की वायु भी मुझे पीड़ा दे रही है।”।।
३६.
“ये मोर स्फटिक मणि के बने हुए गवाक्षों (झरोखों) के समान प्रतीत होने वाले अपने फैले हुए पंखों से, जो वायु से कम्पित हो रहे हैं, इधर - उधर नाचते हुए कैसी शोभा पा रहे हैं?” ।।
३७.
“मयूरियों से घिरे हुए ये मदमत्त मयूर अनङ्ग वेदना से संतप्त हुए मेरी इस काम पीड़ा को और भी बढ़ा रहे हैं।” ।।
३८.
“लक्ष्मण! वह देखो, पर्वत शिखर पर नाचते हुए अपने स्वामी मयूर के साथ-साथ वह मोरनी भी काम पीड़ित हो कर नाच रही है।” ।।
३९.
“मयूर भी अपने दोनों सुन्दर पंखों को फैला कर मन-ही-मन अपनी उसी रामा (प्रिया) का अनुसरण कर रहा है तथा अपने मधुर स्वरों से मेरा उपहास करता सा जान पड़ता है।” ।।
४०.
“निश्चय ही वन में किसी राक्षस ने मोर की प्रिया का अपहरण नहीं किया है, इसी लिये यह रमणीय वनों में अपनी वल्लभा के साथ नृत्य कर रहा है।” ।।
श्लोक ४१ से ५० ।।
४१ से ४२.
“फूलों से भरे हुए इस चैत्र मास में सीता के बिना यहाँ निवास करना मेरे लिये अत्यन्त दुसह है। लक्ष्मण! देखो तो सही, तिर्यग्योनि में पड़े हुए प्राणियों में भी परस्पर कितना अधिक अनुराग है। इस समय यह मोरनी काम भाव से अपने स्वामी के सामने उपस्थित हुइ है।” ।।
४३.
“यदि विशाल नेत्रों वाली सीता का अपहरण न हुआ होता तो वह भी इसी प्रकार बड़े प्रेम से वेग पूर्वक मेरे पास आती।” ।।
४४.
“लक्ष्मण! इस वसन्त ऋतु में फूलों के भार से सम्पन्न हुए इन वनों के ये सारे फूल मेरे लिये निष्फल हो रहे हैं। प्रिया सीता के यहाँ न होने से इन का मेरे लिये कोइ प्रयोजन नहीं रह गया है।” ।।
४५.
“अत्यन्त शोभा से मनोहर प्रतीत होने वाले ये वृक्षों के फूल भी निष्फल हो कर भ्रमर समूहों के साथ ही पृथ्वी पर गिर जाते हैं।” ।।
४६.
“हर्षमें भरे हुए ये झुंड के झुंड पक्षी एक दूसरे को बुलाते हुए-से इच्छानुसार कलरव कर रहे हैं और मेरे मन में प्रेमोन्माद उत्पन्न किये देते हैं।” ।।
४७.
“जहाँ मेरी प्रिया सीता निवास करती है, वहाँ भी यदि इसी तरह वसन्त छा रहा हो तो उस की क्या दशा होगी? निश्चय ही वहाँ पराधीन हुइ सीता मेरी ही तरह शोक कर रही होगी।” ।।
४८.
“अवश्य ही जहाँ सीता है, उस एकान्त स्थान में वसन्त का प्रवेश नहीं है तो भी मेरे बिना वह कजरारे नेत्रों वाली कमल नयनी सीता कैसे जीवित रह सकेगी?” ।।
४९.
“अथवा सम्भव है जहाँ मेरी प्रिया है वहाँ भी इसी तरह वसन्त छा रहा हो, परंतु उसे तो शत्रुओं की डांट फटकार सुननी पड़ती होगी; अतः वह बेचारी सुन्दर सीता क्या कर सकेगी।” ।।
५०.
“जिसकी अभी नयी-नयी अवस्था है और प्रफुल्ल कमल दल के समान मनोहर नेत्र हैं, वह मीठी बोली बोलने वाली मेरी प्राण वल्लभा जानकी निश्चय ही इस वसन्त ऋतु को पा कर अपने प्राण त्याग देगी।” ।।
श्लोक ५१ से ६० ।।
५१.
“मेरे हृदय में यह विचार दृढ़ होता जा रहा है कि साध्वी सीता मुझ से अलग हो कर अधिक काल तक जीवित नहीं रह सकती।” ।।
५२.
“वास्तव में विदेहकुमारी का हार्दिक अनुराग मुझ में और मेरा सम्पूर्ण प्रेम सर्वथा विदेहनन्दिनी सीता में ही प्रतिष्ठित है।” ।।
५३.
“फूलों की सुगन्ध ले कर बहने वाली यह शीतल वायु, जिस का स्पर्श बहुत ही सुखद है, प्राण वल्लभा सीता की याद आने पर मुझे आग की भाँति तपाने लगती है।” ।।
५४.
“पहले जानकी के साथ रहने पर जो मुझे सदा सुखद जान पड़ती थी, वही वायु आज सीता के विरह में मेरे लिये शोक जनक हो गयी है।” ।।
५५.
“जब सीता मेरे साथ थी उन दिनों जो पक्षी कौआ आकाश में जा कर काँव-काँव करता था, वह उसके भावी वियोग को सूचित करने वाला था। अब सीता के वियोग काल में वह कौआ वृक्ष पर बैठ कर बड़े हर्ष के साथ अपनी बोली बोल रहा है (इससे सूचित हो रहा है कि सीता का संयोग शीघ्र ही सुलभ होगा)।” ।।
५६.
“यही वह पक्षी है, जो आकाश में स्थित हो कर बोलने पर वैदेही के अपहरण का सूचक हुआ; किंतु आज यह जैसी बोली बोल रहा है, उस से जान पड़ता है कि यह मुझे विशाल लोचना सीता के समीप ले जायगा।” ।।
५७.
“लक्ष्मण! देखो, जिन की ऊपरी डालियाँ फूलों से लदी हैं, वन में उन वृक्षों पर कलरव करने वाले पक्षियों का यह मधुर शब्द विरही जनों के मदनोन्माद को बढ़ाने वाला है।” ।।
५८.
“वायु के द्वारा हिलायी जाती हुई उस तिलक वृक्ष की मंजरी पर भ्रमर सहसा जा बैठा है। मानो कोई प्रेमी काम मद से कम्पित हुइ प्रेयसी से मिल रहा हो।” ।।
५९.
“यह अशोक प्रिया विरही कामी पुरुषों के लिये अत्यन्त शोक बढ़ाने वाला है। यह वायु के झोंके से कम्पित हुए पुष्प गुच्छों द्वारा मुझे डाँट बताता हुआ सा खड़ा है” ।।
६०.
“लक्ष्मण! ये मञ्जरियों से सुशोभित होने वाले आम के वृक्ष श्रृङ्गार-विलास से मदमत हृदय हो कर चन्दन आदि अङ्गराग धारण करने वाले मनुष्यों के समान दिखायी दे रहे हैं।” ।।
श्लोक ६१ से ७० ।।
६१.
“नरश्रेष्ठ सुमित्राकुमार! देखो, पम्पा की विचित्र वन श्रेणियों में इधर उधर किन्नर विचर रहे हैं।” ।।
६२.
“लक्ष्मण! देखो, पम्पा के जल में सब ओर खिले हुए ये सुगन्धित कमल प्रातःकाल के सूर्य की भाँति प्रकाशित हो रहे हैं।” ।।
६३.
“पम्पा का जल बड़ा ही स्वच्छ है। इस में लाल कमल और नीले कमल खिले हुए हैं। हंस और कारण्डव आदि पक्षी सब ओर फैले हुए हैं तथा सौगन्धिक कमल इस की शोभा बढ़ा रहे हैं।” ।।
६४.
“जल में प्रातःकाल के सूर्य की भाँति प्रकाशित होने वाले कमलों के द्वारा सब ओर से घिरी हुइ पम्पा बड़ी शोभा पा रही है। उन कमलों के केसरों को भ्रमरों ने चूस लिया है।” ।।
६५.
“इस में चक्रवाक सदा निवास करते हैं। यहाँ के वनों में विचित्र विचित्र स्थान हैं तथा पानी पीने के लिये आये हुए हाथियों और मृगों के समूहों से इस पम्पा की शोभा और भी बढ़ जाती है।” ।।
६६.
“लक्ष्मण! वायु के थपेड़े से जिन में वेग पैदा होता है, उन लहरों से ताड़ित होने वाले कमल पम्पा के निर्मल जल में बड़ी शोभा पाते हैं।” ।।
६७.
“प्रफुल्ल कमल दल के समान विशाल नेत्रों वाली विदेह राजकुमारी सीता को कमल सदा ही प्रिय रहे हैं। उसे न देखने के कारण मुझे जीवित रहना अच्छा नहीं लग रहा है।” ।।
६८.
“अहो! काम कितना कुटिल है, जो अन्यत्र गयी हुइ एवम् परम दुर्लभ होने पर भी कल्याणमयि वचन बोलने वाली उस कल्याण स्वरूपा सीता का बारंबार स्मरण दिला रहा है।” ।।
६९.
“यदि खिले हुए वृक्षों वाला यह वसन्त मुझ पर पुनः प्रहार न करे तो प्राप्त हुइ काम वेदना को मैं किसी तरह मन में ही रोके रह सकता हूँ।” ।।
७०.
“सीता के साथ रहने पर जो जो वस्तुएँ मुझे रमणीय प्रतीत होती थीं, वे ही आज उस के बिना असुन्दर जान पड़ती हैं।” ।।
श्लोक ७१ से ८० ।।
७१.
“लक्ष्मण! ये कमल कोशों के दल सीता के नेत्र कोशों के समान हैं । इस लिये मेरी आँखें इन्हें ही देखना चाहती हैं।” ।।
७२.
“कमल केसरों का स्पर्श कर के दूसरे वृक्षों के बीच से निकली हुई यह सौरभ युक्त मनोहर वायु सीता के श्वास की भाँति चल रही है।” ।।
७३.
“सुमित्रानन्दन! वह देखो , पम्पा के दक्षिण भाग में पर्वत शिखरों पर खिली हुई कनेर की डाल कितनी अधिक शोभा पा रही है।” ।।
७४.
“विभिन्न धातुओं से विभूषित हुआ यह पर्वतराज ऋष्यमूक वायु के वेग से लायी हुई विचित्र धूलि की सृष्टि कर रहा है।” ।।
७५.
“सुमित्राकुमार! चारों ओर खिले हुए और सब ओर से रमणीय प्रतीत होने वाले पत्र हीन पलाश के वृक्षों से उपलक्षित इस पर्वत के पृष्ठ भाग आग में जलते हुए से जान पड़ते हैं।” ।।
७६.
“पम्पा के तट पर उत्पन्न हुए ये वृक्ष इसी के जलसे अभिषिक्त हो बढ़े हैं और मधुर मकरन्द एवम् गन्ध से सम्पन्न हुए हैं । इन के नाम इस प्रकार हैं— मालती, मल्लिका, पद्म और करवीर । ये सब के सब फूलों से सुशोभित हैं।” ।।
७७.
“केतकी (केवड़े), सिन्दुवार तथा वासन्ती लताएँ भी सुन्दर फूलों से भरी हुई हैं! गन्धभरी माधवी लता तथा कुन्द – कुसुमों की झाड़ियाँ सब ओर शोभा पा रही हैं।” ।।
७८.
“चिरिबिल्व (चिलबिल), महुआ, बेंत, मौलसिरी, चम्पा, तिलक और नागकेसर भी खिले दिखायी देते हैं।” ।।
७९.
“पर्वत के पृष्ठ भागों पर पद्मक और खिले हुए नील अशोक भी शोभा पा रहे हैं । वहीं सिंह के अयाल की भाँति पिङ्गल वर्ण वाले लोध्र भी सुशोभित हो रहे हैं।” ।।
८०.
“अङ्कोल, कुरंट, चूर्णक (सेमल), पारिभद्रक (नीम या मदार), आम, पाटलि, कोविदार, मुचुकुन्द (नारङ्ग) और अर्जुन नामक वृक्ष भी पर्वत शिखरों पर फूलों से लदे दिखायी देते हैं।” ।।
श्लोक ८१ से ९० ।।
८१ से ८२.
“केतक, उद्दालक (लसोड़ा), शिरीष, शीशम, धव, सेमल, पलाश, लाल कुरबक, तिनिश, नक्तमाल, चन्दन, स्यन्दन, हिन्ताल, तिलक तथा नागकेसर के पेड़ भी फूलों से भरे दिखायी देते हैं।” ।।
८३.
“सुमित्रानन्दन! जिन के अग्र भाग फूलों से भरे हुए हैं, उन लता – वल्लरियों से लिपटे हुए पम्पा के इन मनोहर और बहुसंख्यक वृक्षों को तो देखो! वे सब के सब यहाँ फूलों के भार से लदे हुए हैं।” ।।
८४.
“हवा के झोंके खा कर जिन की डालें हिल रही हैं, वे ये वृक्ष झुक कर इतने निकट आ गए हैं कि हाथ से इन की डालियों का स्पर्श किया जा सके । सलोनी लताएँ मदमत्त सुन्दरियों की भाँति इन का अनुसरण करती हैं।” ।।
८५.
“एक वृक्ष से दूसरे वृक्ष पर, एक पर्वत से दूसरे पर्वत पर तथा एक वन से दूसरे वन में जाती हुई वायु अनेक रसों के आस्वादन से आनन्दित सी होकर बह रही है।” ।।
८६.
“कुछ वृक्ष प्रचुर पुष्पों से भरे हुए हैं और मधु एवम् सुगन्ध से सम्पन्न हैं । कुछ मुकुलों से आवेष्टित हो श्यामवर्ण - से प्रतीत हो रहे हैं।” ।।
८७.
“वह भ्रमर राग से रँगा हुआ है और “यह मधुर है, यह स्वादिष्ट है तथा यह अधिक खिला हुआ है” इत्यादि बातें सोचता हुआ फूलों में ही लीन हो रहा है।” ।।
८८.
“पुष्पों में छिप कर फिर ऊपर को उड़ जाता है और सहसा अन्यत्र चल देता है । इस प्रकार मधु का लोभी भ्रमर पम्पा तीरवर्ती वृक्षों पर विचर रहा है।” ।।
८९.
“स्वयम् झड़ कर गिरे हुए पुष्प समूहों से आच्छादित हुई यह भूमि ऐसी सुखदायिनी हो गयी है, मानो इस पर शयन करने के लिये मुलायम बिछौने बिछा दिये गये हों।” ।।
९०.
“सुमित्रानन्दन! पर्वत के शिखरों पर जो नाना प्रकार की विशाल शिलाएँ हैं , उन पर झड़े हुए भाँति भाँति के फूलों ने उन्हें लाल - पीले रंग की शय्याओं के समान बना दिया है।” ।।
श्लोक ९१ से १०० ।।
९१.
“सुमित्राकुमार! वसन्त ऋतु में वृक्षों के फूलों का यह वैभव तो देखो! इस चैत्र मास में ये वृक्ष मानो परस्पर होड़ लगा कर फूले हुए हैं।” ।।
९२.
“लक्ष्मण! वृक्ष अपनी ऊपरी डालियों पर फूलों का मुकुट धारण कर के बड़ी शोभा पा रहे हैं तथा वे भ्रमरों के गुञ्जारव से इस तरह कोलाहल पूर्ण हो रहे हैं , मानो एक दूसरे का आह्वान कर रहे हों।” ।।
९३.
“यह कारण्डव पक्षी पम्पा के स्वच्छ जल में प्रवेश कर के अपनी प्रियतमा के साथ रमण करता हुआ काम का उद्दीपन सा कर रहा है।” ।।
९४.
“मन्दाकिनी के समान प्रतीत होने वाली इस पम्पा का जब ऐसा मनोरम रूप है, तब संसार में उस के जो मनोरम गुण विख्यात हैं, वे उचित ही हैं।” ।।
९५.
“रघुश्रेष्ठ लक्ष्मण! यदि साध्वी सीता दिख जाय और यदि उस के साथ हम यहाँ निवास करने लगें तो हमें न इन्द्रलोक में जाने की इच्छा होगी और न अयोध्या में लौटने की ही।” ।।
९६.
“हरी हरी घासों से सुशोभित ऐसे रमणीय प्रदेशों में सीता के साथ सानन्द विचरने का अवसर मिले तो मुझे (अयोध्या का राज्य न मिलने के कारण) कोई चिन्ता नहीं होगी और न दूसरे ही दिव्य भोगों की अभिलाषा हो सकेगी।” ।।
९७.
“इस वन में भाँति भाँति के पल्लवों से सुशोभित और नाना प्रकार के फूलों से उपलक्षित ये वृक्ष प्राण - वल्लभा सीता के बिना मेरे मन में चिन्ता उत्पन्न कर रहे हैं।” ।
९८.
“सुमित्राकुमार! देखो , इस पम्पा का जल कितना शीतल है । इस में असंख्य कमल खिले हुए हैं । चकवे विचर्ते हैं और कारण्डव निवास करते हैं। इतना ही नहीं, जल कुक्कुट तथा क्रौञ्च भरे हुए हैं एवम् बड़े बड़े मृग इस का सेवन कर रहे हैं।” ।।
९९ से १००.
“चहक्ते हुए पक्षियों से इस पम्पा की बड़ी शोभा हो रही है । आनन्द में निमग्न हुए ये नाना प्रकार के पक्षी मेरे सीता विषयक अनुराग को उद्दीप्त कर रहे हैं; क्योंकि इन की बोली सुन कर मुझे नूतन अवस्था वाली कमल नयनी चन्द्रमुखी प्रियतमा सीता का स्मरण हो आता है।” ।।
श्लोक १०१ से ११० ।।
१०१.
“लक्ष्मण! देखो , पर्वत के विचित्र शिखरों पर ये हरिण अपनी हरिणियों के साथ विचर रहे हैं और मैं मृगनयनी सीता से बिछुड़ गया हूँ। इधर उधर विचरते हुए ये मृग मेरे चित्त को व्यथित किये देते हैं।” ।।
१०२.
“मतवाले पक्षियों से भरे हुए इस पर्वत के रमणीय शिखर पर यदि प्राण वल्लभा सीता का दर्शन पा सकूँ तभी मेरा कल्याण होगा।” ।।
१०३.
“सुमित्रानन्दन! यदि सुमध्यमा सीता मेरे साथ रह कर इस पम्पा सरोवर के तट पर सुखद समीर का सेवन कर सके तो मैं निश्चय ही जीवित रह सकता हूँ।” ।।
१०४.
“लक्ष्मण! जो लोग अपनी प्रियतमा के साथ रह कर पद्म और सौगन्धिक कमलों की सुगन्ध ले कर बहने वाली शीतल, मन्द एवम् शोक नाशन पम्पा वन की वायु का सेवन करते हैं, वे धन्य हैं।” ।।
१०५.
“हाय! वह नयी अवस्था वाली कमललोचना जनकनन्दिनी प्रिया सीता मुझ से बिछुड़ कर बेबसी की दशा में अपने प्राणों को कैसे धारण करती होगी।” ।।
१०६.
“लक्ष्मण! धर्म के जानने वाले सत्यवादी राजा जनक जब जनसमुदाय में बैठ कर मुझ से सीता का कुशल - समाचार पूछें गे, उस समय मैं उन्हें क्या उत्तर दूँगा?” ।।
१०७.
“हाय! पिता के द्वारा वन में भेजे जाने पर जो धर्म का आश्रय ले मेरे पीछे - पीछे यहाँ चली आयी, वह मेरी प्रिया इस समय कहाँ है ?” ।।
१०८.
“लक्ष्मण! जिस ने राज्य से वञ्चित और हताश हो जाने पर भी मेरा साथ नहीं छोड़ा — मेरा ही अनुसरण किया, उस के बिना अत्यन्त दीन हो कर मैं कैसे जीवन धारण करूँगा।” ।।
१०९.
“जो कमल दल के समान सुन्दर, मनोहर एवम् प्रशंसनीय नेत्रों से सुशोभित है, जिस से मीठी- मीठी सुगन्ध निकल्ती रहती है, जो निर्मल तथा चेचक आदि के चिह्नों से रहित है, जनक किशोरी के उस दर्शनीय मुख को देखे बिना मेरी सुध बुध खोयी जा रही है।” ।।
११०.
“लक्ष्मण! वैदेही के द्वारा कभी हँस कर और कभी मुसकरा कर कही हुई वे मधुर, हितकर एवम् लाभदायक बातें जिन की कहीं तुलना नहीं है, मुझे अब कब सुनने को मिलेंगी?” ।।
श्लोक १११ से १२० ।।
१११.
“सोलह वर्ष की सी अवस्था वाली साध्वी सीता यद्यपि वन में आ कर कष्ट उठा रही थी, तथापि जब मुझे अनङ्ग वेदना या मानसिक कष्ट से पीड़ित देखती, तब मानो उस का अपना सारा दुख नष्ट हो गया हो, इस प्रकार प्रसन्न - सी हो कर मेरी पीड़ा दूर करने के लिये अच्छी अच्छी बातें करने लगती थी।” ।।
११२.
“राजकुमार! अयोध्या में चलने पर जब मनस्विनी माता कौसल्या पूछें गी कि “मेरी बहूरानी कहाँ है?” तो मैं उन्हें क्या उत्तर दूँगा?” ।।
११३ से ११४
“लक्ष्मण! तुम जाओ , भ्रातृ वत्सल भरत से मिलो । मैं तो जनकनन्दिनी सीता के बिना जीवित नहीं रह सकता।” इस प्रकार महात्मा श्रीराम को अनाथ की भाँति विलाप करते देख भाई लक्ष्मण ने युक्तियुक्त एवम् निर्दोष वाणी में कहा – ।।
११५.
“पुरुषोत्तम श्रीराम! आप का भला हो । आप अपने को सँभालिये । शोक न कीजिये । आप जैसे पुण्यात्मा पुरुषों की बुद्धि उत्साह शून्य नहीं होती।” ।।
११६.
“स्वजनों के अवश्यम्भावी वियोग का दुख सभी को सहना पड़ता है, इस बात को स्मरण कर के अपने प्रियजनों के प्रति अधिक स्नेह (आसक्ति) को त्याग दीजिये; क्योंकि जल आदि से भीगी हुई बत्ती भी अधिक स्नेह (तेल) में डुबो दी जाने पर जलने लगती है।” ।।
११७.
“तात रघुनन्दन! यदि रावण पाताल में या उस से भी अधिक दूर चला जाय तो भी वह अब किसी तरह जीवित नहीं रह सकता।” ।।
११८.
“पहले उस पापी राक्षस का पता लगाइये। फिर या तो वह सीता को वापस करे गा या अपने प्राणों से हाथ धो बैठे गा।” ।।
११९.
“रावण यदि सीता को साथ ले कर दिति के गर्भ में जा कर छिप जाय तो भी यदि मिथिलेशकुमारी को लौटा न देगा तो मैं वहाँ भी उसे मार डालूँ गा।” ।।
१२०.
“अतः आर्य! आप कल्याण कारी धैर्य को अपनाइये। वह दीनता पूर्ण विचार त्याग दीजिये। जिन का प्रयत्न और धन नष्ट हो गया है, वे पुरुष यदि उत्साह पूर्वक उद्योग न करें तो उन्हें उस अभीष्ट अर्थ की प्राप्ति नहीं हो सकती।” ।।
श्लोक १२१ से १३० ।।
१२१.
“भैया! उत्साह ही बलवान् होता है। उत्साह से बढ़ कर दूसरा कोई बल नहीं है। उत्साही पुरुष के लिये संसार में कोइ भी वस्तु दुर्लभ नहीं है।” ।।
१२२.
“जिन के हृदय में उत्साह होता है वे पुरुष कठिन से कठिन कार्य आ पड़ने पर साहस नहीं छोड़ते। हमलोग केवल उत्साह का आश्रय ले कर ही जनक नन्दिनी को प्राप्त कर सकते हैं।” ।।
१२३.
“शोक को पीछे छोड़ कर कामीके से व्यवहार का त्याग कीजिये। आप महात्मा एवम् कृतात्मा (पवित्र अन्तःकरणवाले) हैं, किंतु इस समय अपने आप को भूल गये हैं। अपने स्वरूप का स्मरण नहीं कर रहे हैं।” ।।
१२४.
लक्ष्मण के इस प्रकार समझाने पर शोक से संतप्त चित्त हुए श्रीराम ने शोक और मोह का परित्याग कर के धैर्य धारण किया। ।।
१२५.
तदनन्तर व्यग्रता रहित (शान्तस्वरूप) अचिन्त्य-पराक्रमी श्रीरामचन्द्रजी जिस के तटवर्ती वृक्ष वायु के झोंके खा कर झूम रहे थे, उस परम सुन्दर रमणीय पम्पा सरोवर को लाँघ कर आगे बढ़े। ।।
१२६.
सीता के स्मरण से जिन का चित्त उद्विग्न हो गया था, अतएव जो दुख में डूबे हुए थे, वे महात्मा श्रीराम, लक्ष्मण की कही हुई बातों पर, विचार कर के सहसा सावधान हो गये और झरनों तथा कन्दराओं सहित उस सम्पूर्ण वन का निरीक्षण करते हुए वहाँ से आगे को प्रस्थित हुए। ।।
१२७.
मतवाले हाथी के समान विलास पूर्ण गति से चलने वाले शान्त चित्त महात्मा लक्ष्मण आगे- आगे चलते हुए श्री रघुनाथजी की उन के अनुकूल चेष्टा करते धर्म और बल के द्वारा रक्षा करने लगे। ।।
१२८.
ऋष्यमूक पर्वत के समीप विचरने वाले बलवान् वानरराज सुग्रीव पम्पा के निकट घूम रहे थे। उसी समय उन्हों ने उन अद्भुत दर्शनीय वीर श्रीराम और लक्ष्मण को देखा । देखते ही उन के मन में यह भय हो गया कि हो न हो इन्हें मेरे शत्रु वाली ने ही भेजा होगा, फिर तो वे इतने डर गये कि खाने पीने आदि की भी चेष्टा न कर सके। ।।
१२९.
हाथी के समान मन्द गति से चलने वाले महामना वानरराज सुग्रीव जो वहाँ विचर रहे थे, उस समय एक साथ आगे बढ़ते हुए उन दोनों भाइयों को देख कर चिन्तित हो उठे। भय के भारी भार से उन का उत्साह नष्ट हो गया। वे महान् दुख में पड़ गये। ।।
१३०.
मतङ्ग मुनि का वह आश्रम परम पवित्र एवम् सुखदायक था। मुनि के शाप से उस में वाली का प्रवेश होना कठिन था, इस लिये वह दूसरे वानरों का आश्रय बना हुआ था। उस आश्रम या वन के भीतर सदा ही अनेकानेक शाखामृग निवास करते थे। उस दिन उन महातेजस्वी श्रीराम और लक्ष्मण को देख कर दूसरे-दूसरे वानर भी भयभीत हो आश्रम के भीतर चले गये। ।।
इस प्रकार श्रीवाल्मीकिनिर्मित आर्षरामायण आदिकाव्यके किष्किन्धाकाण्ड में पहला सर्ग पूरा हुआ॥ १॥
Sarg 1 - Kishkindha Kaand - Valmiki Ramayana Translated in Hindi and made Screen Readable for Blind and Visually Impaired individuals by Dr T K Bansal.